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कितने अनएक्सपेक्टेड ढंग से लोग आए उसके जीवन में... कितने सारे… और एक दिन अपना सामान उठा बिना बताए चलते बने। लोगों को जल्दी होती है आने की भी, जाने की भी।

बेएतबारी


एयरपोर्ट की तरफ़ निकलने के लिए अपनी बाइक को किक मारते हुए उसकी देह कई बार झनझनाई। वैसे भी जबसे उसने अपने आने का बताया है, भीतर लगातार कुछ झनझनाए जा रहा है… कुछ भी उसके वश में नहीं है। करती है कुछ, कुछ और हो जाता है... चलती है कहीं और के लिए, पहुँचती कहीं और है। भीतर इतनी उथल-पुथल मच गई है कि कोई बात अपनी जगह पर नहीं है। हज़ारों बार सोचा, अभी मना कर दे आने को... उसके एग्ज़ाम सिर पर हैं पर जानती है, नहीं कर पाएगी। एग्ज़ाम तो हमेशा ही उसके सिर पर सवार रहे हैं। उन्हीं के बीच ही तो जीने की थोड़ी-सी मोहलत मिलती है, नहीं तो घरवाले तुम्हारा गोश्त बनाकर खा जाएं। और वह खु़द भी तो कितनी पागल हो रही है, अभी तो सिर्फ़ बात हुई है, मुलाक़ात तो हुई ही नहीं पर देखो भीतर एक अजीब-सा संगीत बजने लगा है... बेचैन संगीत... गोया लहरें किनारों तक आती हैं, जाती हैं, सिर पटकती हैं। समझ नहीं पा रही ऐसा क्या हो गया है उसके साथ जो पहली बार है... नहीं, पहली बार कुछ नहीं है पर क्या हर बार पहली बार नहीं है? हर बार यही दीवानगी... हर बार यही जुनून… हर बार भीतर को तहस-नहस कर देने वाला तूफ़ान कि लगता है इस बार... इस बार... तुम गए…

देर तक उसके कानों में उसकी आवाज़ की लहरें कांपती हैं, जब बात करने के बाद वह फ़ोन रखती है। कितना आहिस्ता-आहिस्ता रुक-रुक कर बोलती है वह। इंग्लिश तो फ़्लूएंट बोलती है पर हिंदी के छोटे-छोटे वाक्य… पर जब चुप होती है, सबसे ज़्यादा बोलती है। बिल्कुल साफ़। जो नहीं कहा जा सका, वह तुम्हारे पूरे वजूद में समा जाता है। उसकी सांसों की मद्धिम-मद्धिम आवाज़... वह छू सकती है उसकी भाप-सी उठती सांस... इनविज़िबल पर ठोस… उस साँस की कांपती हुई देह जो उसकी अपनी देह पर काबिज़ हो जाती है और वर्तुलाकार उसके भीतर उतरती है। कैसे कोई उतर सकता है इस तरह तुम्हारे भीतर... बेआवाज़ पर वज़नदार... कैसे कोई तुम्हारे अंदर के पानियों में छलांग लगा देता है। एक हल्की-सी ‘गुडुप’ की आवाज़ और पानी, पानी में समा जाता है। उसे अपने भीतर उछलती लहरें महसूस होती रहती हैं उससे बात करते वक़्त। 

यह जाते हुए नवंबर की ठण्डी शाम है। छः बजने से पहले ही अँधेरा उतरने लगता है। आठ बजे की फ्लाइट है और वह छः बजते ही घर से निकल पड़ी है। हद से हद आधे घंटे का रास्ता है माना एयरपोर्ट का, क्या करेगी एयरपोर्ट के बाहर बैंच पर बैठकर? वही जो घर पर बैठ कर करेगी... उसे याद। जब किसी की याद आती है, घर से बहुत दूर जाने का मन करता है... अकेले भटकने का... जहाँ तुम उस याद को छू सको... उसे अपने हृदय की नसों में पूरा चक्कर लगाते महसूस कर सको। घर किसी को याद करने ही नहीं देता, घर की सख़्त और ठण्डी दीवारें गुनगुनी याद को भी ठंडा कर देती हैं। घर की निरंतर चलती चक्की में तुम्हें लगातार कुछ न कुछ डालना ही पड़ता है... थोड़े-से एहसास, थोड़े-से ठोस इरादे, थोड़ा-सा कांफिडेंस, थोड़ी-सी खु़द्दारी, थोड़ी मुलामियत और धीरे-धीरे अपना आप खाली होता जाता है। 

अब वह सचमुच हल्की ठण्ड में सिहरती, बाहर बैंच पर मोबाइल हाथ में थामे उसे याद कर रही है। कारें रुकती हैं, सजे-धजे लोग उतरते हैं, अपने बैग से टिकट और आई. डी. निकालते हैं, ट्रालियां घसीटते हुए प्रवेश द्वार तक जाते हैं, टिकट चेक करवाते हैं और अंदर चले जाते हैं। कई पल वह उन सबको निर्विकार-सी देखती रहती है।

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दोस्तों के कनेक्शंस भी कहीं से कहीं जा मिलते हैं। जिसे हम ख़त्म हो चुका समझते हैं, उसकी राख में भी एक चिंगारी दबी रहती है।

कितने अनएक्सपेक्टेड ढंग से लोग आए उसके जीवन में... कितने सारे… और एक दिन अपना सामान उठा बिना बताए चलते बने। लोगों को जल्दी होती है आने की भी, जाने की भी। हमारी जेनरेशन की यही प्राॅब्लम है। बहुत तेज़ी से लोग आते और जाते हैं, मानो जीवन किसी ट्रेन का कम्पार्टमेंट हो। हर स्टेशन पर कोई चढ़ जाता है और कोई उतर जाता है। पता ही नहीं चलता, किसके पास कहाँ तक का टिकट है? जिसके साथ रात हम आराम से सोए होते हैं, सुबह वही गायब मिलता है। नोरा भी उतर गई थी बिना बताए... मात्र एक ही साल का साथ था और उस एक साल में पागलों की तरह प्रेम किया था उन्होंने... 

‘ख़रगोश, तू मुझे छोड़ तो नहीं देगी न?’ नोरा उसे अक्सर कहती। उसकी दुबली-पतली देह, ग्रे आँखें और सफ़ेद त्वचा के चलते उसके क़रीबी दोस्त उसे ‘ख़रगोश’ कहते।  

‘यह बेएतबारी आपकी तरफ़ से है। आपको ऐसा लगता है क्योंकि भाग जाना आपकी फ़ितरत है। किसी के साथ सारी उमर नहीं रहना चाहतीं या साथ रहने से डर लगता है?’

‘दोनों... लड़कियां धोखेबाज़ होती हैं। जब तक उन्हें कोई लड़का नहीं मिलता, लड़कियों के साथ टाइम पास करती हैं। जैसे ही कोई लड़का मिला... छू...’ नोरा चुटकी बजाते हुए शरारत से कहती। 

‘हां, पर कुछ ऐसी भी तो होती हैं जो लड़कों के साथ जाना ही नहीं चाहतीं।’ 

‘यह कुबूल कर सकने का करेज कहाँ होता है सबमें?’ उसके चेहरे पर एक गहरी मुस्कान आ जाती थी। 

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‘पर आपमें तो है। आप जो चाहती हैं उसे कुबूल कर सकने का करेज...’

वह चुप हो गई थी। वह कभी अपने दिल की बात नहीं बताती थी और फिर एक दिन वह यूँ ही उतर गई उस कम्पार्टमेंट से, बिना बताए। वह तड़फ़ कर रह गई थी। हर स्टेशन पर इंतज़ार किया था कि आ जाएगी घूम-फिर कर, पर वह नहीं लौटी थी। और फिर लगभग चार साल बाद नोरा ने उसे कॉल किया था… नोरा का नंबर तक उससे खो गया था पर उसकी आवाज़ सुनते ही लम्हे में काया ने उसे पहचान लिया था।

‘आपके पास आज भी मेरा नंबर है?’
‘हां, मैं आज भी तुम्हें उतना ही प्यार करती हूं।’ सुनकर काया को थोड़ी हंसी आ गई।
‘कोई शक?’ उसकी हंसी सुनते ही नोरा ने पूछा।
‘नहीं। प्यार तो बहुत लोग करते हैं पर ज़िम्मेदारी कोई नहीं उठाता।’ काया के मुंह से निकल गया। क्षण भर को दूसरी तरफ़ ख़ामोशी छा गई।  

‘ये तो दो अलग बाते हैं काया। ज़िम्मेदारी उठाने वाले प्यार नहीं दे पाते और प्यार करने वाले ज़िम्मेदारी नहीं उठा पाते। इन दोनों को मत मिलाओ। उठा तो रहे हैं हमारे घरवाले हमारी ज़िम्मेदारी, पर प्यार कहाँ है? रिस्पेक्ट कहाँ है?’
‘आप किस तलाश में गई थीं?’
‘अभी इस सवाल का जवाब नहीं दे पाऊंगी। बताओ कैसी हो?’ 
‘ठीक, आप बताएं, क्या चल रहा है लाइफ़ में?’ उसका दिल एक बार ज़ोर से धड़क कर ख़ामोश हो गया। 


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