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न जाने कितनी बार हाथ में लिया था उसने आज शाम में पहने जाने वाले कपड़े को। शायद कुछ देर और निहारती अगर मम्मी उससे आकर तैयार हो जाने को नहीं कहती। 

हाल क्या है दिलों का न पूछो सनम... 

“वैष्णवी आज फिर चली गयी, बिना मेरी ओर देखे... 

मैं आज फिर तड़पता रह गया...” 

अलमीरा साफ़ करते हुए पुरानी फ़ाइल, नोटबुक और मैगज़ीन्स का पूरा ज़खीरा हाथ लगा था। कितने ही पुराने कागज़ात थे। कुछ नोटबुक्स और डायरी तो उसके और भाई आनंद के पैदा होने के पहले के थे। उसकी निग़ाह घूम फिरकर ठहरी थी हार्ड कवर वाली एक डायरी पर। इक्कीस सालों का असर इसके हर हिस्से पर बख़ूबी दिख रहा था। यूँ तो मैरून रंग की हार्ड बाइंडिंग अभी भी काफ़ी मज़बूत थी, पन्नों की रंगत उम्र की चुगली ख़ूब कर रहे थे। पिरौंछी लिए हुए ये सफ़हे कभी ज़ाहिराना तौर पर शफ्फाक़ रहे होंगे।

उस साल के मार्च की किसी तारीख़ के नाम दर्ज़ थीं वे दो पंक्तियाँ। उसने गौर से देखा, अब फ़ैल रही नीली स्याही वाली यह लिखावट पापा की ही थी। यह जानते हुए भी कि पापा की डायरी को किसी और ने कभी हाथ लगाने की जुर्रत नहीं की है, उसने न जाने क्यों दो बार ख़ुद को कन्फर्म किया कि यह पापा की ही लिखावट है। 

उसने अभी जो भी पढ़ा था उसे सिर्फ़ देजा-वू मान कर भूल जाना चाह रही थी। तभी वैष्णवी जैसे उसके सामने आ खड़ी हुई। वही वैष्णवी, जिसे वह आंटी कहा करती थी।  

एक दिलकश चेहरा ज़ेहन में उभरता है और साथ ही याद आता है दाग़ देहलवी का वह जानलेवा शेर... 

‘ले चला जान मिरी रूठ के जाना तेरा 

ऐसे आने से तो बेहतर था न आना तेरा’ 

********

हाल क्या है दिलों का न पूछो सनम... 

नवां जन्मदिन था उसका। सुबह से पापा का बेसब्री से इंतज़ार हो रहा था। कस्बे के इकलौते कनफेक्श्नर के यहाँ केक का ऑर्डर दो दिन पहले ही दे दिया गया था, जिसे लाने की ज़िम्मेदारी पापा की थी। पापा ने केक का ऑर्डर देने के बाद वहीं से फ़ोन करके बताया था कि जन्मदिन वाले दिन जब साईट से लौटेंगे तो केक साथ ही लेते आएंगे।

पापा का इंतज़ार सुबह उठने के साथ शुरू हो गया था। इंतज़ार करते हुए छत के मुहाने पर जाकर सड़क को देखना उसका सबसे प्रिय काम था। उसे अक्सर लगता जैसे सड़क उसकी इंतज़ार भरी नज़रों को पहचानती है और पापा तक उसकी बात पहुँचा आती है। दस से बारह बज गए थे, बारह से दो और फिर दो से चार। ठीक चार बजे महाराज जी का कोई आदमी केक घर पहुँचा गया था। उसने किसी को देखा नहीं था। केक के डब्बे पर ज्यों निग़ाह पड़ी, पापा-पापा करते हुए वह अन्दर वाले कमरे की ओर भागी थी। फ्रिज में केक का डब्बा रखने के लिए जगह बना रही मम्मी ने वहीं से आवाज़ देते हुए कहा कि 

‘पापा रात तक आएंगे। तुम्हारा बर्थ डे केक आ गया है।’ 

“फ़ोन आया था पापा का?”

“नहीं! मैंने किया था। वर्मा जी कह रहे थे कि दोपहर में ही निकल चुके हैं।”

“अच्छा...”

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आकृति ख़ुश थी। पापा केक कटने तक आ जाएंगे। 

“आनंद तुमने सबसे बता दिया कि आज मेरा जन्मदिन है।” 

“दीदी, तुम कल से तीन सौ बार सबसे बता चुकी हो। सब आ जाएंगे।”

फिर आनंद ने क्या कहा यह सुनने के लिए आकृति वहां रुकी कहाँ। दूसरे कमरे में जाकर अपने कपड़े खंगालने लगी। मम्मी ने ऊपर ही तो रखा था नए कपड़ों वाला पैकेट।

कोटी वाला नीला फ्रॉक... ज़िद पर लिया था उसने। मम्मी को फ़ीका रंग जंच नहीं रहा था। उसने सीधा कह दिया था कि लेगी तो यही लेगी नहीं तो कुछ नहीं। 

इन मौकों पर अक्सर पापा भी उसी का साथ देते थे और मम्मी को न चाहते हुए भी उसकी सुननी पड़ती थी। 

न जाने कितनी बार हाथ में लिया था उसने आज शाम में पहने जाने वाले कपड़े को। शायद कुछ देर और निहारती अगर मम्मी उससे आकर तैयार हो जाने को नहीं कहती। 

सात बजने वाले थे। लिविंग रूम में सोफ़े के साथ वाले कॉफ़ी टेबल पर केक सज गया था। 

सारे बच्चे आ गए थे और साथ में आस-पास रहने वाला नज़दीकी रिश्तेदार समुदाय भी। 

“केक कब कटेगा आकृति?”

“जल्दी काट न। घर जाकर होमवर्क करना है।” 

केक की रंगत बच्चों की बेसब्री बढ़ा रही थी। 

‘रुको, पापा को आ जाने दो।’ 

‘केक काट लो आकृति, पापा को आने में देर हो सकती है।’ 

मम्मी की आवाज़ सीधी और सधी हुई थी पर आकृति को पता था कि बाहर गाड़ी की उस पहचानी आवाज़ का इंतज़ार वह भी उतना ही कर रहीं थीं, जितनी आकृति। 

बेमन से आकृति ने केक काटा ही था कि बाहर से हॉर्न की आवाज़ आयी। 

“पापा आ गए...”

आकृति के दौड़ते हुए क़दम बाहर पहुँचते ही थोड़े ठिठक गए।

काली शर्ट और पैंट पहनी हुई एक लड़की भी पापा के साथ थी। तक़रीबन पापा जितनी ही लम्बी या उनसे थोड़ी ही छोटी।

“हैप्पी बर्थ डे आकृति।”  

उन्होंने उसके गाल थपथपाते हुए कहा। 

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पापा ने कहा ‘पैर छुओ’।

उसने यंत्रवत आदेश का पालन किया और भाग कर पहुँच गयी पापा के पास। 

“आपको इतनी देर कैसे लगी।”

“रास्ते में हम शिकार करने लगे थे, शेर का...”

पापा ने हँसते हुए कहा। 

“भक्क! आप हमेशा झूठ बोलते हैं। अब मैं बच्ची नहीं रही जो आपकी सब बात मान लूं।”

पापा की बात सुनकर आंटी भी हंस पड़ी थी और तब तक मम्मी भी बाहर आ गयी थी। 

“प्रणाम दीदी!”

उन्होंने आगे बढ़कर मम्मी के पैर छुए थे। 

मम्मी पापा की ओर देख रहीं थी। 

“वैष्णवी!”

“बताया था न फ़ोन पर।”

मम्मी ने ‘ख़ुश रहो’ कहा था और वैष्णवी आंटी को लेकर लिविंग रूम में आ गयीं थीं। 

पीछे थे आकृति और पापा। आनंद बाकी बच्चों के साथ अन्दर समोसे, केक और रसगुल्ले में व्यस्त था। 

मम्मी ने वह ‘ख़ुश रहो’ किस लहजे में कहा था उस पर आकृति ने बाद में कई बार सोचा, मगर कभी किसी निष्कर्ष पर पहुँच नहीं पाई।

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