एपिसोड 1
. .धीरे-धीरे वह रमणियों की तरह पीने लगी थी, फिर पियक्कड़ों की तरह पीने लगी थी, फिर पुराने नशेबाज़ों की तरह सुबह से शाम तक पीने लगी थी और अर्धरात्रि में भी उठकर जाम बनाती थी जिसे काँपते हाथों से, एक हिलते-डुलते प्याले में पी जाती थी..
शराब साक़ी! दर्द भुलाए
कुछ खामोशी से बहती हैं, कुछ शोर मचाते । नदियाँ जो इस मुल्क में अनगिनत हैं, जिनके खूबसूरत नाम हैं । उनके अलावा एक और अनाम, बहुत पुरानी नदी है . . . खून की नदी जो न जाने कब से, इस छोर से उस छोर तक बहती है और पिछले कुछ बरसों में किनारे तोड़ कर बहने लगी है। लेकिन इस कहानी में, इसे इस लेखक की ज़िद कहें या संकल्प, एक भी बूँद खून नहीं बहेगा ।
इस कहानी का लेखक, बतौर लेखक, खून की उस नदी से, ट- टप टपकते खून से, खून की बरसात से, उसकी धार, छींटों और धब्बों से, सूखे हुए खून, खून के थक्कों, खूनआलूदा ज़ख्मों और उन पर जम जाने वाली पपड़ियों, खून के फव्वारों, भल-भल बहते खून, खून में भीगी आस्तीनों और खूनी निशान लिये पट्टियों से, खून से लिखे जाने वाले करारनामों और प्रेमपत्रों और उन कविताओं से जिनमें रक्त का रंग होता है और लहू के बारे में मिसरे - दूसरे शब्दों में खून की हर किस्म से और उसके ज़िक्र से भी बेतरह ऊब चुका है, अब वह उसके नहीं, दूसरी नदियों के बारे में लिखना चाहता है जो उस खूनी नदी के पैरेलल और उसी की तरह उफनती हुई बहती हैं ।
जैसे सल्फ्यूरिक एसिड की नदी और आँसुओं की और शराब की । शराब जिसके दो घूँट हलक से उतारो तो रगों में खून सरपट दौड़ने लगता है, मगर ताज़े ज़ख्मों पर उसका फाहा रखो तो खून बहना बंद हो जाता है । मीना कुमारी के शरीर में, उसके आखिरी बरसों में, भीतर ही भीतर, उसके दिल से लगातार कुछ रिसता, टपकता रहता था . . . टप-टप, तभी तो वह इतना पीने लगी थी - सीधे बोतल से मुँह लगाकर, नीट, गट गट गट ।
शराब के ज़िक्र से ही शुरू करता हूँ । ‘‘सुनिये’’ एक बहुत पुरानी, विशाल हवेली की सीढ़ियों पर एक खंभे की ओट में बहुत धीमी आवाज़ में फुसफुसा कर कहा था ‘साहब बीवी और गुलाम’ फिल्म में छोटी बहू बनी उस अप्रतिम अभिनेत्री ने भूतनाथ को, जिसका रोल गुरुदत्त कर रहे थे । ‘‘मुझे आपसे कुछ काम था, बहुत ज़रूरी । क्या आप मेरे लिये . . . बाज़ार से . . . शराब . . . ?’’
इसके बाद पर्दा काला पड़ गया था, सिर्फ उस स्याह अँधेरे में कहीं दूर से आती एक बेमालूम सी रोशनी में मीना कुमारी को अविश्वास से तकती गुरुदत्त की फटी-फटी आँखें थीं । मीना कुमारी के पति का रोल कर रहा रहमान उससे कहा करता था कि उसका खून गर्म है, उसे सँभाल पाना उसके बस का नहीं - और उसे परे धकेल कर रोज़ रात रमणियों के पास चला जाता था ।
हिंदी की फिल्मों के शायद उस सबसे कारुणिक रोल में, जिसमें उस महान अभिनेत्री की अदाकारी भी उतनी ही अद्भुत थी, वैसी ही अविस्मरणीय - मीना कुमारी ने अपने पति को अपने पास रोक रखने के लिये पीने की प्रेक्टिस करना चाही थी, चुपके से शराब मँगवा कर बहुत मुश्किल से शुरुआती घूँट लिये थे . . .धीरे धीरे वह रमणियों की तरह पीने लगी थी, फिर पियक्कड़ों की तरह पीने लगी थी, फिर पुराने नशेबाजों की तरह सुबह से शाम तक पीने लगी थी और अर्धरात्रि में भी उठकर जाम बनाती थी जिसे काँपते हाथों से, एक हिलते डुलते प्याले में पी जाती थी - फिर वही होना था जो हुआ, मार कर उसी हवेली के तहखाने में दफ़ना दी गयी ।
दिल्ली के अंसारी रोड पर, जहाँ हिंदी की साहित्यिक किताबों, यही कविता, कहानी उपन्यास आदि, के तमाम प्रकाशक हैं, ऐसे ही एक प्रकाशन में काम करने वाली छिआलीस साल की मीनाक्षी माथुर ने न जीवन में कभी शराब पी थी, न कोई शराब की बोतल छुई थी, केवल फिल्मों में लोगों को पीते बहकते देखा था, यहाँ तक कि उसके दिमाग में कहीं अभी तक वे नीति वाक्य पड़े थे कि शराब मनुष्य की दुश्मन है, शर्तिया नुस्खा जिगर और आत्मा दोनों को चौपट करने का - फिर भी उसे उस दिन मीना कुमारी का एक विचलित करने वाला ख्याल आया, उसकी निजी जिंदगी के दुख याद आये जिनसे निजात पाने के लिये उसने शराब में शरण पायी थी, एल्कॅाहलिक होकर मरी थी . . .
और इनके संग कोई और भी याद आया जो उसे मीना कहा करता था, इसी नाम से संबोधित करके पत्र और कवितायें, अक्सर पत्रों में कवितायें लिखता था, दिल्ली के बार्डर पर स्थित सीमापुरी नाम की बस्ती का एक आवारा, उस पूरे इलाके में ‘कवि जी’ के रूप में बदनाम । शादी से पहले मीनाक्षी का घर दिल्ली के शाहदरा इलाके में था । वे दोनों वहीं श्यामलाल कालेज में पढ़ते थे ।
दोनों पढ़ने में फिसड्डी थे इसलिये उन्हें दाखिला मिल सका था, ऐसे विद्यार्थियों के आख़िरी ठिकाने हिंदी साहित्य में, मगर उन दिनों उनके पास साहित्य के लिये भी वक्त नहीं था, वे अक्सर कॉलेज से भागकर हिस्ट्री पढ़ने चले जाते थेे । वे कॉलेज के सामने के बस स्टाप से बस लेते थे और उनींदी दोपहरियों में दिल्ली की एतिहासिक इमारतों में घूमते रहते थे । वह उसकी आँखों का दीवाना था, आँसुओं का रसिया - और उसकी आँखों पर लिखी शुरुआती कविताओं में से एक, पहली बार, उसने लालकिले के दीवाने आम में सुनाई थी, शायद उसी जगह खड़े होकर जहाँ बहादुर शाह ज़फ़र के लड़के जवाँ बख्त की शादी के मौके पर मिर्ज़ा ग़ालिब ने सेहरा पढ़ा होगा, हाथों में एक काँपता हुआ कागज़ थामे ।
उस कविता में उसने उसकी आँखों की गहरी, नीली झील में नाव चलाने की, एक नाविक बनने की इच्छा जाहिर की थी और वह उसे सुनकर लगातार हँसती रही थी । मैं तुम्हें प्रेम करता हूँ, उसने औरंगजेब की निजी मस्ज़िद के बाहर सीढ़ियों पर खड़े होकर कहा था, बहुत धीमी आवाज़ में, कि भीतर नमाज पढ़ता बादशाह डिस्टर्ब न हो जाये ।
पहली बार उसने उसका हाथ जहाँआरा बेगम की कब्र पर थामा था, हजरत निजामुद्दीन और उनके प्रिय शागिर्द अमीर खुसरो की पवित्र मज़ारों के बीच, जहाँ शाहजहाँ की उस धर्मपरायण, आजीवन एकाकी बेटी के लिये उसकी आँखें भर आयी थीं । और पहली बार कमबख़्त ने चूमा कहाँ, सलीमगढ़ किले में आज़ाद हिंद फौज के सिपाहियों के लिये बनाई अस्थायी जेल की एक गर्म, भभकती हुई कोठरी में जहाँ भूल से पकड़े जाते तो कहा जाता, स्वतंत्रता सेनानियों का अपमान हुआ है ।
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