एपिसोड 1

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अनुक्रम:

एपिसोड 1-6 : विश्वास
एपिसोड 7-9 : नरक का मार्ग
एपिसोड 10-11 : स्त्री और पुरुष
एपिसोड 12-13 : उद्धार
एपिसोड 14-15 : निर्वासन
एपिसोड 16-19 : नैराश्य लीला
एपिसोड 20 : कौशल
एपिसोड 21-23 : स्वर्ग की देवी
एपिसोड 24-26 : आधार
एपिसोड 27-28 : एक आंच की कसर
एपिसोड 29-31 : माता का हृदय
एपिसोड 32 : परीक्षा
एपिसोड 33-34 : तेंतर

एपिसोड 35-38 : नैराश्य 
एपिसोड 39- 42 : दंड
एपिसोड 43-44 : धिक्कार
एपिसोड 45-50 : लैला
एपिसोड 51-53 : मुक्तिधन
एपिसोड 54-57 : दीक्षा
एपिसोड 58-59 : क्षमा
एपिसोड 60-61 : मनुष्य का परम धर्म
एपिसोड 62 : गुरु-मंत्र
एपिसोड 63-67 : सौभाग्य के कोड़े
एपिसोड 68 : विचित्र होली
एपिसोड 69-71 : मुक्ति-मार्ग
एपिसोड 72-73 : डिक्री के रुपये
एपिसोड 74 : शतरंज के खिलाड़ी
एपिसोड 75 : वज्रपात
एपिसोड 76 : सत्याग्रह
एपिसोड 77 : भाड़े का टट्टू
एपिसोड 78 : बाबा जी का भोग
एपिसोड 79-80 : विनोद

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इस अर्द्धनग्न, दुर्बल, निस्तेज प्राणी में न जाने कौन-सा जादू था कि समस्त जनता उसकी पूजा करती थी, उसके पैरों में न जाने कौन-सा जादू था कि उसके पैरों पर सिर रगड़ती थी। 

कहानी: विश्वास

पूजनीय

उन दिनों मिस जोशी बम्बई सभ्य-समाज की राधिका थी। थी तो वह एक छोटी-सी कन्या पाठशाला की अध्यापिका पर उसका ठाठ-बाट, मान-सम्मान, बड़ी-बड़ी धन-रानियों को भी लज्जित करता था। वह एक बड़े महल में रहती थी, जो किसी ज़माने में सतारा के महाराज का निवास-स्थान था। 

वहाँ सारे दिन नगर के रईसों, राजों, राज-कर्मचारियों का तांता लगा रहता था। वह सारे प्रांत के धन और कीर्ति के उपासकों की देवी थी। अगर किसी को ख़िताब का ख़ब्त था तो वह मिस जोशी की ख़ुशामद करता था। किसी को अपने या संबधी के लिए कोई अच्छा ओहदा दिलाने की धुन थी तो वह मिस जोशी की अराधना करता था। 

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सरकारी इमारतों के ठीके ; नमक, शराब, अफ़ीम आदि सरकारी चीज़ों के ठीके ; लोहे-लकड़ी, कल-पुरजे़ आदि के ठीके सब मिस जोशी ही के हाथो में थे। जो कुछ करती थी, वही करती थी, जो कुछ होता था उसी के हाथों होता था। जिस वक़्त वह अपनी अरबी घोड़ों की फ़िटन पर सैर करने निकलती तो रईसों की सवारियां आप ही आप रास्ते से हट जाती थीं, बड़े दुकानदार खड़े हो-हो कर सलाम करने लगते थे। 

वह रूपवती थी, लेकिन नगर में उससे बढ़कर रूपवती रमणियां भी थी। वह सुशिक्षिता थीं, वाक्चतुर थी, गाने में निपुण, हंसती तो अनोखी छवि से, बोलती तो निराली घटा से, ताकती तो बांकी चितवन से लेकिन इन गुणों में उसका एकाधिपत्य न था। उसकी प्रतिष्ठा, शक्ति और कीर्ति का कुछ और ही रहस्य था। सारा नगर ही नहीं, सारे प्रान्त का बच्चा जानता था कि बम्बई के गवर्नर मिस्टर जौहरी मिस जोशी के बिना दामों के गुलाम है।

मिस जोशी की आंखों का इशारा उनके लिए नादिरशाही हुक्म है। वह थिएटरों में, दावतों में, जलसों में मिस जोशी के साथ साये की भांति रहते हैं। और कभी-कभी उनकी मोटर रात के सन्नाटे में मिस जोशी के मकान से निकलती हुई लोगों को दिखाई देती है। इस प्रेम में वासना की मात्रा अधिक है या भक्ति की, यह कोई नहीं जानता। लेकिन मिस्टर जौहरी विवाहित हैं और मिस जोशी विधवा, इसलिए जो लोग उनके प्रेम को कलुषित कहते हैं, वे उन पर कोई अत्याचार नहीं करते।

बम्बई की व्यवस्थापिका-सभा ने अनाज पर कर लगा दिया था और जनता की ओर से उसका विरोध करने के लिए एक विराट सभा हो रही थी। सभी नगरों से प्रजा के प्रतिनिधि उसमें सम्मिलित होने के लिए हज़ारों की संख्या में आए थे। मिस जोशी के विशाल भवन के सामने, चौड़े मैदान में हरी-भरी घास पर बम्बई की जनता अपनी फ़रियाद सुनाने के लिए जमा थी। 

अभी तक सभापति न आए थे, इसलिए लोग बैठे गप-शप कर रहे थे। कोई कर्मचारी पर आक्षेप करता था, कोई देश की स्थिति पर, कोई अपनी दीनता पर- अगर हम लोगो में झगड़ने का ज़रा भी सामर्थ्य होता तो मजाल थी कि यह कर लगा दिया जाता, अधिकारियों का घर से बाहर निकलना मुश्किल हो जाता। 

हमारा ज़रूरत से ज्यादा सीधापन हमें अधिकारियों के हाथों का खिलौना बनाए हुए है। वे जानते हैं कि इन्हें जितना दबाते जाओ, उतना दबते जाएंगे, सिर नहीं उठा सकते। सरकार ने भी उपद्रव की आंशका से सशस्त्र पुलिस बुला ली। और उस मैदान के चारों कोनों पर सिपाहियों के दल डेरा डाले पड़े थे। उनके अफ़सर, घोड़ों पर सवार, हाथ में हंटर लिए, जनता के बीच में निशंक भाव से घोड़े दौड़ाते फिरते थे, मानो साफ़ मैदान है। 

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मिस जोशी के ऊंचे बरामदे में नगर के सभी बड़े-बड़े रईस और राज्याधिकारी तमाशा देखने के लिए बैठे हुए थे। मिस जोशी मेहमानों का आदर-सत्कार कर रही थीं और मिस्टर जौहरी, आराम-कुर्सी पर लेटे, इस जन-समूह को घृणा और भय की दृष्टि से देख रहे थे।

सहसा सभापति महाशय आप्टे एक किराये के तांगे पर आते दिखाई दिए। चारों तरफ हलचल मच गई, लोग उठ-उठकर उनका स्वागत करने दौड़े और उन्हें ला कर मंच पर बैठा दिया। आप्टे की अवस्था 30-35 वर्ष से अधिक न थी। दुबले-पतले आदमी थे, मुख पर चिन्ता का गाढ़ा रंग चढ़ा हुआ था। बाल भी पक चले थे, पर मुख पर सरल हास्य की रेखा झलक रही थी। 

वह एक सफे़द मोटा कुरता पहने थे, न पांव में जूते थे, न सिर पर टोपी। इस अर्द्धनग्न, दुर्बल, निस्तेज प्राणी में न जाने कौन-सा जादू था कि समस्त जनता उसकी पूजा करती थी, उसके पैरों में न जाने कौन-सा जादू था कि उसके पैरों पर सिर रगड़ती थी। इस एक प्राणी के हाथों में इतनी शक्ति थी कि वह क्षण मात्र में सारी मिलों को बंद करा सकता था, शहर का सारा कारोबार मिटा सकता था। 

अधिकारियों को उसके भय से नींद न आती थी, रात को सोते-सोते चौंक पड़ते थे। उससे ज्यादा भंयकर जन्तु अधिकारियों की दृष्टि में दूसरा न था। ये प्रचंड शासन-शक्ति उस एक हड्डी के आदमी से थरथर कांपती थी, क्योंकि उस हड्डी में एक पवित्र, निष्कलंक, बलवान और दिव्य आत्मा का निवास था।

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