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दो आंखें रातभर बोलती रहीं, मैं सो गई, सरहाने एक ख़्वाब जागता रहा- बादाम के गुलाबी फूल- दूर-दूर तक, झील पर सारा आकाश, एक टुकड़ा चांद के साथ...

वान्ट टू बी फ़्रेन्ड्स


‘हम श्रीनगर हवाई अड्डे पर थोड़े ही समय में उतरने वाले हैं। बाहर का तापमान... ‘


विमान परिचारिका की उद्घोषणा माइक्रोफोन पर गूंजते ही मेरे दिल की धड़कनें यकायक बढ़ गई थीं- श्रीनगर... इक़बाल!


इक़बाल से मेरा परिचय पहले-पहल फेसबुक पर हुआ था- एक फ्रेंडशिप रिक्वेस्ट- अंग्रेज़ी में- वान्ट टू बी फ़्रेन्ड्स, एनी स्कोप? यह 5 अगस्त 2011 की बात है... मैंने उसके वॉल पर जाकर उसका प्रोफाइल देखा था- डिवीजनल फारेस्ट ऑफिसर, जम्मू कश्मीर आदि-आदि। उसकी तस्वीर भी देखी थी- कोइ ख़ास बात नहीं, कश्मीरी नाक-नक़्श। चेहरे पर हल्की दाढ़ी... मगर उसकी आंखों ने ज़रूर ध्यान खींचा था। ढेर- सी उदासी थी वहां, सफ़ेद बर्फ की तरह जमी हुई! एक सन्नाटे का मीलों फैला रेगिस्तान- पूरे आसमान के सूनेपन के साथ... हां कर दिया था। उसकी मित्रता स्वीकारने के पीछे कश्मीर का आकर्षण था या उसकी सूनी आंखों का ख़्याल, कहना कठिन है। 


उसके बाद जब भी फेसबुक पर जाती, वह चैट के लिए हाज़िर हो जाता- ‘हाय मैंम! कैसी हैं?’ 

बात हो और उसमें कश्मीर का मसला न हो ऐसा संभव नहीं था। 


उसकी बातें- ‘आप हिन्दुस्तानी लोग, आपकी सरकार, आपका मुल्क...’ मैं उसे ताबड़तोड़ डांट पिलाती- ‘हम हिन्दुस्तानी! फिर आप कहां के हो?’ वह जवाब में हा-हा लिखकर बात टाल जाता। मैं देर तक अंदर ही अंदर भुनभुनाती रहती। कोई मेरे देश के ख़िलाफ बोले यह मैं बर्दाश्त नहीं कर सकती। देश के संदर्भ में मैं बहुत भावुक हूं। राष्ट्रगान हो, सामने तिरंगा लहराये और मैं रो न पड़ूं, ऐसा हो नहीं सकता।

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एक दिन उसने लिखा- ‘पंछी, नदिया, पवन के झोंके, कोई सरहद ना इन्हें रोके...’ 

मैंने टाइप किया- ‘सच है।’ 

झट कम्प्यूटर स्क्रीन पर शब्द चमके- ‘तो फिर हमारे पाकिस्तान आने-जाने पर इतनी पाबंदियां क्यों? नेपाल के लिए तो कोई रोकटोक नहीं। वह हिन्दू स्टेट है इसलिए?’ 

मेरा पारा चढ़ा। की बोर्ड पर शब्द गोली की तरह पंच किया और दाग दिया- ‘तो सरहद खोल दिया जाये ताकि हमारे आतंकवादी भाईलोग ट्रक में भरकर गोला बारूद लाएं और हमें भून कर कबाब बना दें! क्यों? बाजपेयी ने तो रिश्ता सुधारने के नाम पर यह ग़लती लगभग कर ही दी थी, वो तो भला हो अडवाणी का, उन्हें सही वक़्त पर रोक लिया, वर्ना हमारे अटलजी को तो इस महान शांति कार्य के लिए नोवेल पुरस्कार मिल जाता, मगर देश की लुटिया हमेशा के लिए डूब जाती!’ 

जवाब में फिर वही हा-हा। इस बार मुझसे जवाब में स्माइली का कोई अजीब चेहरा भेजकर उसे मुंह भी चिढ़ाया नहीं गया। फेसबुक से लॉग आउट कर देरतक फिर भुनभुनाती रही- सरहद खोल दो! ऐसे ही नाक में दम कर रखा है शैतानों ने। अब न्योता दे कर उन्हें बुलाओ- आओ भाई, हमें गोली मारो... नालें काटकर अपने घर तक दरिया से मगरमच्छ ले आना, और क्या!


दूसरे दिन उसकी वही शिकायतें- वह भी मेरी तारीफ के एवज में कि कश्मीर कितना ख़ूबसूरत है- लम्बा-सा जवाब आया- ‘आपलोगों ने हमेशा कश्मीर को चाहा, कश्मीर के लोगों को नहीं। अगर कश्मीर से आपका मतलब सिर्फ पहाड़, जंगलों से है तो बेशक रख लीजिये, लेकिन यदि लोगों की परवाह है तो उनकी मर्ज़ी भी सुनिये।’ 

मैंने भी लम्बा-चौड़ा भाषण झाड़ दिया- ‘आपलोगों की परवाह नहीं है! इतना प्यार-दुलार... दामाद बना कर रखा है- स्पेशल स्टेटस, सुविधायें... फिर भी! वोट की राजनीति ने आपलोगों को सर चढ़ा रखा है हर जायज़-नाजायज़ बातों को मानकर! आज देखिये उसका परिणाम, पूरा देश भुगत रहा है। और हां, हम पत्थरों को पूजने वाले लोग हैं, देश हमारे लिय मिट्टी- पत्थर नहीं, मां है, भगवान है।’ 

जवाब में वह दार्शनिक बना हुआ था- ‘इसी देश में टैगोर ने विश्वभारती की परिकल्पना दी थी...’ 

मैं उससे भी ज़्यादा फलसफिया मिजाज़ में- ‘विश्व भारती का अर्थ ग्लोबल होना- वसुधैव कुटुंबकम! सबका मान, सबसे प्यार, सबका स्वागत... मगर अपना परिचय, अपनी अस्मिता, अपनी संप्रभुता नहीं खोना। इक़बाल! ख़ैरात में रोटी-कपडा बांटा जाता है, मां नहीं!’ 

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भाषण पिलाकर मैं हल्की महसूस करने लगी और उधर एक लंबा मौन खिंच गया। फिर देर बाद एक छोटा-सा वाक्य- ‘नेट प्राब्लेम...’ चमकते हुए कम्यूटर स्क्रीन पर अचानक सन्नाटा छा गया और मैं एक छोटा-सा अंधेरा अपने भीतर संजो कर वहां से उठ आई- साथ में ढेर सारी उदासी भी, न जाने कैसी, किस बात की!


उस रात उसके वॉल पर गई तो वहां अलग ही नज़ारा था- नारे, गुस्सा, आग़-से धधकते शब्द, हताशा... भाषा और चेहरे भी अलग। जुलूस, सैनिक दमन आदि की तस्वीरें... मुझे लगा दुश्मनों के इलाके में आ गई हूं। भाग आई। सोचा उसका नाम दोस्तों की फेहरिश्त से मिटा दूं। ब्लॉक कर दूं। माउस उठा कर ब्लॉक शब्द पर क्लिक करने गई और तभी उसके प्रोफाईल पिक्चर पर नज़रें ठहर गईं- कितनी उदास थी उसकी आंखें... आंखें भी थी या कोई धधकता हुआ अलाव- आग़ और वीरानी- इस तरह एक साथ... मीलों तक खींची हुई! 


एक गहरे सन्नाटे में डूबी न जाने कबतक बैठी रह गई। एक मन दूर जा रहा था उससे, दूसरा क़रीब आ रहा था। और तभी स्क्रीन पर लाल निशान चमका था- इक़बाल का संदेश! मैं ऑन लाइन थी, ऑफ लाइन होना भूल गई थी- संदेश पर क्लिक किया और उसके शब्द चमक उठे- ‘कर रहा हूं ग़म-ए-ज़िंदगी का हिसाब, आज तुम बेहिसाब याद आए...’ दिल की कई धड़कनें एक साथ खो गईं। प्रोफाइल तस्वीर पर उसकी आंखों का रेगिस्तान उसी तरह दूर तक फैला हुआ था, प्यास का बेहिसाब अफसाना लिए- एक अदद बूंद की ख़्वाहिश में!


मजबूर उंगलियां की बोर्ड पर फिसलीं और फिर बातों का सिलसिला चल पड़ा, न जाने क्या-क्या, न जाने कबतक। घड़ी पर नज़र पड़ी तो चौंक गई। स्क्रीन पर न जाने कितने अजनबी चेहरे एक साथ चमक रहे थे। साथ में फब्तियां- ‘मैंम! वॉट आर यु डुइंग हेयर सो लेट...!’ 


फेसबुक से लॉग आउट किया, मगर रेतीले सन्नाटे से पीछा नहीं छूटा। दो आंखें रातभर बोलती रहीं, मैं सो गई, सरहाने एक ख़्वाब जागता रहा- बादाम के गुलाबी फूल- दूर-दूर तक, झील पर सारा आकाश, एक टुकड़ा चांद के साथ... ये शब्द चित्र इक़बाल ने ही खींचे थे कभी चैट के दौरान! उसी के साथ मैं बह निकली थी, बहुत दूर तक! ऐसा ही होता था अक़्सर- उसे सुनते हुए मैं डूबने लगती थी। बहुत मुश्क़िल होता था कभी-कभी सतह पर बने रहना।


एक बार उसने भी कहा था, आप हमें यकीन दिलाओ कि हिन्दुस्तान हमलोगों से प्यार करता है। कहते हुए उसकी आवाज़ में छिपी शरारत झलकी पड़ रही थी। गुस्सा करते हुए भी मुझे हंसी आ गई थी। उस दिन शायद दूसरी बार हमने फोन पर बात की थी। रोज़ वह प्रार्थना करता, ‘प्लीज़, मे आई काल?’ मैं लिखती ‘नो।’ वह अपनी प्रार्थना दुहराता- ‘प्लीज़।’ मैं की-बोर्ड पर देर तक अपनी उंगली दबाये रखती- ‘नॊऒऒऒऒऒऒऒऒऒऒ।’ 

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