एपिसोड 1

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अनुक्रम

एपिसोड 1-7 : मित्र की उदासी
एपिसोड 8-14 : जंक्शन
एपिसोड 15-18 : नया
एपिसोड 19-23 : कवि
एपिसोड 24-25 : मुहर
एपिसोड 26-28 : नीम का पौधा
एपिसोड 29-30 : रोली का साक्षात्कार
एपिसोड 31 : समय के दो भाई
एपिसोड 32-33 : लक्ष्य शतक का नारा
एपिसोड 34 : वीराने का कोतवाल

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वैसे, समूची दुनिया तथा इन मित्रों की आपस में बिल्कुल नहीं बनती थी। इन दोनों का भरोसा था कि इस कला की बदौलत ही ये विश्वविद्यालय में प्रवेश पा सके थे।

कहानी: मित्र की उदासी

मामूली चूक

बहुत समय पहले की एक बुलन्द बात है, इस नगर में दो दोस्त रहते थे। सलोने सिंह और नीलकंठ गोसाईं।

पाँच-साढ़े पाँच की उम्र रही होगी, जब नीलकंठ पहली बार पढ़ने गए। सारा दिन रोते रह गए थे। रूलाई से आँखों का काजल चेहरे पर पसर गया था। उनके रोने में ‘माई रे-माई रे’ की लकार बँधी थी।

उन्हें चुप कराया था सलोने सिंह नाम के बच्चे ने, जो उसी ‘छुटकी गोली’ कक्षा के छात्र थे। नन्हे सलोने ने नीलकंठ को मित्रता के पहले उपहार में एक सबक दिया, ‘स्कूल में मैं अपनी माई को ‘मम्मी रे’ कहकर रोता हूँ।’

वे बेजोड़ निकले। उन्हें कभी किसी तीसरे की जरूरत नहीं पड़ी। पढ़ाई-लिखाई और दुनियादारी में औसत से भी नीचे रहे। आपस में ही ऐसी-गिटिर-पिटिर करते कि फेल होने से बच जाते थे। बहुत हुआ तो किसी तीसरे से कुछ सवाल पूछ लिया।

फिर तो उस तीसरे की खुशी का ठिकाना नहीं होना था। दरअसल, सब के सब इनकी तरफ़ मुँह उठाए रहते थे मानो, टिकाऊ दोस्ती का ट्यूशन चाहते हों।

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समय की सामान्य रफ़्तार से और सिनेमा की साधारण धुनों पर वे बड़े हुए। दोनों बड़े सिनेमाबाज़ निकले। गंगा टॉकिज़ की सभी कुर्सियों पर बैठकर लगभग उतनी ही फ़िल्में देखी थी, ऐसा उनका विनम्र कीर्तिमान था।

‘बेताब’ देखकर सलोने अमृता सिंह से फँस गए थे और अमृता डार्लिंग को धुआंधार चिट्ठियाँ लिखी। आँधी, बरसात या अनुशासन से जिन फ़िल्मों का पहला शो छूट जाता उसे फ़्लॉप घोसित कर देते थे।

सिनेमा से ही उन्हें पहला-पहला धोखा मिला। एक सिनेमाई पत्रिका में इस गहरे आशय का लेख पढ़ा- पुरानी फिल्मों में प्रेम की स्थिति पैदा होते ही फूलों को लिपटते-चिपटते दिखाया जाता है। नीलकंठ ने इसे कई बार पढ़ा और फाड़ डाला। धोखे पर धोखा।

अब तक वे दृश्यों को फूलपत्ती मानकर देखते आए थे। प्रेम के सघन दृश्यों की ओर बढ़ती फिल्म में फूलपत्ती का अचानक दिखना क्रम भंग की तरह होता था। नायिका नायक को चूमने वाली है- कट-फूलपत्ती-कट-गोद में बच्चा-। ये फूल के मुहावरे नहीं जाते थे। इस तरह हज़ार-हा रंगीन कल्पनाओं से वंचित रह गए थे। इस गहरी निराशा में उन्होंने तीन निर्णय लिए।

इन निर्णयों तक पहुँचने के लिए दोनों ने जिस शिल्प का इस्तेमाल किया, वह शिल्प इनके शानदार जीवन का अंदाज़ था। उनकी अब तक की कमाई थी। पहला कुछ कहता और चुप हो जाता। दूसरा इस ख़ामोशी के घनत्व से सटीक निर्णय निकाल लेता था। उनकी यह कला इतनी ज़बरदस्त थी कि भूलकर भी वे दोनों आपस में निर्णयों की जाँच नहीं करते थे।

फ़िल्मी धोखे वाली शाम को वे गंगापार की रेत पर निराश बैठे थे। कितना पैसा फूल पत्ती देखने भर से उड़ा दिया। डूबते सूरज को नदी में देखते हुए दुःखी नीलकंठ ने कहाए ‘सिनेमा हॉल का मैनेजर शिवपुर से आता है।’ इतना कहकर वापस नदी देखने लगे थे।

सलोने को मतलब समझते ज़रा देर लगी। नीलकंठ की ख़ामोशी पढ़कर पहला निर्णय लिया- मैनेजर को उसके मुहल्ले में ही पीट देना है। सलोने भी कुहनियों पर टिके, आसमान निहारते हुए बोल पड़े, ‘तुम्हारी लिखावट अच्छी है।’

ये इतनी सीधी-सपाट बात थी कि उनके चुप होने से पहले ही नीलकंठ निर्णय तक पहुँच गए। सिनेमाहाॅल में एक तख्ती इस गहरे अर्थों की टाँगनी है, ‘मित्रो, जब फिल्म में फूल-पत्ती दिखे तो समझो मामला गड़बड़ है और बाक़ी के दृश्य अपने मस्तिष्क में रच डालिए।’

नीलकंठ ने एक मुश्किल सवाल कर दिया, मस्तिष्क में छोटी इ का मात्रा लगाऊं या बड़ी ई की मात्रा? सलोने फँस गए। जवाब दिया, ‘मस्तिष्क लिखना ज़रूरी है? माथा लिख दो।’

दोनों का दुःख बस इतना था कि काश थोड़ा समझदार रहे होते तो अब तक कितना आनंद मिला होता। नीलकंठ की बेचैनी स्पष्ट हो गई थी जब उन्होंने कहा, ‘ट्यूशन सुबह की बजाए शाम के बैच में करा लो, सलोने।’

गोल दुनिया के होशियारों को ‘बैच बदलना’ ही तीसरा निर्णय लगा होगा। यह तो कही हुई वह बात थी जिसके बाद की ख़ामोशी को सलोने ने डिकोड किया,         बहुत हुआ फूलपत्ती और बहुत हुआ इशारा-इशारा, अब सीधा मॉर्निंग शो। सिर्फ वयस्कों के लिए। इन तीन महान निर्णयों के बाद वे देर तक बालू पर पसरे रहे।

नतीजे तक पहुँचने की इनकी अनोखी रचना-प्रक्रिया पर दुनियादारों के बेहतरीन ख्याल थे- साले, दोनों के दोनों पागल हैं। पहला कुछ कहता है। दूसरा कुछ का कुछ समझता है और अंटर-पंटर निर्णय ले लेते हैं। वैसे, समूची दुनिया तथा इन मित्रों की आपस में बिल्कुल नहीं बनती थी। इन दोनों का भरोसा था कि इस कला की बदौलत ही ये विश्वविद्यालय में प्रवेश पा सकते थे।

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विश्वविद्यालय में इनकी मित्रता और निखर गई। समान विषय। एक ही बेंच। समान पसंद की लड़कियाँ। पढ़ाई में एक बराबर की अरुचि। यहाँ हाज़िरी अनिवार्य थी। फिर भी किसी दिन नीलकंठ क्लास नहीं आते, सलोने के लिए यह दुनिया नई और अटपटी हो जाती थी।

वह अपने बगल में अजनबियों को पाते। उनसे हाय, हैलो भी करते पर जैसे अपरिचितों से मिल रहे हों। इत्तफाकन उस दिन किसी से बातचीत शुरू हो भी जाती पर अगले दिन नीलकंठ की वापसी से वह तीसरा अपने आप ही दूर हो जाता था।

सलोने उसे पहचानते, उसका एहतराम भी करते पर बीते दिन वाली घनिष्ठता का लोप हो जाता। नीलकंठ की अनुपस्थिति के दिनों में सलोने विश्वविद्यालय का भरपूर चक्कर लगाते और नई जगहे ढूढ़ते थे।

बात तब की है जब परीक्षाएँ शुरू होने वाली थीं। ये प्रवेश पत्र ही लेने आए थे, जब एक मामूली नुकता इनके याराने को चुभ गया। सलोने के प्रवेश पत्र से तस्वीर उखड़ गई थी और झूल रही थी। जहाँ तक नीलकंठ का सवाल है, उन्हें प्रवेश पत्र नहीं मिला।

इनकी हाज़िरी दगा दे गई। सालाना इम्तहानों में बैठने के लिए सत्तर फ़ीसदी हाज़िरी अनिवार्य थी। इनकी हाज़िरी ज़रूरत से दशमलव एक फ़ीसदी कम थी। उनहत्तर दशमलव नौ फ़ीसदी हाज़िरी पर क्लर्क ने कहा, ‘मामूली चूक है, प्राध्यापकों से मिलो।’

मामला जलेबी की तरह सीधा था। दोनों दौड़ते रहे। प्राध्यापक ‘क’ से मिलो- केन्द्रीय कार्यालय जाओ- संकाय प्रमुख-हेड क्लर्क-छात्र अधिष्ठाता- फिर प्राध्यापक-क्लर्क-हेड क्लर्क- ‘अरे ये कैसे हो गया’ का अभिनय करने वाले प्राध्यापक।

प्राध्यापकों का कहना था कि हाज़िरी की सूची जाने से पहले मिलना चाहिए था। काबिल सज्जनों ने इनकी समस्या को ऐसे सुना जैसे मजे़दार चुटकुलों के दौरान आँख में किरकिरी आ गई हो। संकाय प्रमुख सज्जन, आध्यात्मिक और प्रवचनबाज़ थे।

करना बस यह था कि पहली सूची वापस लेकर दूसरी सूची भेजी जाए जिसमें सब अच्छा-अच्छा हो। पर सूची वापस एक ही क़ायदे पर संभव थी, जब किसी प्राध्यापक ने स्वीकार किया होता कि उनसे चूक हो गई। यह संभव नहीं था।

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