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हम लोगों ने सोचा कि हर बार बेचारे येड़े को पड़ती है, इस बार गांधी के शाणपणे की थोड़ी वाट लगनी चाहिए। डिंपा की माँ से खाएगा, तो शाणपणा निकल जाएगा। तो तय हुआ कि हाथ तो गांधी ही फिराएगा।

लुक्खागिरी

हमने अच्छा किया या बुरा
इस सोच से बहुत आगे
एक मैदान है
मैं तुम्हें वहाँ मिलूँगी।
जब आत्मा अपने से भी ऊँची
उस घास के बीच लेटती है
तो दुनिया इतनी ठसाठस भरी होती है
कि उसके बारे में कुछ भी बोलना
अच्छा नहीं लगता।
विचार, भाषा, यहाँ तक कि यह कहना
हम एक दूसरे के लिए है
जहाँ कोई मायने नहीं रखता।
- जलालुद्दीन रूमी

डिंपा की माँ के बारे में तो आप जानते ही होंगे। जब मैंने सावंत आंटी की कहानी सुनाई थी, तब आपको उसके बारे में भी बताया था। लगता है, भूल गए! 

यार, यह लाइन मैं पेंसिल से लिख रहा हूँ, हाथ में लकड़ी है, टचवुड करके बोलूँ, तो यह बोलूँ कि झूठ नहीं बोलूँगा— अपन ने लम्बे टैम तक अस्सल लुक्खागिरी की है। एकदम हंड्रेड परसेंट प्योर लुक्खागिरी। इसीलिए अपने को कहानी में भौत इंटरेस्ट है। ऐसे तो सड़क पर हज़ारों लोग चलते हैं, लेकिन अगर उनमें से किसी के लाइफ़ की कहानी आपको पता चल जाए, तो वह इंसान थोड़ा अपना लगने लगता है। डिंपी की माँ की कहानी ज़ंग-लगे दरवाज़े की तरह बहुत धीरे-धीरे खुली थी। फिर वह थोड़ी अपनी लगने लगी थी।

जब हम सड़क किनारे बैठे होते, तो डिंपा की माँ हम लोगों के लिए नेत्र-भोजन की तरह होती, क्योंकि उसके नितंब बहुत बड़े थे, बहुत से भी बड़े! हम उसे आती हुई कम, जाती हुई देखना अधिक पसंद करते थे। और जब वह ठुमककर जा रही होती, पीछे हम लुक्खों का पूरा गैंग, हुडी पहने रैपर्स की तरह, उँगलियाँ नचाते हुए रैप गाता —

“आ गई भाय, देखो भाय, आधा किलो, एक किलो…”

आख़िर यही गाना क्यों गाते थे? क्योंकि चलते समय डिंपा की माँ के विकट नितंब, अत्यंत नैसर्गिक ढंग से, अप एंड डाउन होते थे। हमें लगता, कोई तराज़ू है, एक पलड़ा नीचे होता है, तो दूसरा पलड़ा ऊपर। इसीलिए— आधा किलो, एक किलो।

जब भी बिरला गेट पर भाजी लेने आती, हम लोगों में शर्त लग जाती— किस माई के लाल में दम है कि जाकर उसके बम्स पर ज़ोरदार चिकोटी काटे? या भीड़ के बीच में सबकी नज़रें बचाकर चटाक् से एक चमाट लगा दे? यह उन दिनों की सबसे बड़ी शर्त होती थी और कोई सूरमा ही इसे अंजाम दे पाता था।

डिंपा की माँ बहुत अजीब थी। उसे वैसे तो कोई ख़ास आब्जेक्शन नहीं होता था, पर अगर चिकोटी ज़्यादा तेज़ कट गई, तो वह बवाल कर देती थी। धीरे से सहला दो, तो वांदा नहीं। ग्रांटेड है।

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शर्त के कारण येड़ा ढेपलू तीन बार फँसा था। शायद वो ज़्यादा ही जोर से चिकोटी काटता था। या फिर उसे ऐसा लगता था कि यह दस्तक है, अगर डिंपा की माँ ने उसे पहचान लिया, तो उसके घर में उसकी फ्री एंट्री हो जाएगी और फिर तो खल्लास। झक्कास में धमाल, फुक्कट में बजाओ माल। पन ऐसा कभी हो नहीं पाया। येड़ा ढेपलू को तीन बार डिंपा की माँ के चमाट गाल पर झेलने पड़े। और मज़े की बात है कि तीनों बार डिंपा की माँ ने उसे पहचाना।

बोली, 'रंडी के, फिर आ गया तू।'

और तड़ाक। 

येड़ा ढेपलू ने शर्त लगाना बंद कर दिया। यही नहीं, डिंपा की माँ अगर बिरला गेट पर दिख भी गई, तो येड़ा ढेपलू सीधे कल्याण निकल जाता, डुक्कर-गाड़ी पकड़ के।

सच्ची बोले तो तीसरी बार बेचारे येड़ा ढेपलू का कोई क़सूर ही नहीं था। चमाट तो टकले गुड्डू गांधी ने मारी थी। दो बार येड़ा ढेपलू पिट गया, तो तीसरी बार उसने शर्त लगाने से ही मना कर दिया। गुड्डू गांधी ने उसे बहुत उकसाया। ज़माने भर के हीले दिए। पर येड़ा नहीं माना, तो नहीं माना। फ्लैट नकार। तय हुआ कि इस बार क़िला फ़तह करने का ज़िम्मा गुड्डू गांधी का। साला, गुड्डू गांधी भोत शाणा बनता था। अक्खा टाइम टकला रहता था। दाढ़ी बढ़ी रहेंगी, चल जाएँगा, पर टकले पे बाल नहीं मंगता। 

जब छोटा था, तो बाप ने उसको बहुत प्यार से गुड्डू नाम दिया था। उसके टकले को देख हममें से किसी ने गांधी नाम दे दिया। बाप और दोस्त का प्यार मिल गया, तो उसका नाम “गुड्डू गांधी” बन गया। 

हम लोगों ने सोचा कि हर बार बेचारे येड़े को पड़ती है, इस बार गांधी के शाणपणे की थोड़ी वाट लगनी चाहिए। डिंपा की माँ से खाएगा, तो शाणपणा निकल जाएगा। तो तय हुआ कि हाथ तो गांधी ही फिराएगा। पर गांधी ने भी ऐन मौक़े पर टंगड़ी मार दी। बोला, येड़ा ढेपलू उसके साथ गाड़े तक जाएगा, जिधर डिंपा की माँ दो रुपये की भाजी के लिए सौदागरी कर रही है।

गुड्डू गांधी गया। साथ में येड़ा भी। येड़ा डर रहा था। दो चमाट याद थे उसको। वह थोड़ा पीछे ही रहा। गाड़े के पास भीड़ तो होती है। येड़े को पता नहीं चला कि गांधी ने कब हाथ साफ़ किया। उसे तो डिंपा की माँ के काले चेहरे पर भभकती हुई लाल आँख दिखाई दी और उसका हाथ अपने गाल की दिशा में बढ़ता दिखाई दिया। रापचिक काला क्रिश्चियन हाथ। माईला... येड़े का उदरीच वाटरलू हो गया।

डिंपा की माँ बोली, 'यह रंडी का... हमेशा तंग करता है।'

किसी ने पूछा, 'क्या हो गया?'

'अरे, ये हरामी का बच्चा है।'

दो चार लोग और पलट गए। क्या हो गया, क्या हो गया, की रट लग गई।

डिंपा की माँ बस इत्ता बोली, 'ये स्साला हरामी है...।'

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दो लोग आगे बढ़े, तो लगा, येड़े को सलटा देंगे ओर येड़ा भी नक्की ढक्कन, कि जगह से हिले ही नहीं। आँख फाड़कर बस डिंपा की माँ को देखे जावे। उसको मजबूत पड़ती पब्लिक की, उससे पहले ही गांधी एक्टिव हो गया। पूछा, 'क्या हो गया आंटी? क्या हो गया भइया?'

'ये स्साला हरामी है...'

'क्या किया रे? बोल? भड़वे? बोल?'

गांधी ने येड़े को हड़काना शुरू किया और धक्के मारते हुए थोड़ा आगे तक ले गया। फिर बोला, 'निकल ले लपुट। तेर्कों बचाके यहाँ तक ले आया। अब निकल ले। मेरी गारंटी नहीं अब, चल निकल।'

और येड़ा वहाँ से भागा, कि साला दूसरे दिन तक किसी को नजर नहीं आया। जब आया, तो गांधी की बैंड बजा दी।

“साले, मजे तेरे और पड़ी मेर्को।”

गांधी ने उसको समझाया कि कितनी चतुराई से उसको पब्लिक से पिटने से बचा लिया उसने। और येड़ा ये बात मान भी गया। दोनों में फिर पक्की दोस्ती। येड़ा को चैरिटी में जो मिला था, वह हर वक़्त भूले रहता था, पर डिंपा की माँ बिरला गेट पर आई नहीं कि येड़ा ढेपलू की फटने लगे। तभी से हम लोग उसे 'येड़ा ढेपलू फट्टूभाई, डिंपा की माँ ने सॉलिड बजाई' - कहने लगे थे।

हालाँकि इसके बाद भी शर्त लगाने में कभी कोताही नहीं हुई। गुड्डू गांधी हर बार सहला आता, कभी पकड़ा नहीं जाता, और धीरे धीरे पूरे बिरला गेट में ये फेमस हो गया कि डिंपा की माँ फिराने देती है, बशर्ते प्यार से फिराओ। गांधी को, पता नहीं, क्या तरीक़ा आता था, कि धीरे धीरे डिंपा की माँ के लिए शर्त लगना ही बंद हो गई। वह आती, तो पहले ही हम बोल देते – “जा रे गांधी। आ गई तेरी।”

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