एपिसोड 1

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अनुक्रम 

एपिसोड 1-5 : आवाज़ दे कहां है
एपिसोड 6-9 : उस पार की रोशनी
एपिसोड 10-11 : ज़ायका
एपिसोड 12-15 : क से 'कहानी', घ से 'घर'
एपिसोड 16-20 : तुमने खजुराहो की मूर्तियाँ देखी हैं

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यहां की ये लड़कियां... उसे बेवकूफ़ समझती थीं सारी की सारी। और आपस में उसे ‘बाबा आदम' कह के पुकारतीं। मेघा ने ही बताया था उसे। मेघा ही अकेली कड़ी थी उसके और वहां के माहौल के बीच।

कहानी: आवाज़ दे कहां है

बाबा आदम 

रात जैसे अटक गई थी, किसी पुराने ज़माने के रिकॉर्ड प्लेयर पर अटकी हुई सुई की तरह...

बीती ना बितायी रैना
बिरहा की जायी रैना
भीगी हुई अंखियों ने लाख बुझाई रैना
बीती ना बिताई रैना....

अटकी हुई सुई जैसे एक झटके से आगे खिसकी थी...

यारा सीली-सीली बिरहा की रात की जलना
ये भी कोई जीना है, ये भी कोई मरना
यारा सीली-सीली...

रात की चादर तनते-तनते सिकुड़ने लगी थी जैसे बहते-बहते आंसू अपने आप सूखने लगे हों। जैसे खूब-खूब तन लेने के बाद रबड़ अपनी पुरानी स्थिति में लौटने लगा हो। काली घनी उदास-सी रात, उदासी जितनी ही फीकी पर बेरंग नहीं। आख़िर हरेक उदासी का अपना एक रंग तो होता ही है।

आज शाम से यह उसकी तीसरी सीटिंग थी। पहले मेघा की ड्यूटी, फिर अपनी और अब देर रात यह नाॅन-स्टाॅप बस राहत थी तो यह कि उसे अब बोलना नहीं था। उसने गाने चुन लिये थे और बेहिचक अपनी यादों में डूब-उतरा रहा था। उसे हैरत हुई कि वह इस बात से राहत महसूस कर रहा था कि उसे जुड़ना नहीं था किसी से, बोलना नहीं था लगातार। कभी यही तो उसका पैशन हुआ करता था।

सत्तर फ़ीसदी गाने और ढेर सारे कमर्शियल और सोशल मैसेज के बीच भी वह कुछ लम्हे ढूंढ ही लेता था जिसमें अपने मन की बात कह जाए। और वह बात इतनी लम्बी भी न हो कि किसी को बोर करे और इतनी छोटी और बेमक़सद भी नहीं कि लोग उन्हें सुने और भूल जाएं। सिर्फ़ अपने दिली खु़लूस और आवाज़ के दम पर श्रोताओं से उसने एक रिश्ता कायम किया था, एक अलग-सा रिश्ता। और इसी के सहारे उसने एक लम्बी दूरी तय की थी।

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सुबह-सुबह वह श्रोताओं को गुड माॅर्निंग कहता, पसंदीदा म्यूज़िक सुनाता, क़िस्सागोई करता हुआ ट्रैफिक का हाल बताता, रोचक ख़बरों पर अपनी चुहलबाज टिप्पणियां करता लोगों के ऑफ़िस तक की बेरंग दूरी तय करने में उनकी मदद करता। उसने कभी कोई स्क्रिप्ट नहीं लिखी। वे सब तो उसके अपने ही थे, उन्हें वह जोड़ लेता अपने सवालों, उम्मीदों और बातों से।

इसी हिम्मत के बल पर तो वह चल पड़ा था तब भी और उसके सामने बस यही एक डगर दिखी थी, उस तक पहुंचने की। और गाहे-बगाहे सीधे-सीधे या कि बहाने से वह बजाता रहता था अक्सर 1946 में बनी ‘अनमोल घड़ी' फिल्म का राग पहाड़ी पर आधारित नूरजहां का वह गीत... ‘आवाज़ दे, कहां है...' पर वह आवाज़ भी खलाओं में गूंजती और फिर लौट आती उसी तक, उस सही जगह पर पहुंचे बगैर।

उसकी सकारात्मक सोच अब निराशा में बदलने लगी थी। धीरे-धीरे वह भूलने भी लगा था उसे... या कि उसने तय कर लिया था की सब कुछ भूल जाना होगा कि भूलने के सिवा और कोई दूसरा चारा बचा ही नहीं उसके पास। पर शाम को मेघा वाले प्रोग्राम में जब वह कॉल आया,  वह बजा रहा था... ‘ज़िंदगी के सफ़र में गुजर जाते हैं जो मकाम वो फिर नहीं आते...'

"जो बीत गया उसे वापस बुला लेने की यह ललक क्यों?" वह चौंका था, शायद बेतरह। और चौंकने के क्रम में सवाल का जवाब दिये बगैर एक प्रतिप्रश्न कर उठा था - "आप कौन?"
"बस एक श्रोता। क्या फ़र्क पड़ता है मेरा नाम कुछ भी हो।"

वह अपने पांच साला करियर में पहली बार अवाक हुआ था। लाजवाब उसे वह आवाज़ भी कर गई थी। ढेर सारे प्रश्नों के चक्रव्यूह में घेरती हुई।

"आपने मेरे सवाल का जवाब नहीं दिया? बीते हुए को वापस लौटा लाने की यह ललक क्यूं है आप में? बीत गया जो वह जैसा था कल था। और ज़िंदगी को जीने के लिये आज की ज़मीन की ज़रूरत होती है। यूं पीछे मुड़-मुड़ कर देखेंगे तो..." 

वह चुपचाप सुन रहा था जैसे कोई और भी कहता था उसे...‘वर्तमान को उसकी पूर्णता में जीना सबसे ज़रूरी है। हर पल को इस शिद्दत से जियो कि उसमे पूरी ज़िंदगी जी लो।  फिर बीत चुके से कोई शिकायत नहीं होगी और न उसे वापस लाने की ललक।

उसने सहेजा था ख़ुद को, वह अपनी सीमाओं में बंधा था। वह कहना तो बहुत कुछ चाहता था पर उसने कहा बस इतना ही वह भी अपने को बटोरते हुये... "गाना?"

"किशोर कुमार का गाया, गोलमाल फिल्म का वह गीत - ‘आने वाला पल जाने वाला है।"

"डेडिकेट करेंगी किसीको...?"

" हां, आपको..." वह आवाज़ खिलखिलाई थी।

उस खिलखिलाहट में भी सम जैसा कुछ था... पर उस सम से भिन्न भी। वहां एक चहक होती थी, वहां एक ललक होती थी और यहां तह-तह दबाई गई उदासी।

मेघा ने जाते हुये कहा था उससे ‘यार, प्रोग्राम को अपने प्रोग्राम की तरह एन्सीएंट हिस्ट्री का कोई चैप्टर मत बना डालना, यही रिक्वेस्ट है तुम से... प्लीज़... कुछ चटकदार-लहकदार नये गाने...' उसके चेहरे की रेखायें तनी थी और इस उतार-चढ़ाव को भांपते हुये उसने कहा था  ‘चलो ठीक है, जैसी तुम्हारी मर्जी...'

मेघा उसकी दोस्त थी। मेघा उसे अच्छी लगती थी ... पर उस जैसी नहीं।  उस जैसी तो फिर कोई नहीं लगी। और यहां की ये लड़कियां...उसे बेवकूफ़ समझती थीं सारी की सारी। और आपस में उसे ‘बाबाआदम' कह के पुकारतीं। मेघा ने ही बताया था उसे। मेघा ही अकेली कड़ी थी उसके और वहां के माहौल के बीच।

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वो लड़कियां जब मन होता आतीं, मुस्कुरातीं और कहतीं... ‘सहज, मुझे कुछ ज़रूरी काम है, मेरा प्रोग्राम तुम देख लोगे, प्लीज...' और फिर चल देतीं अपने ब्वाय फ्रेंड के साथ... और फिर आपस में बतियातीं आज फिर उसे बकरा बनाया।

उसे समझ में आता था सब कुछ, पर काम ले लेता। काम तो आख़िर काम था चाहे जिसके हिस्से का हो। और वह काम करने ही तो आया था यहां... दिन-रात बेशुमार काम... कि वह सब कुछ भुला सके या कि पहुंच सके उस तक... यह बात उन तितलियों जैसी लड़कियों की समझ में कहां आती... वे सब लड़कियां जो प्रीति जिंटा और विद्या बालन की होड़ मे इस फील्ड में आ घुसी थीं और कुछ उसी स्टाईल मे सजती-संवरती और कहती थीं - हलो ओ ओ ओ दिल्ली... कचर-कचर अंग्रेज़ी बोलती और अपने अलग-अलग डीयो और परफ्यूम्ज़ की गंध से  स्टूडियो में गंधों का कोई कॉकटेल रचती ये लड़कियां जब स्टूडियो से एक साथ निकलतीं तो सब गंध हवा-हवा- हो लेते और पूरा का पूरा स्टूडियो निचाट हो जाता।

ऐसे में गुलशन अक्सर आता उसके पास और सुना जाता कोई न कोई शेर...

ज़मीं भी उनकी ज़मीं की ये नेमते उनकी
ये सब उन्हीं का है -  घर भी, ये घर के बन्दे भी
खु़दा से कहिये कभी वो भी अपने घर आये।

वह जानता था वो बातें ज़रूर लड़कियों की कर रहा है पर उसका इशारा किसी ख़ास की तरफ़ है। और वह सचमुच उसके लिये दुआएं मांगता, सच्चे मन से। लेकिन उसकी दुआएं तो हमेशा बेअसर ही रहीं। नेहा प्रोग्राम एक्ज़्क्यूटिव शिवेश के संग-साथ ज़्यादा दिखने लगी थी इन दिनों। वे साथ-साथ निकलते... कभी-कभी स्टूडियो में साथ-साथ घुसते भी। 

गुलशन बहुत उदास रहने लगा था और उस दिन उदासी में ही कहा था उसने...

सामने आये मेरे, देखा मुझे, बात भी की
मुस्कुराये भी पुरानी किसी पहचान की खातिर
कल का अख़बार था बस देख लिया रख भी दिया।

उसका मन हुआ था वह मुड़ कर गुलशन को कलेजे से लगा ले। पर उसने हौले से उसकी हथेलियों पर अपनी हथेली भर धर दी थी।

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