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चूमते समय यदि दिमाग़ होंठों तक आ जाए तो होंठ लड़खड़ा जाते हैं।

अंतिम चुम्बन

वह पहले प्यार का अंतिम चुम्बन था जिसके बाद एक जिए हुए प्रेम की बस राख बचनी थी। हम उसी चुम्बन की आग में जल रहे थे। उस पल में सिर्फ कोशिशें थीं रुकने की, एक घर्षण था समय के विरुद्ध जिससे उठी चिंगारियों ने इस आग को जन्म दे दिया। हम उस क्षण में सहस्राब्दियों तक रुकना चाहते थे लेकिन रेलगाड़ी की सीटी बज चुकी थी। समय की नदी का पुल किसी यक्ष की तरह गायब हो चुका था। हमारे पास बस चेहरे बचे थे जिनके लिए अपनी–अपनी भीड़ में गुम हो जाने के सिवाय कोई चारा नहीं था।

वह जब मुझसे पहली बार मिली थी तब यों लगता था जैसे सड़क के दोनों पाट एक दूसरे से मिल गए हों और बीच से सड़क ग़ायब हो गई हो। ऐसा जैसे दोनों हमेशा से यहाँ मौजूद हों लेकिन मिलने में बरसों लग गए। लेकिन सच तो ये था कि उसने मुझे ढूँढा था एक ग़लत पते की तरह। वह शायद मुझसे मिलता–जुलता कोई चेहरा ढूँढ रही थी जिसे उसने मेरे कॉलेज के बास्केटबॉल कोर्ट में देखा था।

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वह मेरे कॉलेज की नहीं थी। बस कभी–कभार अपने किसी दोस्त से मिलने आ जाया करती थी। हम ऐसे ही कॉलेजी दोस्तियों के बनते–बिगड़ते घेरे में एक दूसरे से टकराए थे। उससे मिलने के बाद भी मुझे यह जानने में काफ़ी वक्त लग गया कि मैं वो नहीं जिससे उसे मिलना था। जब तक पता चला तब तक वह ग़लत पते का मकान अब मेरा घर बन चुका था जिसके आँगन में सपनों के कुछ बीज बोए जा सकते थे।

हम मिले और मिलते रहे। हमारी दिनचर्याएँ बदलती रहीं रोज़ बदलते कैलेंडरों की मानिंद। हम कभी दिन–दिन भर डीटीसी बसों में दिल्ली की आवारा सड़कों के चक्कर काटते रहे या अलग–अलग फुलवारियों और बागीचों में दो फूल भर की जगह की तलाश में भटकते रहे। वह प्यार का पहलापन था जो एक मौसम की तरह आता है और मौसम की तरह बीत जाता है लेकिन उसका सत्व आत्मा के पोरों पर हमेशा बना रहता है।

नवम्बर का महीना था। संस्कृति पार्क की बेंच पर बैठे, एक दूसरे की बातों को समझने और चेहरे पर गुदी हुई गहराइयों को पढ़ने की कोशिश में हमारे होंठ टकरा गए। यह पहले प्यार का पहला चुम्बन था जिसके आगे उगते हुए जाड़े की सर्द ठंडी हवाएं थीं, जो दो उच्छृंखल हृदयों की गति को तेज़ और तेज़ किए जाती थी। मैं बिल्कुल अनुभवी प्रेमी नहीं था और यह बात मुझे बहुत जल्द समझ आ गई थी कि मुझे सही तरीके से चूमना भी नहीं आता। चूमते समय यदि दिमाग़ होंठों तक आ जाए तो होंठ लड़खड़ा जाते हैं।

इसी तरह पहले प्रेम को समझने और जीने की चेष्टाओं में तीन बरस कब निकल गए पता भी नहीं चला। सपनों के बीज अब धरती फोड़कर ऊपर तक उग आए थे। अब ये नन्हे–नन्हे पौधे थे जिन्हें देखकर एक सुख की कल्पना की जा सकती थी। जीवन धीरे–धीरे खिसक रहा था जैसे स्टेशन के पास पहुँचकर ट्रेनें खिसकती हैं। विराम से पहले गति का भ्रम बना रहता है।

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हम दोनों उन उगे हुए सपनों के आसपास एक चादर बिछाकर लेट जाते और चुप्पियों की गहरी आवाज़ों के बीच घंटों आसमान देखते। आसमान हमारी आँखों की पुतलियों के सहारे फैलता जाता था। कभी–कभी इतना बड़ा हो जाता कि हम दोनों बाँहें फैलाकर एक दूसरे को पकड़ लेते। ये आलिंगन ऊँचाई से बचने की युक्तियाँ थीं। कभी-कभी प्रेम में हम इतनी ऊँचाई पर होते हैं कि किसी छोटी–सी अपेक्षा का धक्का भी हमें ज़मीन पर ला पटकता है।

ठीक ऐसी ही एक अपेक्षा मेरे मन में भी पनपने लगी थी कि मैं इसी जीवन को जीना चाहता था। मैं धीरे–धीरे इस जीवनानुभव से आश्वस्त होने लगा था। शायद वह भी इसी मोहपाश में बंध चुकी थी। कई–कई बार वह कंधे पर सिर टिकाए मुझसे कहती कि हम ऐसे ही जीवन के सारे वयस पार कर जाएं और जिसतरह अब को जिया जा रहा है, वह हर बसन्त पतझड़ों के बाद हमारी नसों में उगता रहे। यह सब सोचा-बुना यौवन की एक हलचल की तरह हमारे आसपास मंडराता रहता। हम धूप-शाम देखते-देखते रोज़ एक दूसरे को अगली विदा से पहले की एक विदा कहते और अपने–अपने दरख़्तों की ओर लौट जाते।

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