एपिसोड 1

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शहरों में महिला-पुरुष सब बराबर होते हैं, जभी ऐसा हुआ होगा, आधी जगी-आधी बेहोश लड़की ने सोचा। नमस्ते के जवाब में उसने उन सबों को ऐसे घूर लिया जैसे दूसरे के पेड़ से फल तोड़ते हुए बचपन में हमें घूरा जाता था। फर्क बस इतना था कि हम भाग जाते थे, यहां वे सब भागी नहीं, वहीं खड़ी रहीं। 

मैं यहां नहीं हूं

'कौन हो तुम?'

-'कौन?'

-'अरे तुमसे पूछा जा रहा है, कौन हो तुम? कहां से आई हो?' वह नींद में, बल्कि कुछ बेहोशी में थी, जब थोड़ा बहुत इन शब्दों में कुछ पहचान पाई थी। पहचान तो पाई पर इतना नहीं कि जवाब भी दे सके, कुछ नाम और पता पूछने जैसी आवाजें। 'अरे क्या नाम है तुम्हारा, कुछ बताओगी?' मुंह पर कुछ पानी गिरा शायद। ओह पानी कैसे गिरा, किसने गिराया, कहना चाहती है, कह नहीं पाती। 'चाय पियोगी...' वहीं कोई एक दूसरी आवाज। 'अम्मा....', मुंह से निकला।

'अरे अम्मा नहीं हम लोग हैं, उठो,' एक आवाज। 'गठरी की तरह पड़ी है कल से', एक दूसरी आवाज। अरे तुम्हीं हम सब की अम्मा हो गई हो कब से। यह आवाज जोर के ठहाके के साथ गूंजी। आँखें खोलने की कोशिश कर रही थी, पर खुल नहीं पा रही थीं। अधखुली आंखों से पहली बार कुछ महिला रंगरूटों को अपने इतने करीब देखा। अरे ये यहाँ क्या कर रही हैं, और मैं..? मैं यहाँ पहुंची कैसे…? विश्वास नहीं हो रहा था। पूरा शरीर जैसे दर्द में जकड़ा हुआ था। बदन में यहाँ वहाँ केवल गांठों की तरह दर्द था। न कुछ याद ही आता था और न ही समझ में आता था।

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'अरे भाई, तुम तो चमत्कार कर दी।' इतनी जोर की आवाज से मैं, यानी करीब डेढ़ दिन से पड़ी हुई वह गठरी घबरा गई और थोड़ा समय लगा समझने में कि क्या कहा गया। हड़बड़ाकर उठ-बैठने की कोशिश में कहीं टेक लिया और पैरों को घुटनों से मोड़कर  कुछ सिकुड़ गई। शरीर ने पूरी तरह बैठ पाने से मना कर दिया। एक महिला वर्दीधारी ने छोटे से कुल्हड़ की चाय मेरी ओर बढ़ाते हुए सदयता से कहा, 'ले लो।' कोई आवाज सुनाई पड़ी, 'अरे जूठी है।' उसकी सदय आंखों के सामने वो आवाज मुझे सुनाई नहीं पड़ी। मैंने एक घूंट भरा और गले मे कांटे जैसी चुभन के एहसास ने पहचाना कि चाय जरूरी थी। दूसरी घूंट के साथ वह खत्म हो गई, पर अब मैं आंखें कुछ और खोल पाई। तभी एक कोई दूसरी वर्दीधारी महिला जो बाकियों के बीच कुछ अधिकारीनुमा मालूम होती थी अहाते में आ खड़ी हुई, और नमस्ते-गुडमार्निंग की जैसे भीड़ लग गई। यूँ वह महिला थी पर बाकी सबों ने उसे सर कहा। शहरों में महिला-पुरुष सब बराबर होते हैं, जभी ऐसा हुआ होगा, आधी जगी-आधी बेहोश लड़की ने सोचा। नमस्ते के जवाब में उसने उन सबों को ऐसे घूर लिया जैसे दूसरे के पेड़ से फल तोड़ते हुए बचपन में हमें घूरा जाता था। फर्क बस इतना था कि हम भाग जाते थे, यहां वे सब भागी नहीं, वहीं खड़ी रहीं। बस उनकी नजरें यहाँ- वहाँ भागने लगीं। किसी की नीचे जमीन पर तो किसी की दूसरे की वर्दी पर, किसी की बगल वाली दीवार पर। कुल मिलाकर सबमें जैसे चोरी पकड़ी जाने जैसा भाव था। 'क्या हुआ इसका कुछ पता चला?' उसकी रोबीली आवाज कौंधी और जैसे कि पलों का सन्नाटा टूटा। 'नहीं सर। कोशिश कर रहे हैं।'

-'कोशिश क्या कर रहे हो यार तुम लोग सब। साले पुलिस वाले हो कि भैंस चराते हो? एक तो चौधरी जी जब देखो किसी न किसी को ले आए। फिर उसका पता ढूंढो, नहीं तो वे अपने पते पर ले चलें, और जिसके बाद फिर उसका पता न चले। बहुत घटिया आदमी है सुसरा।' यह आखिरी वाक्य उस मैडम रूपी सर के मुंह से कुछ ऐसे निकला कि लग रहा था वह किसी की हरकतों से बहुत नाराज है और अपने शब्दों से उसे रौंद देना चाहती है। उसके मुंह से जब आखिरी वाक्य निकला, उस समय उसके ऊपरी और निचले होंठ अलग-अलग दिशाओं में घूम गए। उसके पास तो वर्दी है, हाथ में बड़ी सुंदर छड़ी है, कमर में पिस्तौल है और पैरों में तो बिल्कुल बूट हैं। बिल्कुल चमचमाते बूट। जिसको जैसे चाहे रौंदे। उसे थोड़े ही कोई फाटक से बाहर घसीटे ले जा सकता है। पर वह केवल बातों से रौंद रही है। वह भी यहां उसके पीछे। तब तक दो अन्य लगभग उसी टाइप की हुलिया में पर कुछ कम उमर  महिलाएं दौड़ती या फिर कुछ तेजकदमी से उस तक आईं और बोलीं, 'मैडम, सिटी स्टेशन से फोन है।'  

-'किसका', मैडम सर ने कहा ।

-'मैडम, डीवाई साहब का।'

-'मैं नहीं हूं।'

-'जी आप कहां नहीं हैं?'

-'बेवकूफ मैं यहां नहीं हूँ।'

-'आप कहाँ हैं सर ?'

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-'मैं कहीं नहीं हूँ, समझी?' वह लगभग चीख पड़ी।

-'जी आप कहीं नहीं हैं।' जिस समय अपनी मैडम सर का हुकुम बजाने वे फोन की ओर दौड़ीं, उनको देखकर कोई भी कह सकता था कि वे उस आवाज की आदती हैं, किंतु डर गई हैं। उधर फोन पर जो आदमी था, जैसे ही उसने सुना कि मैडम नहीं हैं, बिगड़ गया और डांटकर बोला, 'बुलाओ अन्नपूर्णा को, मैं जानता हूं वह यहीं है। सीनियर ऑफिसर से ऐसे ही बिहैव करते हो तुम लोग?'

-'यस सर, बुलाती हूं सर।' एक मिमियाता-सा जवाब आया। वे फिर गईं। अबके मैडम सर से दोबारा डांट खाने की बारी थी।

-'अरे तुमलोग महिला थाने के सिपाही हो या किसी चौधरी के हुकुमगार? जब एक बार मैंने कह दिया कि मैं नहीं हूँ तो नहीं हूँ।' अभी गुस्सा और बढ़ गया था। 'थाने को घसियारी मंडी बनाकर रख दो।' वह बड़बड़ाई।


यह सब जो चल रहा है उसका कुछ अंदाजा लगाना कठिन था। यह कौन चौधरी है कि जिससे वे सब डर भी रही हैं और चिढ़ भी रही हैं। और क्या उसका मुझसे भी कोई मतलब था? था तो कुछ जरूर जो अभी समझ में आना बाकी था । खैर इन बातों का फिलहाल क्या मतलब…..। समझ नहीं आ रहा। पूछने की हिम्मत और ताकत दोनों नहीं है। बहुत मुश्किल से इतना ही याद कर पा रही थी कि किसी ट्रेन पर बैठी हूँ। बैठने से पहले यह भी मालूम नहीं था कि टिकट कहां से लेना है, और कहाँ तक का लेना है सो नहीं लिया। सोचा था कोई उधर आएगा ही नहीं बल्कि यह सोचा था कि काश कोई न आये। जब नींद में बेखबर थी तब किसी ने मुंह की चादर उठाई और टिकट मांगा भी था, लेकिन सुनाई ही नहीं पड़ा। जबकि सुनाई पड़ा था। यह सुनाई पड़ा था कि कोई मुझसे ऐसा कुछ मांग रहा है जो मैं दे ही नहीं सकती, मेरे पास है ही नहीं। अब अगले ही पल वह मुझे खींचकर डब्बे, मतलब उस ट्रेन से बाहर फेंक देने वाला है। बताया था किसी ने, आप टिकट नहीं दोगे तो वे और क्या करेंगे। क्या करेंगे? इंसान को गठरी की तरह फेंककर किसी और को जगह देंगे। उफ्फ अब क्या करूं..? सब जानकर भी कब तक ऐसे गहरी नींद सोया जा सकता है। मुझे अपने चेहरे पर कुछ थपकियों जैसा एहसास हुआ फिर भी नहीं जगी और शायद जब वह जा चुका तब मैंने आंखें खोलकर इस बात की तसल्ली कर ली कि मुझे सोता समझ कर वह चला गया है। अपनी चादर फिर ओढ़ ली। चाची ने चलते हुए देकर कहा था मौके पर काम आएगी। सही कहा था। 

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