एपिसोड 1

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अनुक्रम

एपिसोड 1-4 : हनीमून
एपिसोड 5-9 : परिदृश्य

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वह दिन ख़ाली कमरों की तरह लगते, क़तार-दर-क़तार। उनके ख़ालीपन को भरने के लिए उसको आदमी से अभी थोड़ी उम्मीदें बाक़ी थीं।

कहानी: हनीमून

उम्मीदें 


‘अरे, देखो!’ बस की पीछे वाली सीट पर बैठी औरत ने बग़ल में बैठे आदमी की पसलियों में कोहनी गड़ाकर कहा, ‘देखो, बर्फ़ की चोटियाँ अभी से दिखने लगीं!’

आदमी ऊँघ रहा था। उसकी ऐनक नाक पर आगे खिसक आयी थी और घुटनों पर फैली पत्रिका के पन्ने हवा में फड़फड़ा रहे थे। आदमी ने थोड़ी कोशिश करने के बाद आँखें खोलीं और खिड़की के बाहर, जहाँ औरत ने अभी इशारा किया था, एक सरसरी-सी नज़र डाली। सचमुच, दूर पर बर्फ़ के पहाड़ नीले आकाश में से उग आये थे, जैसे किसी सुंदर से दृश्य का पिक्चर पोस्टकार्ड हो। पहाड़ के गोल-गोल नाचते हुए रास्ते पर बस धीरे-धीरे चढ़ रही थी। नीचे सँकरा-सा खड्ड था, जिसमें काफल की झाड़ियाँ ज़मीन पर गिरे चीड़ के सुनहरे तिनकों पर लुढ़की हुई दिखती थीं। नीचे देखने से आदमी को चक्कर आने लगा और उसने फिर से आँखें मूँद लीं। 

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‘देखो, यहीं पहुँचकर तुम मुझको बर्फ़ दिखाने लगते थे और पहाड़ के बारे में कितनी कहानियाँ तुम्हारे पास रहती थीं!’ औरत ने बड़े जोश में फिर से कहा। ढली हुई उम्र, दुबला-पतला बदन, उसकी चंचल आँखों और साँवले रंग में अभी आकर्षण बाक़ी था। आदमी ने बिना आँखें खोले कहा, ‘म्मम…!’

औरत को आदमी पर खीझ आने लगी। उसको मालूम था कि आदमी यहाँ आकर भी वही करेगा। दिन भर अपना बदरंग-सा ड्रेसिंग गाउन पहने आदमी पीछे वाले बरामदे में कुर्सी डालकर बैठा रहता था। उसके सामने मेज़ पर रंगीन तस्वीरों वाली पत्रिकाओं का ढेर रहता था जिनके पन्ने वह अनमने ढंग से बैठे-बैठे पलटा करता। उसके चेहरे पर किसी भी तरह की उत्सुकता के निशान तभी दिखाई देते जब दूर से, अपनी साइकिल पर सवार ‘मैग्ज़ीनवाले पण्डितजी’ नज़र आते। तब आदमी, जो आरामकुर्सी-सा रहता था, उठकर सीधा बैठ जाता और पण्डितजी का इंतज़ार करने लगता, जैसे कि उनके आते ही उसने 'नमस्ते पण्डितजी' की हांक न लगायी तो पण्डितजी रूठकर लौट जाएंगे। 

फिर पण्डितजी अपने झोले में से रंगीन पत्रिकाएँ निकालने लगते और आदमी उनको आँखें फाड़कर देखता रहता जैसे कि उनका झोला नहीं, कोई जादू का पिटारा हो। पूरे वक़्त बातें करते रहते थे - राजनीति की, सद्दाम हुसैन की बेमिसाल फ़ौजों की, तूफ़ान में बिजली के खम्भे के नीचे दबे बच्चे की, महंगाई की - और आदमी उनका चेहरा कौतूहल से देखता रहता। जब पुरानी पत्रिकाएँ लौटाकर नयी पत्रिकाएँ लेने का क्रम पूरा हो जाता और पण्डितजी की साइकिल गेट से बाहर निकल जाती तो आदमी फिर से आरामकुर्सी पर लेट जाता, जैसे कि उसे दुनिया की किसी और चीज़ से मतलब ही न हो।

औरत को आदमी का यह बरताव बिलकुल पसंद नहीं था। उसमें उसको अपना अपमान महसूस होता था। पहले वह सोचा करती थी कि जब आदमी नौकरी से रिटायर कर जायेगा तो उसे अच्छा लगेगा। सुबह को बेटे-बहू अपने-अपने काम से निकल जाते और जब आदमी भी दफ़्तर चला जाता तो वह अकेली रह जाती थी। घर पर खाने-पीने, रहने का इंतज़ाम करने के बाद वह बहुत ख़ाली-ख़ाली महसूस करने लगती थी। तब वह फ़ोटो एल्बम निकालकर पुरानी तस्वीरें देखा करती। ज़्यादातर तस्वीरें पहाड़ों में खिंची हुई थीं। पहाड़ों का आदमी और औरत दोनों को ही बहुत शौक़ था। जवानी में वे हर गर्मी में पहाड़ जाया करते थे। पहाड़ों के ऊंचे-नीचे रास्ते, चीड़ के पेड़ और पहाड़ी हवा की ताज़गी को सूँघकर उनके दिल में खुशी की लहर दौड़ जाती थी।

शादी के बाद हनीमून मनाने के लिए भी वे पहाड़ ही गये थे। तब कितना रोमैन्टिक लगता था सब कुछ। पुराने दिनों के बारे में सोचकर वह काफ़ी देर के लिए खो सी जाती थी। फिर जब वह अपने ख़यालों की दुनिया से बाहर आती तो उसको अपनी ज़िंदगी के आने वाले दिनों में कोई रंग नहीं दिखता। वह दिन ख़ाली कमरों की तरह लगते, क़तार-दर-क़तार। उनके ख़ालीपन को भरने के लिए उसको आदमी से अभी थोड़ी उम्मीदें बाक़ी थीं। हालांकि सालों के बीतने के साथ-साथ वह जैसे अपने आप में सिमटता चला गया था; यहाँ तक कि उसको पहाड़ों में भी दिलचस्पी नहीं बची थी। 

इतने साल काम करने की थकान है, औरत सोचती। आदमी रिटायर होकर आराम करेगा तो ठीक हो जाएगा। लेकिन अब उसको रिटायर हुए भी दो साल हो गए थे पर उसमें ज़रा भी फ़र्क़ नहीं आया था, बल्कि वह और घुन्ना हो गया था। आदमी को रोज़ बरामदे में बैठे ऊँघते हुए देखकर बेटे-बहू भी परेशान होने लगते थे। ‘डैडी ऊब रहे हैं’, वे कहते। ‘उनको घबराहट हो रही है। आप दोनों कुछ दिनों के लिए पहाड़ क्यों नहीं घूम आते? वहाँ के खुले माहौल में डैडी की तबीयत हरी हो जाएगी।’

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और वाक़ई, आदमी के पिचके हुए गाल और संजीदा आँखें देखकर औरत को भी लगने लगता कि वह कोई बिना पंख का पंछी है जो नीले आसमान और खुली हवा के लिए छटपटा रहा है। एक ज़माना था जब उन्होंने सोचा था पहाड़ों में घर बनायेंगे, शहरी ज़िंदगी की हड़कम्प और परेशानियों से मुक्त। तब उनको लगता था कि दूर-दूर तक दिखते हुए पेड़ों से ढँके पहाड़ और उनको सहलाती हुई हवाओं के अलावा उनको जिंदगी में कुछ नहीं चाहिए। लेकिन वे दिन ख़त्म हो गए और सालों से वे पहाड़ क्या, इस शहर से बाहर कहीं भी नहीं गए।

शुरू में आदमी ने बरामदे में अपनी नियमित जगह छोड़कर बाहर जाने से इनकार कर दिया। ‘मैं यहाँ बिलकुल संतुष्ट हूँ’, उसने कहा ‘यह तुम लोगों की ग़लतफ़हमी है कि मैं घबरा रहा हूँ।’

किसी के कहने का कोई असर नहीं हुआ, वह अपनी बात से टस से मस न हुआ। वह इस उबाऊ दिनचर्या का आदी हो चुका था। आरामकुर्सी, पत्रिकाएँ, पण्डितजी का इंतज़ार सब उसके लिए एक पहचानी हुई दुनिया का दायरा नापते थे और उसको डर था कि उनके बिना, चाहे कुछ ही दिनों के लिए सही, वह एकदम बेसहारा हो जायेगा। फिर एक दिन, जब सबने हारकर उससे कहीं भी जाने का ज़िक्र करना ही छोड़ दिया, वह एकदम से राज़ी हो गया। बल्कि थोड़ा उत्साह भी उसके चेहरे पर खिलता-सा नज़र आया। उसको अपने इस अचानक के निश्चय पर औरों से कम ताज्जुब नहीं हुआ।

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