एपिसोड 1

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अनुक्रम

एपिसोड 1-12 : दिन ढले की धूप
एपिसोड 13-19 : गिलोटीन
एपिसोड 20-26 : जाग तुझको दूर जाना

नए एपिसोड, नई कहानी
एपिसोड 27-35 : शुतुरमुर्ग
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मैं उन दिनों फुसफुसाहटों की रहस्यमयी दुनिया में दिन-रात भटका करता था। मुझे कोई कुछ नहीं बताता और किसी न किसी बहाने वहाँ से हटा देता।

कहानी : दिन ढले की धूप

प्रिया दी

सबसे पहले मुझे ही मिला था प्रिया दी के विवाह का कार्ड। मैं कॉलेज जा रहा था तो बीच रास्ते में डाकिये ने पुकारकर कार्ड थमा दिया था। पिताजी की वजह से वह मुझे पहचानने लगा था। पिताजी वहीं, मतलब भागलपुर में ही स्टेट बैंक में कैशियर थे। कार्ड देख लेने के बाद थोड़ी देर तक तो मुझे समझ में ही नहीं आ रहा था कि इस विवाह पर मुझे कितना प्रसन्न होना चाहिए!

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तब मैं शायद पाँचवीं कक्षा में पढ़ता था जब पहली बार प्रिया दी के विवाह के बारे में सुना था। पता नहीं यह कैसा विवाह था कि हम लोग उसमें जा भी नहीं पाए थे। घर में इस बारे में ज़्यादा बातें भी नहीं होती थीं। वरना तो परिवार में चाहे किसी का भी विवाह हो, महीनेभर पहले से लेकर महीनेभर बाद तक उसकी चर्चा चलती रहती थी। 

मेरी उम्र मुश्किल से 6 साल की रही होगी जब पहली बार मैं प्रिया दी से मिला था। एक बार मौसा घर आए थे और माँ को मनाकर मुझे अपने साथ लेते चले गए थे। मौसा जवानी के दिनों में अपने इलाके के नामी पहलवान हुआ करते थे और बाद में पशुओं का व्यापार करने लगे थे। उसी सिलसिले में वे हफ्ते-दो हफ्ते में एक बार भागलपुर ज़रूर आ जाते थे।

मौसा के आते ही घर में मानो हंगामा-सा मच जाता था। वह बहुत ज़ोर-ज़ोर से बोलते थे और अपने इस नायाब हुनर को हमेशा खुलकर आज़माया करते थे। उनके बात करने का लहज़ा दबंग था और आवाज़ रोबीली थी। माँ से उन्होंने मेरी तरफ इशारा करते हुए मौसी के बारे में बताया था कि वह इसे देखना चाहती है। मौसी को दिखाने के लिए माँ ने मुझे मौसा के साथ उनके गाँव रवाना कर दिया था। उसे भरोसा था कि अगले हफ्ते वह जब आएँगे तो मुझे भी वापस लेते आएँगे। तभी पहली बार मैं प्रिया दी से मिला था। और मिला भी इतना था कि रात-दिन उन्हीं के पल्लू से बँधा-बँधा फिरता था। मौसी तो माँ को बाद तक कहती रही थीं कि “पिरिया तो सोनू को अपना बच्चा जैसा मानती है।” 

उस बार ऐसा हुआ था कि मौसा तीन हफ्ते तक भागलपुर नहीं आ सके थे। तब तक मैं प्रिया दी और मौसी का दुलरुआ बनकर उनके गाँव में ही मज़े करता रहा था। वापसी में मौसा ने मुझे जमालपुर के बाज़ार से खूब सुन्दर कपड़े और खिलौने दिलवाए थे। वापस आने पर रजनी दी ने बताया था कि पिताजी रोज़ गुस्सा करते थे माँ पर कि उसे वहाँ क्यों भेज दिया! असल में पिताजी हमेशा अपनी थाली में ही मुझे खाना खिलाते थे। मेरे बिना उन्हें बहुत अखरता होगा।

प्रिया दी के विवाह की चर्चा कुछ दिनों से घर में दुबारा होने लगी थी जो मेरी समझ में आने से पहले ही फुसफुसाहटों में कहीं खो जाती थी। फिर भी मैं इतना तो समझ ही लेता था कि उनके साथ कुछ बुरा हुआ है। पिताजी ने माँ को कई बार डपट दिया था कि बच्चों के बीच इस तरह की खुसर-फुसर न किया करें। लेकिन माँ परवाह नहीं करती थी। 

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घर में जब भी किसी मामू या मौसी का आगमन होता तो वैसी फुसफुसाहटें कान फाड़ने लग जातीं। रजनी दी और बबिता दी उस दौरान माँ के पास ही घुसी बैठी रहतीं और बाद में दोनों देर तक कुछ उदास-उदास-सी दिखतीं। मैं उन दिनों फुसफुसाहटों की रहस्यमयी दुनिया में दिन-रात भटका करता था। मुझे कोई कुछ नहीं बताता और किसी न किसी बहाने वहाँ से हटा देता।

उन्हीं दिनों में एक दिन प्रिया दी घर आ पहुँची थीं। अकेली। किसी कपड़े की दुकान के नाम छपे प्लास्टिक के एक थैले में दो-तीन कपड़े टांगे हुए। माँ और मेरी दोनों बहनें प्रिया दी को देखकर बिलख उठी थीं। प्रिया दी भी माँ से लिपटकर जाने कितनी देर तक रोती रही थीं। मैं तब 10-11 साल का हो गया था। 4-5 साल पहले की स्मृतियों को जोड़कर मैं खुद को प्रिया दी के निकट नहीं ले जा पा रहा था। प्रिया दी पहले से बहुत बड़ी लग रही थीं। और खूब सुन्दर भी। मुझ पर नज़र पड़ते ही वह रोते में भी ज़रा-सी मुस्करा पड़ी थीं। मैं शरमा गया था कि उन्हें रोते हुए में देख रहा था। उनसे नज़र मिलते ही मैं अचकचाकर बाहर निकल आया था।

शाम में पिताजी लौटे थे। उन्हें प्रिया दी का यूँ आ जाना शायद अच्छा नहीं लगा था। माँ जब रात में खाना देने आई तो पिताजी ने बहुत बेरुखी से पूछा था, “यह यहाँ क्यों आई है?” माँ पिताजी का रुख देखकर एकदम सकपका गई थी। बहुत धीरे-से उसने बस इतना ही कहा था - “दुखियारी है बिचारी!” जवाब में पिताजी ने बिना कुछ कहे खाने की थाली अपने और मेरे दरमियान चौपड़ की भाँति जमा ली थी। मुझे महसूस हो रहा था कि प्रिया दी के आने में कुछ तो ऐसा ज़रूर है जो पिताजी को खल रहा है। 

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