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"और जब दरिद्रियों की तरह धनवान भी अपनी रुचि के समान काम न कर सकें तो फिर धनी और दरिद्रियों में अन्‍तर ही क्‍या रहा?"

सौदागर की दुकान

चतुर मनुष्‍य को जितने खर्च में अच्‍छी प्रतिष्ठा अथवा धन मिल सकता है मूर्ख को उससे अधिक खर्चने पर भी कुछ नहीं मिलता।  — लॉर्ड चेस्‍टरफील्‍ड

लाला मदनमोहन एक अंग्रेजी सौदागर की दुकान में नए-नए फैशन का अंग्रेजी असबाब देख रहे हैं। लाला ब्रजकिशोर, मुन्शी चुन्‍नीलाल और मास्‍टर शिंभूदयाल उनके साथ हैं।

“मिस्‍टर ब्राइट! यह बड़ी काच की जोड़ी हमको पसंद है। इसकी क़ीमत क्‍या है?” लाला मदनमोहन ने सौदागर से पूछा।

“इस साथ की जोड़ी अभी तीन हजार रूपए में हमने एक हिंदुस्तानी रईस को दी है लेकिन आप हमारे दोस्‍त हैं आपको हम चार सौ रूपए कम कर देंगे।”

"निस्‍सन्‍देह ये काच आपके कमरे के लायक है, इनके लगने से उसकी शोभा दुगुनी हो जाएगी।" शिंभूदयाल बोले।

"आहा! मैं तो इनके चोखटों की कारीगरी देखकर चकित हूँ! ऐसे अच्‍छे फूल पत्ते बनाए हैं कि सच्‍चे बेल बूटों को मात करते हैं। जी चाहता है कि कारीगर के हाथ चूम लूं।" मुन्शी चुन्‍नीलाल ने कहा।

"इनके बिना आपका इस समय कौन-सा काम अटक रहा है?" लाला ब्रजकिशोर कहने लगे "खेल तमाशे की चीज़ों से भोले-भाले आदमियों का जी ललचाता है। वह सौदागर की सब दुकान को अपने घर ले जाना चाहते हैं परन्तु बुद्धिमान अपनी ज़रुरी चीज़ों के सिवाय किसी पर दिल नहीं दौड़ाते" लाला ब्रजकिशोर बोले।

"ज़रुरत भी तो अपनी, अपनी रुचि के समान अलग-अलग होती है।" मुन्शी चुन्‍नीलाल ने कहा।

"और जब दरिद्रियों की तरह धनवान भी अपनी रुचि के समान काम न कर सकें तो फिर धनी और दरिद्रियों में अन्‍तर ही क्‍या रहा?" मास्टर शिंभूदयाल ने पूछा।

"नामुनासिब काम करके कोई नुकसान से नहीं बच सकता।"

"धनी दरिद्री सकल जन हैं जग के आधीन।
चाहत धनी विशेष कछु तासों ते अति दीन।। "

लाला ब्रजकिशोर कहने लगे, "मुनासिब रीति से थोड़े खर्च में सब तरह का सुख मिल सकता है परन्तु इन्तज़ाम और काम के सिलसिले बिना बड़ी से बड़ी दौलत भी ज़रूरी खर्चों को पूरी नहीं हो सकती। जब थोथी बातों में बहुत-सा रुपया खर्च हो जाता है तो ज़रूरी काम के लिए पीछे से ज़रूर तकलीफ उठानी पड़ती है।"

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"चित्त की प्रसन्नता के लिए मनुष्य सब काम करते हैं फिर जिन के देखने से चित्त प्रसन्न हो उनका खरीदना थोथी बातों में कैसे समझा जाए?" मुन्शी चुन्नीलाल ने कहा।

"चित्त प्रसन्‍न रखने की यही रीति नहीं है। चित्‍त तो उचित व्‍यवहार से प्रसन्‍न रहता है।" लाला ब्रजकिशोर ने जवाब दिया।

"परन्‍तु निरी फिलासफी की बातों से भी तो दुनियादारी का काम नहीं चल सकता" लाला मदनमोहन ने दुनियादार बन कर कहा।

"बलायत की सब उन्‍नति का मूल लार्ड बेकन की यह नीति है कि 'केवल विचार ही विचार में मकड़ी के जाले न बनाओ, आप परीक्षा करके हरेक पदार्थ का स्‍वभाव जानो' मिस्‍टर ब्राइट ने कहा।

"क्यों साहब! ये काच कहां के बने हुए हैं?" मुन्शी चुन्‍नीलाल ने सौदागर से पूछा।

"फ्रांस के सिवाय ऐसी सुडौल चीज़ कहीं नहीं बन सकती। जब से ये काच यहां आए हैं हर वक़्त देखनेवालों की भीड़ लगी रहती है और कई कारीगर तो इनका नक्‍शा भी खींच ले गए हैं।"

"अच्‍छा जी! इनकी कीमत हमारे हिसाब में लिखो और ये हमारे यहां भेज दो।"

"मैंने एक हिन्दुस्तानी सौदागर की दुकान में इसी मेल के काच देखे हैं। उनके चौखटों में निस्‍सन्‍देह ऐसी कारीगरी नहीं है परन्तु कीमत में यह इनसे बहुत ही सस्‍ते हैं।" लाला ब्रजकिशोर बोले।

"मैं तो अच्‍छी चीज़ का ग्राहक हूँ। चीज़ पसंद आए पीछे मुझको कीमत की कुछ परवाह नहीं रहती।"

"अंग्रेजों की भी यही चाल है" मास्‍टर शिंभूदयाल ने कहा।

"परन्तु सब बातों में अंग्रेजों की नकल करनी क्‍या ज़रूरी है?" लाला ब्रजकिशोर ने जवाब दिया।

"देखिए! जब से लाला साहब यह अमीरी चाल रखने लगे हैं लोगों में इनकी इज्‍ज़त कितनी बढ़ती जाती है!" मास्‍टर शिंभूदयाल ने कहा।

"सर सामान से सच्‍ची इज्‍ज़त नहीं मिल सक्‍ती। सच्‍ची इज्‍ज़त तो सच्‍ची लियाकत से मिलती है" लाला ब्रजकिशोर कहने लगे" और जब कोई मनुष्‍य बुद्धि के विपरीत इस रीति से इज्‍ज़त चाहता है तो उसका परिणाम बड़ा ही भयंकर होता है।"

"साहब! इतनी बात तो मैं हिम्‍मत से कहता हूँ कि जो इस साथ की जोड़ी शहर में दूसरी जगह निकल आवेगी तो में ये काच मुफ्त नज़र करूँगा" मिस्‍टर ब्राइट ने जोर देकर कहा।

"कदाचित इस साथ की जोड़ी दिल्‍ली भर में न होगी परन्तु कीमत की कम्‍ती बढ़ती भी तो चीज़ की हैसियत के बमूजिब होनी चाहिए" लाला ब्रजकिशोर ने जवाब दिया।

"जिस तरह मोतियों के हिसाब में किसी दाने की तोल ज़रा ज़्यादा होने से चौ बहुत ज़्यादा बढ़ जाती है इसी तरह इन शीशों की कीमत का भी हाल है। मुझको लाला साहब से ज़्यादा नफ़ा लेना मंज़ूर न था इस वास्ते मैंने पहले ही असली कीमत में चार सौ रुपए कम कर दिए, इसपर भी आपको कुछ संदेह हो तो आप तीसरे पहर मास्‍टर साहब को यहां भेज दें। मैं बीजक दिखला कर इन से कीमत ठहरा लूंगा।"

"अच्‍छा! मास्‍टर शिंभूदयाल मदरसे से लौटती बार आपके पास आएंगे पर ये काच हमसे पूछे बिना आप और किसी को न दें" लाला मदनमोहन ने कहा।

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इस बात से सब अपने-अपने जी में राजी हुए, ब्रजकिशोर ने इतना अवकाश बहुत समझा, मदनमोहन के मन में हाथ से चीज़ निकल जाने का खटका न रहा, चुन्‍नीलाल और शिंभूदयाल का अपने कमीशन सही करने का समय हाथ आए और मिस्‍टर ब्राइट को लाला मदनमोहन की असली हालत जानने के लिए फ़ुर्सत मिली।

"बहुत अच्‍छा" मिस्‍टर ब्राइट ने जवाब दिया "लेकिन आपको फ़ुर्सत हो तो आप एक बार यहां फिर भी तशरीफ लाएं। हाल में नई-नई तरह की बहुत-सी चीज़ें विलायत से ऐसी उम्‍दा आई हैं जिनको देखकर आप बहुत खुश होंगे परन्तु अभी वह खोली नहीं गई हैं और इस समय मुझको रुपये की कुछ ज़रूरत है। इन चीज़ों की कीमत के बिल का रुपया देना है। आप मेहरबानी करके अपने हिसाब में से थोड़ा रुपया मुझको इस समय भेज दें तो बड़ी इनायत हो।"

इस बचन में मिस्‍टर ब्राइट अपने असबाब की ख़रीददारी के लिए लाला मदनमोहन को ललचाता है परन्तु अपने रुपये के वास्ते मीठा तकाज़ा भी करता है। चुन्‍नीलाल और शिंभूदयाल के कारण उसको मदनमोहन के लेन-देन में बहुत कम फायदा हुआ परन्तु उसके पचास हजार रुपये इस समय मदनमोहन की तरफ़ बाकी हैं और शहर में मदनमोहन की बाबत तरह-तरह की चर्चा फैल रही है, बहुत लोग मदनमोहन को फ़िजूल खर्च, दिवालिया बताते हैं और हक़ीक़त में मदनमोहन का खर्च दिन पर दिन बढ़ता जाता है। इससे मिस्टर ब्राइट को अपनी रकम का खटका है इसीलिए उसने इन काचों का सौदा इस समय अटकाया है और तीसरे पहर मास्‍टर शिंभूदयाल को अपने पास बुलाया है।

"रुपया! ऐसी जल्‍दी!" लाला ब्रजकिशोर ने मिस्‍टर ब्राइट को वहम में डालने के लिए आश्‍चर्य से इतनी बात कहकर मन में कहा "हाय! इन कारीगरी की निरर्थक चीज़ों के बदले हिन्दुस्तानी अपनी दौलत वृथा खोए देते हैं।"

"सच है पहले आप अपना हिसाब तैयार कराएं, उसको देखकर अंदाज़ से रूपए भेजे जाएंगे" मुन्शी चुन्‍नीलाल ने बात बनाकर कहा।

"और बहुत जल्दी हो तो बिल करके काम चला लीजिए, जब तक कागज के घोड़े दौड़ते हैं रूपए की क्‍या कमी है?" ब्रजकिशोर बीच में बोल उठे।

"अच्‍छा! मैं हिसाब अभी उतरवाकर भेजता हूँ मुझको इस समय रूपए की बहुत ज़रूरत है" मिस्‍टर ब्राइट ने कहा।

"आपने साढ़े नौ बजे मिस्‍टर रसल को मुलाकात के लिए बुलाया है। इस वास्‍ते अब वहां चलना चाहिए" मास्‍टर शिंभूदयाल ने याद दिलाया।

"अच्‍छा मिस्‍टर ब्राइट! इन काचों को याद रखना और नया असबाब खुले जब हम को ज़रूर बुला लेना" यह कह कर लाला मदनमोहन ने मिस्टर ब्राइट से हाथ मिलाया और अपने साथियों समेत जोड़ी की एक निहायत उम्‍दा विलायती फिटन में सवार होकर रवाने हुए।

जब बग्‍गी कंपनी बाग में पहुँची तो सवेरे का सुहावना समय देखकर सब का जी हरा हो गया। उस समय की शीतल, मंद, सुगंधित हवा बहुत प्‍यारी लगती थी। वृक्षों पर हर तरह के पक्षी मीठे-मीठे सुरों से चहचहा रहे थे! नहर के पानी की धीरी-धीरी आवाज़ कान को बहुत अच्‍छी मालूम होती थी! पन्‍ने-सी हरी घास की भूमि पर मोती-सी ओस की बूंदे बिखर रहीं थी! और तरह-तरह की फुलवाड़ी हरी मखमल में रंग-रंग के बूटों की तरह बड़ी बहार दिखा रही थी। इस स्‍वाभाविक शोभा को देखकर लाला ब्रजकिशोर ने मदनमोहन से थोड़ी देर वहां ठहरने के वास्‍ते कहा।

इस समय मुन्शी चुन्‍नीलाल ने जेब से निकालकर घड़ी में चाबी दी और घड़ी देखकर घबराहट से कहा "ओ! हो! नौ पर बीस मिनिट चले गए तो अब मकान को जल्‍दी चलना चाहिए।"

निदान लाला मदनमोहन की बग्‍गी म‍कान पर पहुँची और ब्रजकिशोर उनसे रुखसत होकर अपने घर गए।

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