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अपनी बात

रात का अंधेरा कितना सुकून देता है, हर चीज़ सोयी-सोयी सी...पेड़, पौधे, फूल, पत्थर, जीव-जंतु और मनुष्य। नहीं, सब नहीं सोते। इनमें कुछ जागता रहता है हमेशा चैतन्य स्थितप्रज्ञ...। कौन जानता है, वह क्या है? जो जानता है, नहीं कह पाता...। हम उसके बारे में कुछ नहीं कह पाते, जो जानते हैं। हम वही कहते हैं, जो लगता है। 'लगने' और 'जानने' के बीच के फासले तय करने को होता है किसी-किसी का जन्म.... नहीं सभी का। पर कुछ जान पाते हैं, कुछ नहीं। 

मैं जो जानती हूं, कह सकती हूं किसी से? पीछे मुड़कर देखती हूं तो एक लंबा सिलसिला है- एक अनंत विस्तार...जाने कितने पहाड़...जंगल और नदियां और इसके बीच गुजरती मैं...। मैं पहाड़ हूं...स्थित, स्थिर, स्थितप्रज्ञ, निर्विकार...। अपनी तलहटी में जाने क्या-क्या छिपाए...होठों पर उंगली रखे..बर्फ को सिर पर लपेटे, कोहरे से ढंके...उदासीन। 

मैं जंगल हूं...जाने कितने रहस्य लपेटे, घायल पशुओं की चीखें ...चीत्कारें...कच्चे मांस और सड़ रहे बीजों की बासी गंध समेटे ...।

मैं नदी हूं...अपने आप में अकेली और पूरी...। नदी समुद्र से मिल गई, कोई कहता है और मैं बिछलकर हँस पड़ती हूं... समुद्र...सिर्फ़ समुद्र...इसके पहले और बाद में...? किसी ने कभी नदी से जाकर पूछा है...उसे क्या चाहिए...वह चाहती है समुद्र से मिलना या तुम ही तय कर रहे हो सब? हां, हम ही तय करते हैं सब, नहीं तो फ़िर दिक्कत हो जाएगी न। अब नदी तो नहीं कहेगी, उसे नहीं बहना या पहाड़ तो नहीं कहते, अब चलें कहीं और? या जरा बैठ ही जाएं, खड़े हैं बरसों से। 

कहा नहीं किसी ने उनसे-बैठ जाओ भाई, जरा सुस्ता लो। उनकी नियति है, हम जानते हैं। और हमारी नियति-हमारी नियति है भटकना...। हवा की तरह...इधर-उधर...। तय कुछ और था, हो कुछ और गया। जो हो गया, वही बताने को तो लिख रही हूं यह सब...। 

तय भी यही था...हुआ भी यही। यही बताने को तो लिख रही हूं....... 


भाग-1 : पहाड़

ऐसा हो जाता है बहुत बार कि ज़िंदगी बिल्कुल आपके करीब से गुज़र रही हो और एक बेहिस व्याकुलता के साथ आप उसका हाथ अपनी दोनों मुट्ठियों में कसकर पकड़ लेना चाहते हों। चाहे लम्हे को ही सही, आप उसे अपने अंदर महसूस करना चाहते हों, पर पता नहीं किस संकोच से आप ठिठके खड़े रह जाते हैं…  

नायक की तलाश

चौथा पीरियड ख़त्म होने की घंटी बजती है और धप्प से मेरी पीठ पर धौल पड़ता है ......

‘पढ़ उपन्यास पढ़.... यही तेरे काम आएगा, अच्छा? चेहरा तो ऐसे बनाती है, जैसे यही एक पढ़ने वाली है।’ 

मैं खिसियानी हँसी हँसते हुए बीना को देखती हूं। पूरी क्लास में शोर हो रहा है। टीचर जा चुकी है। वे नहीं जान पाईं, मैं उन्हें नहीं सुन रही, उपन्यास पढ़ रही थी। 

‘पकड़ी जाती तो ..........।’ 

रिसेस हो चुकी। वह किताबें समेटकर अपने बस्ते में डाल रही है। 

‘तो उन्हें उपन्यास दे देती पढ़ने को। कहती, जो आप पढ़ा रही हैं, उससे अच्छा है, खुद पढ़के देखिए।’ मैंने उपेक्षा से कहा। वैसे भी मुझे इकॉनामिक्स की इस टीचर मिसेस बेदी से चिढ़ है। शक्ल ऐसी जैसे चप्पल उल्टी पड़ी हो। मुझे टोकने का तो इसे बहाना चाहिए एक। कभी-कभी लगता है, वे दुनिया की हर खूबसूरत चीज़ से चिढ़ती हैं, जैसे-नदियों, पहाड़ों, खुशबुओं से....     जैसे-मुझसे.....

हम सब क्लास से बाहर आ गए। कुछ लड़कियां खाने और कुछ खेलने चली गईं। न मुझे खाना अच्छा लगता है अब स्कूल में, न खेलना। अब खेलने-खाने की उम्र रह गई है क्या मेरी? नवीं में आ गई हूं। मैं लड़कियों से घिरी-घिरी धीर गंभीर नायिका की तरह पांव रखती बाहर बरामदे में आकर खड़ी हो जाती हूं। 

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कुछ छोटी क्लास की लड़कियां हमारी तरफ़ दौड़ती आती हैं... ‘दीदी ....... दीदी, हमारे साथ खेलिए न।’ 

मैं बुजुर्गाना ढंग से मुस्कराती हूं और उन्हें हाथ से जाने का इशारा करती हूं। सामने गेट है बड़ा-सा। लकड़ी के पट्टों से बना। उसके बाहर आठ-दस लड़के हमेशा रिसेस में और छुट्टी के दौरान खड़े मिलते हैं। मेरी सहेलियां उन्हीं की बातें करती हैं, दबी आवाज़ में मुझसे छिपकर इस मामले में वे मुझे अपने-आपसे अलग कर लेती हैं। 

उनके खयाल से मैं किसी दूसरे ग्रह से आई, बगैर लडकों के खुश रहती हूं अपने आपमें। और मैं उन ढीली-ढाली शर्ट और चप्पल पहने गंवई लड़कों को देखती हैं तो मन विरक्ति से भर जाता है। मुझे अमृता प्रीतम के उपन्यासों के समान किसी नायक की तलाश है- मारक सौंदर्य और पुरुषत्व से भरपूर। जिस्मानी खूबसूरती मेरे लिए अहमियत रखती है, चाहे वह खुद मेरी हो या दूसरों की। जब कभी मेरी सहेलियां घर आती, छोटी बुआ कहतीं ..... 

‘तू कैसी है और तेरी सहेलियां कैसी हैं-एकदम काली-कलूटी.... तुझे अपनी जैसी लड़कियां नहीं मिलती क्या?’ 

मैं एक विशिष्टता के बोध से भर जाती। इस सबके बावजूद मैं उनसे बहुत प्यार करती हूं। वे चलते-चलते मेरे गले से झूल जातीं, मेरी कमर में हाथ डालकर चलतीं। मैं हँसती तो वे मुग्ध भाव से मुझे देखतीं और गाल पर पड़ रहे गड्ढे पर अपनी उंगली टिका देतीं। 

मैं बाहर खड़े लड़कों पर उचटती नजर डालती हूं। निर्लिप्त भाव से-जो मुझे देखता है, मैं उसकी तरफ़ नहीं देखती।

लड़कियां इमली, अमचूर, खट्टे बेर खरीदती हैं। मैं यह सब नहीं खाती। वे मुझे देती हैं, मैं मना कर देती हूं... 

‘मुझे खट्टी चीजें अच्छी नहीं लगती।’

 ’ऐ, तू लड़की नहीं है क्या?’ 

 मीना मेरी पीठ पर धौल मारती है। 

मैं थोड़ा-सा घूम-घाम के वापस लौटती हूं। क्या करूं अब? उपन्यास भी ख़त्म हो गया। मैं कॉपी खोलती हूं पीछे से और उस पर कविताएं लिखती हूं...। खूब सोच-सोचकर, तुक से तुक मिलाकर....

'मेरे नगमों को गुनगुनाएगा कौन? 

गुनगुना के मुझको रुलाएगा कौन?

यकीं नहीं है मुझे इस सूरज पर 

अस्त होने से इसे बचाएगा कौन?'

रिसेस ख़त्म होने की घंटी बजती है और लडकियां झंड की झुंड मुझ पर आ गिरती हैं... 

‘ए, ये गई काम से।’

‘तुझे कुछ और नहीं आता लिखने के सिवा। ए मनु, तेरा सच में कुछ नहीं हो सकता।’

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क्या होगा मेरा? क्या हो सकता है मेरा? पता नहीं? मैं नहीं सोचती। मुझे फुर्सत नहीं है। मुझे पॉकीजा की मीनाकुमारी की तरह होना हैं-दुःख सहती अपने अस्तित्व को जमाने की ठोकरों से बचाती...नहीं, मैं लिखना नहीं छोडूंगी। 

अगले तीनों पीरियड खाली हैं। अब? 

'अंताक्षरी' कोई ज़ोर से चिल्लाती और पूरी क्लास में हड़कंप मच गया। तुरत-फुरत दो ग्रुप बन गए। डेस्क एक तरफ़ हो गए, कुर्सियां एक तरफ। सीमा ने मुझे खींचकर अपनी तरफ़ कर लिया-अपने पास वाली कुर्सी पर बैठा मेरी कमर में बांह डाल दी। मुझे गुदगुदी हो रही है। मैं हाथ हटाना चाहती हूं। वह सख्त कर लेती है-एक नर्म-गर्म हाथ-किसी की बांहों में खो जाने का मन पहली बार होता है। मैं उसकी बांहों में खुद को ढीला कर देती हूं। वह थाम सा लेती है।     

‘शुरू करो अंताक्षरी, लेकर हरि का नाम...। 'म' से बोलो।’ 

‘मैंने तेरे लिए ही सात रंग के सपने चुने... सपने-सुरीले सपने...।’ 

किसी ने शुरू किया। डेस्क बजने लगे। एक आवाज़ में कई आवाज़ें मिल गईं। समां बंध गया। मैं खुली और खुलती चली गई। मैं काफ़ी अच्छा गाती हूं। ख़ासतौर से लता मंगेशकर के गीत और इस मामले में मेरी याद्दाश्त का भी जवाब नहीं और आखिर डेढ़ घंटे के बाद हम जीत गए। डेढ़ घंटे में क्या सिर्फ़ यही हुआ था कि उस दौरान हम जीते थे। नहीं, मैं हार गई थी। 

जाने कब सीमा ने मुझे अपनी गोद की गरमाई में समेट लिया था और मुझे उठने नहीं दे रही थी। मेरी पीठ के नीचे बेंच का कड़ापन था, पर मुझे एक असीम सुख की अनुभूति हो रही थी। मैंने उसकी बांहों में मुंह छिपा लिया। मेरी आंखों में आंसू आ गए। मैंने उसका दुपट्टा आंखों पर रख लिया। मैं हँस रही हूं। मैं रो रही हूं।

 'ऐसा हो जाता है बहुत बार कि ज़िंदगी बिल्कुल आपके करीब से गुज़र रही हो और एक बेहिस व्याकुलता के साथ आप उसका हाथ अपनी दोनों मुट्ठियों में कसकर पकड़ लेना चाहते हों। चाहे लम्हे को ही सही, आप उसे अपने अंदर महसूस करना चाहते हों, पर पता नहीं किस संकोच से आप ठिठके खड़े रह जाते हैं, इस बात से बेखबर कि एक नामालूम-सा पछतावा आपकी नियति बनने वाला है.....

यह मैंने घर आने के बाद लिखा था-रात को। 

पर उस वक़्त तो मैं घर वापस नहीं लौटना चाहती थी। क्या है वहां? मैं हमेशा भारी कदमों से घर वापस लौटती हूं। मुझे हमेशा लगता है, एक जेल का बड़ा सा फाटक खुलता है। मैं अंदर होती हूं, वह बंद हो जाता है। 

घंटी बजती है और हम घर वापस लौटते हैं। मैं वही नहीं लौटती, जो गई थी। सख्त गर्मी के बावजूद तेज़ धूप नहीं लग रही। अपने पसीने की महक अच्छी लगती है। अपने कपड़ों से उठती अपनी देहगंध। मैं हवा में बांहें फैलाना चाहती हूँ, नहीं फैलाती। मैं किसी को चूम लेना चाहती हूं, नहीं चूमती। मैं दौडना चाहती हूं बहुत तेज, नहीं दौड़ती। मैं संतुलित कदमों से बाहर निकलती 'ओ.के. बाय' कहकर विदा लेती हूँ। सीमा और मैं एक-दूसरे को देखकर हँसते हैं। वह मेरे गाल थपथपाती है और पीठ मोड़ लेती है। मैं दूर जाती हुई पीठ देखती हूं। 

 घर आती हूं। सब-कुछ वही है। मां और दादी के अंतहीन झगड़े। छोटी-छोटी बातों पर वे हफ्तों झगड़ती हैं। बाबूजी और दादाजी के झगडे। बाबूजी बहुत चिल्लाते हैं। जितनी देर वे घर में रहते हैं, हम कोशिश करके बाहर नहीं निकलते, जब तक वे न बुलाएं। वे बुलाते हैं तो 'मनु' का 'उ' ख़त्म होते न होते चार छलांगों में उनके पास पहुंचना होता ही होता। नहीं तो इस बात पर डांट कि इतनी मरी चाल से क्यूं चलते हो? 

मां इंतज़ार करती मिलती हैं। सुबह से कुछ नहीं खाया मैंने। वे जल्दी से मेरा खाना लगाती हैं। मैं हमेशा एक रोटी खाती हूं और वे हमेशा इस बात पर नाराज होती हैं। खाना खाकर मैं लेट जाती हूं। और कोई दिन होता, मैं खाना खाकर या तो क्रोशिया बनाती या तकिये के कवर पर सिंधी कढ़ाई। मां इन दिनों मेरे ये सब सीखने पर ज़्यादा तवज्जह देती हैं। मुझे क्या सीखना चाहिए, कैसे बनना चाहिए?, ये सब वे खुद तय करती हैं। आज मन भरा हुआ है, मैं चादर में मुंह छिपाकर रोती हूं। चुपचाप .... ख़ामोशी से-कुछ भरा हुआ है अंदर, मैं खाली होना चाहती हूं। रोते-रोते मैं सो जाती हूं। मुझे कोई नहीं जगाता। 

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