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इतनी नाटकीयता जीवन में होती है कि आप कुछ रहें और चंद सेकेण्ड गुज़र जाने के बाद-दूसरी सदी शुरू होते ही कुछ और बन जाएं। एक वक़्त गुज़र जाने पर कैलेंडर बदल सकता है, तारीख़ें इधर-उधर हो सकती हैं पर इंसान का अंदर और बाहर दोनों इतनी जल्दी बदल सकता है क्या!

दयनीय 

मेरी उम्र पचपन साल है। कभी-कभी जब आँखें बन्द करता हूँ तब ऐसा लगता है मानों जहाज में कोई सुराख है, ये बात पक्की है। मेरे ताबड़तोड़ स्टियरिंग दायें-बांयें घुमाने के बावजूद जहाज डूबने की ज़िद पकड़ रहा है। मैं सहायक को अपने हाथ की चीज़ पकड़ा, दूसरे यात्रियों से कहने जाता हूँ कि घबराने की कोई बात नहीं, मामूली मुश्किल है। स्थिति अभी सामान्य हुई जाती है...ऐसा। उनमें से कोई अनुभवी आँखों का मालिक मेरी आँखों में झाँककर बोलता है, 'तुम्हारी आवाज़ डूब रही है। और हम भी!' और मैं उचककर आँखें खोल देता हूँ। 

मेरे तीन बच्चे हैं। बड़ा लड़का बहुत सुखी है। लड़की ख़ुशमिजाज है। अक्सर अपने पति के साथ हमसे मिलने आती है। सबसे छोटे लड़के की बात करना चाहता हूँ। उसकी कुछ चीज़ें मुझे बिल्कुल भी पसन्द नहीं। मसलन बिना बात की गहराई बूझे उसमें कूद पड़ना या अपनी तरह के कमअक्ल दोस्तों की सोहबत में चौथाई-चौथाई दिन गुज़ार देना या पहनावा-पोशाक, ख़ासकर चलने का तरीका या बहुत मात्रा में, पर गलत-सलत अंग्रेजी का बोलना या किताबों में छुपाकर दूसरी किताबें पढ़ना या बालों का नक्शा वगैरह। 

बावजूद इन सबके मैं अपनी भड़ास नहीं निकाल पाता, क्योंकि वह पढ़ने में बेहद होशियार है, वह भोला भी है और इज्जत भी देता है मुझे और बात को बर्दाश्त करने की गजब क्षमता है उसमें, और वह अक्सर इस कोशिश में रहता है कि कोई उसकी वजह से दुःख न पाए। 

यह सब तो ठीक है पर दुनियादारी से उसका वास्ता नहीं और ऐसी ख़ुशख़याली में जीता है कि तेज चिढ़ होने लगती है। अभी की ही बात है 1999 ख़त्म होने को था और नयी सहस्त्राब्दी के आने की ख़बर सबसे अहम बनकर छायी थी हर तरफ़। तब की, उसकी योजना थी कि जितने भी नाते वाले हैं, मित्र हैं-जो भी हैं पहचान के, सबको पत्र लिखा जाए, शुभकामनाएं दी जाएं। 

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यहाँ तक ठीक था। इसके आगे कि सबसे आग्रह किया जाए कि 21वीं सदी में हम अपने रिश्तों का पुनर्मूल्यांकन करें और अब तक के उतार-चढ़ाव को भूलकर एक नया अध्याय शुरू करें। नए रूप में, नए मुखौटे में। हालाँकि उसका मतलब था कि पुराने मुखौटे उतारकर। पर ऐसा भी कभी हुआ है क्या?

इतनी नाटकीयता जीवन में होती है कि आप कुछ रहें और चंद सेकेण्ड गुज़र जाने के बाद-दूसरी सदी शुरू होते ही कुछ और बन जाएं। एक वक़्त गुज़र जाने पर कैलेंण्डर बदल सकता है, तारीख़ें इधर-उधर हो सकती हैं पर इंसान का अंदर और बाहर दोनों इतनी जल्दी बदल सकता है क्या! अच्छा हुआ कि इस ख़याल को अंजाम देने के पहले यह विचार मुझ तक लाया गया। 

हाँ, इसे भी मैं खूबियों में गिनता हूँ कि अभी तक(कल का पता नहीं) और कोई काम करने के पहले अपनी माँ को अक्सर सूचना देता है और उसकी उथली माँ से छलककर बात, घटने से पहले मुझ तक पहुँच ही जाती हैं। तभी तो मैं उसे रोक पाया। वरना रिश्तेदारों में मेरी भद्द पिट जाती कि अपनी देखरेख में उसे कितने बेवकूफ लड़के में परिणत कर दिया है मैंने।

बहरहाल, इधर उसने बहुत सुरीली क़िस्म की दाढ़ी बढ़ा ली है। मुझे अक्सर लगता कि सुकुमार हथेलियों वाली उसकी माँ उसे दुलराने जाएगी तो अपनी हथेलियों को आहत कर बैठेगी। सम्भव है वह उसमें मेरा साम्य तलाश बैठे...उन दाढ़ियों में, जिसकी शिकायत वह अक्सर मेरी जवानी वाले दिनों में मुझसे किया करती थी। 

यह ख़याल मुझमें हल्की-हल्की थरथराहट भर देता। थरथराहट उत्तेजना से पैदा हुई या थरथराहट से पैदा हुई उत्तेजना। मैं शिद्दत से चाहने लगता कि यह लड़का अपने भाई की तरह या ख़ुद की तरह-जैसा वह पहले था-क्यों नहीं बन जाता! अपनी माँ की हथेलियों सी शक्ल वाले गाल। बेटा ढीठ था और शायद यह भाँप चुका था इसीलिए हॉस्टल में होने पर नहीं, बल्कि वहाँ से लौटने के बाद ही उसे दाढ़ी के नाम पर चेहरे के साथ प्रयोग करने की सनक सवार होती। 

मैं अपनी खुन्नस उसकी माँ पर निकालता। वह बेटे के पक्ष में जुबान का इस्तेमाल करने लगती। यह बात मुझे आक्रामक बना देती और मैं अनर्गल के स्तर पर उतर आता। वह तनी रहती। सवाल बेटे का था।

एकान्त में बेटे के सामने झुककर वह मेरा पक्ष रखने लगती। सवाल पति का था। लड़का माँ का राजा बेटा है। वह शाम तक गालों को चिकना करवाकर माँ की हथेली से खेलने लगता और उसकी माँ गुर्राकर मुझे देखती। उस वक़्त मेरे भातर उस ख़ुशी का नामोनिशान तक नहीं रहता- जो मैं चाहता था वही हुआ-वाली स्थिति में स्वाभाविक थी। उलटे मुझे पत्नी से भयानक जलन होती। उसने मेरा बच्चा हथिया लिया था उलटे-सीधे हथकंडों से। 

इसके समानान्तर एक दृश्य एकाएक कौंध जाता, जिसमें पत्नी बड़ी बहू के आने पर आँखों से लोर टपकाती इस बात से व्यथित हो रही होती कि बहू ने उसका अपना बेटा छीन लिया। पत्नी की व्यथा उस स्थिति की कल्पना से और बेबाध छलकने लगती जब छोटे बेटे का घर बस चुकने पर वह भी उनका नहीं रह जाएगा। 

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जब ऐसा दृश्य घट रहा होता तब मुझे सास-बहू के इस खानदानी ड्रामे पर बहुत कोफ़्त होती, पर अब उस घटना की स्मृति बहुत भली जग रही थी। इस वक़्त मैं तहेदिल से अपनी बड़ी बहू और भावी बहू का शुक्रगुजार होता। पत्नी ने मुझसे मेरे बच्चे छीने और बहुओं ने उससे उसके बच्चे छीने। हिसाब बराबर हुआ।

कुछ लोगों का कहना था कि बेटा मुझ पर गया है हू-ब-हू और इन्हीं में से कुछ लोग एक जमाने में, जब मैंने नया-नया फुलपैंट पहनना शुरू किया था, कहते थे कि मैं डिट्टो अपने पिता पर गया था। इसका मतलब था मेरे हिसाब से कि मेरे पिता और मेरे इस बेटे में भी साम्यता होनी चाहिए। पर दोनों का चरित्र तो एकदम उलटा दिखता है! मेरे पिता क्रोधी, कपटी, कड़वे और पुत्र शान्त, सरल, सीधा। यह बात और है कि विपरीत स्वभाव का होने के बाद भी इन दोनों में खूब छनती है और मैं इन दोनों की मौजूदगी में अपने आप को कटा-कटा-सा पाता हूँ।

मैंं बात से भटक गया। इस बारे में कहना चाह रहा था कि इस मासूम और छल-कपट से दीन-हीन लड़के से मुझे बहुत भय लगता है। इससे भय लगता है। या यह कहें कि भय होता है इसके बारे में। वह घर से बाहर होता और गहरे शाम के वक़्त फ़ोन की घंटी कड़कड़ाने लगती तब मैं लपककर रिसीवर उठाने चलता। 

तभी अचानक मेरी उंगलियां फड़कने लगतीं और मुझे लगता फ़ोन उठाने पर कोई अनजानी आवाज़ (अक्सर यह अनजानी आवाज़ पुलिस की होती) मुझे यह सूचना न दे दे कि आपका छोटा बेटा किसी आतंकवादी संगठन के लिए काम करता या कि ड्रग्स की स्मगलिंग करता पकड़ा गया या कि उसके दफ़्तर में हुए बड़े गबन में उसका हाथ है...या कि कुछ भी...। 

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