एपिसोड 1

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रोशनी कम थी, लेकिन दिख रहा था साफ-साफ, आईने में जो शक्ल दिख रही थी, उसकी नहीं थी। उसी साड़ी को सिर पर घूंघट किए छोटे कद की गोल चेहरे वाली लड़की थी। नाक मे नथुनी, माथे पर बड़ी सी लाल बिंदी, मांग में ढेर सारा नारंगी सिंदूर। हंस रही थी उसकी तरफ देख कर। 

मुझे प्यार करो

अप्पा जी बहुत गुस्से से अपना बाबा आदम के जमाने का छाता ले कर मारने लपके। अम्मा न होती तो शायद सिर ही फूट जाता। पुराने छाते में न सही, अप्पा की बाजुओं में तो दम था।

सुनेत्रा पीछे की तरफ हटी और दीवार से जा चिपकी। अम्मा की आवाज़ तीखी और तेज़ थी, ‘बेटी को मारोगे क्या? उसकी बात तो सुन लो।’ 

अप्पाजी भड़क गए, ‘क्या बचा है सुनने को? तुम्हारी सोशल वर्कर बेटी सीना तान कर कह रही है कि वह ऑटो चलाने वाले से शादी करेगी, उसके साथ धारावी की खोली में रहेगी, मैं चुपचाप सिर हिला दूं? रास्कल, राउडी, कोन्नुड़वेन…’

शंकर बिल्डिंग के नीचे खड़ा था, अच्छा हुआ, ऊपर नहीं आया। अप्पा जी उसके ऊपर तो निश्चित छाता-वाता कुछ भी चला देते।

अप्पा ने लंबी सांस ली और कुर्सी पर टिक कर बैठते हुए बोले, ‘सुनेत्रा, नाउ देट यू हेव टेकन अ डिसीज़न, यू में लीव माय हाउस!’

अम्मा की आवाज़ दब गई, ‘एकलौती बेटी है, आप ऐसा घर से जाने को कैसे बोल सकते हैं?’

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अप्पा ने ज़ोर से कहा, ‘इस लड़की को मेरे घर में रहना है तो मेरी बात माननी होगी। यहां इसकी मनमानी नहीं चलेगी।’

सुनेत्रा धीरे से कमरे में आ गई। अलमारी के ऊपर से अपना बैग पैक निकाला। पांच-छह सूट, जीन्स, कुरतियां, ज़रूरी कपड़े, सर्टिफिकेट रखा, किचन में जा कर एक गिलास पानी पिया और धड़धड़ाती हुई घर से बाहर निकल गई। कट टू धारावी। पॉश सांताक्रूज और कुर्ला के बीच फैली हुई झोपड़पट्टी, नाली, कारखानों, गरीबी का विशाल मेला। 

शंकर ऑटो मोड़ कर एक संकरी गली में ले आया। दोनों ओर गंदी बजबजाती नाली, नाली में शौच कर रहे बच्चे, झोपड़पट्टी के सामने कूड़े का ढेर। सुनेत्रा का देखा है यह सब काफी पहले से। पांच साल से यही आती है रोज़ समाज सेवा करने।

बस उसने दुपट्टे से अपना सिर और नाक ढक लिया। आदत हो जाएगी, कुछ दिनों में। शंकर ने एक पुरानी सी दिख रही चाल के सामने ऑटो रोका। दोमंजिला चाल थी। चाल के बाहर भीड़। शंकर ने सुनेत्रा का बैग पैक अपने हाथ में लेते हुए कहा, ‘तुम मेरा खोली में जा कर आराम कर लो। एक घंटे में बाबा पहुंच रहे हैं। शाम को इधरीच चाली के सामने शादी बनाएंगे हम दोनों।’

सुनेत्रा के पीछे-पीछे शंकर आया, पहली मंजिल पर एक कमरे का छोटा सा कमरा। कमरे में ज़रा सी खिड़की। नीचे बिछा बिस्तर, दो कुर्सियां, दीवार पर लगी 14 इंच की टीवी। एक बाजू में छोटा सा फ्रिज। प्लेटफार्म पर गैस का चूल्हा और कुछ बरतन। बस, खोली खत्म। खोली में एक जगह थी, किचन के बाजू से लोहे की गोलाकार सीढ़ी से ऊपर अटारी जैसा कुछ। उसमें कुछ पुराने ट्रंक रखे थे और जमीन पर गद्दा। शंकर का अड्डा। कमरे में शंकर के बाबा और भाई सोएंगे और अटारी में शंकर और वो। ऐसा ही होता है मुंबई में। सब एडजस्ट हो जाता है।

शंकर कमरे में उसका सामान रख कर और कह कर कि वो चार बजे तक तैयार हो जाए, बाहर निकल गया। 

सुनेत्रा अपना बैग ले कर लोहे की सीढ़ियां चढ़ कर अटारी में आ गई। अजीब सी गंध थी कमरे में। इधर उधर फैले तकिए। सबको समेट कर उसने गद्दे पर सही से रखा। कमरे में अंधेरा था। उसने टटोल कर लाइट जला ली। हल्की सी रोशनी फैल गई। सुनेत्रा आंखें बंद कर लेट गई। आज से उसकी ज़िन्दगी बदलने वाली है। कई दिनों से उसने अपने आपको इसके लिए तैयार किया है। कुछ दिन यहां शंकर के साथ रहेगी, फिर सोचेगी कहां जाना है। दोनों मिल कर काम करेंगे, तो कुछ न कुछ तो कर ही लेंगे।

सांवला, लंबे कद और घुंघराले बालों वाले शंकर में कोई तो बात थी, जो वह खिंचती चली गई थी उसकी तरफ। पांच साल पहले वह सोशियोलॉजी के एक प्रोजेक्ट के सिलसिले में धारावी आई थी। उसका मकसद था झोपड़पट्टी में रहने वाली लड़कियों को बिना कंडोम सेक्स से जुड़े खतरों के बारे में बताना। 

पहला दिन था, कुर्ला स्टेशन से ऑटो ले कर वह धारावी आई थी। शंकर ऑटो चला रहा था। धारावी पहुंचने के बाद वह अलियों-गलियों के संकुल को देख दिमाग चकरा गया। शंकर उसे सही जगह तक ले कर गया, एक टीचर के घर, जहां धारावी की कई लड़कियां मुफ्त ट्यूशन पढ़ने जाती थीं। उनमें से कुछ ऐसी भी थीं, जो रात को गली में खड़ी हो कर धंधा करतीं। 

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सुनेत्रा अक्सर यहां आने लगी, शंकर कहता, जब आना हो, मुझे बता देना, मैं स्टेशन से इधर ले कर आएगा। वरना धारावी में तुम गुम हो जाओगी। अच्छा लगने लगा था शंकर। उसके शरीर से आती पसीने की अजीब सी गंध उसे मदहोश कर देती। वह मैडम कहता था उसे। सुनेत्रा ही थी जिसने शंकर के पीछे पड़ कर एक तरह से उससे कहलवाया था, मुझे प्यार करो। शंकर को वक्त लगा। पांच साल।

दिमाग में बहुत कुछ चल रहा था। झटके से उठ कर बैठ गई वह।

अपने बैग से शाम को पहनने के कपड़े निकालने लगी। हरे रंग का कुर्ता और पजामी। साड़ी थी तो सही उसके पास, पर जल्दी में रखना भूल गई। कुरते पर हाथ फेरते हुए सलवटें दूर कर ही रही थी कि अटारी के कोने पर रखे जंग लगे नीले रंग के ट्रंक से झांकता जगमग करता लाल नेट का कपड़े का सिरा पकड़ में आ गया। सरक कर वह ट्रंक के पास पहुंची। उसके ऊपर अल्लम-गल्लम सामान रखा हुआ था। उठा कर नीचे रखा और ट्रंक खोलने लगी। बहुत दिनों से बंद था शायद। चर्रमर्र करते हुए ट्रंक का ढक्कन खुला। लाल कपड़े को सुनेत्रा खींचने लगी।  

साड़ी… नेट पर गोटा और कांच का काम। मुलायम सा कपड़ा। बीच-बीच में कहीं-कहीं से चिरा हुआ। सुनेत्रा के हाथ में साड़ी आ गई। साड़ी हाथों में ले कर वह धीरे से अटारी से नीचे उतरी। कुरता ऊपर कर सलवार के ऊपर साड़ी लपेटने लगी। सिर पर आंचल रख कर कोने में रखे आईने के सामने खड़ी हो गई। 

रोशनी कम थी, लेकिन दिख रहा था साफ-साफ, आईने में जो शक्ल दिख रही थी, उसकी नहीं थी। उसी साड़ी को सिर पर घूंघट किए छोटे कद की गोल चेहरे वाली लड़की थी। नाक में नथुनी, माथे पर बड़ी सी लाल बिंदी, मांग में ढेर सारा नारंगी सिंदूर। हंस रही थी उसकी तरफ देख कर। 

सुनेत्रा आईने के सामने से हट गई। दहशत से सांसें रुकने लगी। झटके में साड़ी खोल दूर फेंक दिया। हांफती हुई नीचे बैठ गई। दो मिनट बाद अपने आपको संभालती हुई किसी तरह वापस आईने के सामने आई। आंखें खुली थी और आईने में भी वही थी।

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