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घर और मृत्यु दो ही ऐसी जगहें हैं, जहाँ आप ख़ाली हाथ जा सकते हैं।

घर और मृत्यु

दूसरे साल का भीगा हुआ दिन

बारिश नहीं थी लेकिन बारिश के बाद की घुटी हुई गंध थी। तीन दिन की बरसात के बाद घास चिंताओं-सी बढ़ आई है। बेतरतीब फैली घास के बेतरतीब झुरमुट में से असंख्य कीट जीवन की पहली उड़ान भर रहे हैं। अनेकों उड़ान भर चुके कुशल खिलाड़ी पीलक, मैना, गौरैया और कौआ हवा में गोता लगा, उन्हें अधर में ही सहजता से दबोच ले रहे हैं। इन बेचारों के जीवन का एकमात्र ध्येय अन्य जीवों की क्षुधापूर्ति हुआ क्या? किन सपनों के साथ उन्होंने पहली उड़ान भरी होगी? किन ख़ुशियों की आस में वे पुनः-पुनः जन्मते हैं? मुक्त क्यों नहीं हो जाते इस जटिल चक्र से।

वह क्या कर रही है? वह भी तो अन्य जीवों के जीवन को सँवारते अपने सपनों को विस्मृत कर चुकी है। क्या हुआ उसके सपनों का… उसके अपनों का। मन जानने के लिए मचल उठा। 'लौटना होगा' काँपते स्वर में विहाना ने स्वयं से कहा। उसे लगता था समय सब सम्भाल लेगा। अब जाना कि समय घाव नहीं भरता, बस किसी निश्चेतक की तरह दर्द भूला देता है। जैसे ही निश्चेतक का असर कम होता है, आप चीत्कार उठते हैं। दर्द दुस्सह हो जाता है।

अगले कुछ घंटों में वह ट्रेन में थी। ट्रेन चलने पर अहसास हुआ कि ग़लत कोच में बैठ गई है। सामान के नाम पर एक हैंडबैग ही था उसके पास। निश्चित ही वह घर जा रही थी। 'घर और मृत्यु दो ही ऐसी जगहें हैं, जहाँ आप ख़ाली हाथ जा सकते हैं।' सोचते हुए वह उठ खड़ी हुई।

"इतनी तो जगह है, क्यों बदलती हो। पूरी ट्रेन दिल्ली ही जाएगी।" साथ की सीट पर बैठी वृद्धा ने कहा।

दो स्टेशन निकल गए।

जगह क्लेम करने कोई नहीं आया पर वृद्धा के साथ आत्मीय संवाद के पार्श्व में, ग़लत जगह होने का भय पूरी यात्रा में उकड़ू बैठा रहा।

घर पहुँचते ही चीनूमाँ गेट पर मिल गई थीं। गिले-शिकवों, ख़ैर-ख़बर की गुंजाइश कब थी। दोनों गले लगकर बिलख उठीं। बड्डी आकर दोनों को भीतर लेकर गए।


दूसरे साल की अनमनी आमद


कमरे की खिड़की से दिखता पर्णपाती अनाम कुल वृक्ष इन दिनों सुर्ख पलाश के आवेष्टन में है। विषाद के सौंदर्य से भरा यह रंगहीन वृक्ष, फागुन की सुर्खी से तनिक भी डाह रखता नहीं दिखता। किसी योगी-सा अविचलित अपनी साधना में लीन खड़ा है। अन्वेषा को शिव याद आए। शिव के एक नाम  रुद्र का अर्थ है रुत दूर करने वाला अर्थात दुखों को हरने वाला! अन्यों के दुख हरने वालों का स्वरूप यूँ ही उजड़ जाता है। इस असौंदर्य के सौंदर्य को देखने की दृष्टि पार्वती के पास है। वही दृष्टि पलाश ने भी पाई है, विहाना ने भी। तभी तो जाने  इसका  नाम जानने की जिज्ञासा से या जाने इसके औघड़ रूप पर मोहित हो पलाश इसकी ओर खिंचा चला आया है। उसकी सूखी उजड़ी भुजाओं को अपने कोमल पुष्पों से सुसज्जित करने… रंग भरने!

विहाना को कितना तलाशा उन सबने। एक बार फ़ोन आया उसका बस। मम्मी-पापा ने कितना समझाया पर सब व्यर्थ। क्यों गई? कहाँ गई? जैसे प्रश्न घर में धुनी रमाए बैठे थे। सबकी निगाहें बार-बार अन्वेषा पर टिक जातीं। वे अनेक प्रश्न पूछते हुए प्रतीत होते। क्या हुआ है, जो बता नहीं रही हो? तुम्हारे बिना कभी कहीं नहीं जाती थी, अब अचानक क्या हुआ? वह क्या बताती, बस इतना विश्वास था कि कितना ही भार उठाना पड़े, कुछ रिश्तों की बान कभी ढीली नहीं पड़ सकती। हर महीने अलग-अलग डाकखाने से 'मैं ठीक हूँ' का पत्र और उसकी मुस्कराती हुई एक तस्वीर चली आती। कभी अपने गाँव लौटते, बेबस मजदूरों को खाना बाँटते हुए। कभी बच्चों को पढ़ाते हुए। सबका मन उसकी चिंता में डूबा रहता। सबसे अधिक अन्वेषा ही व्यथित थी। घर में न होकर भी विहाना सदा बनी रही। साथ की स्मृतियाँ प्रायः यूँ सघन होकर लौटती हैं कि व्यक्ति साकार हो उठता है। लगता है, आगे बढ़कर गले लगाया जा सकता है। दूरी का उलाहना दिया जा सकता है। ज़्यादतियों पर लड़ा जा सकता है। विहाना के साथ पूरी दुनिया घर जैसी लगती थी उसकी अनुपस्थिति में पूरी दुनिया एक कमरे में सिमट गई थी और विहाना… उसके पास तो यह कमरा भी न था। ऐसा निर्वासित जीवन क्यों चुन लिया था उसने?

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वह बेमकसद सड़क पर चली आई थी। कल की बेमौसम आँधी-बारिश के पश्चात सड़क  झरे हुए पत्तों से भरी थी। जगह- जगह उर्ध्वगामी सेमल सुर्ख फूलों से अपनी उपस्थिति दर्ज करा रहे थे। मुरझाए मन से अधिक चल कब पाई! पीली मलिन गात लिए पेवमेंट पर बैठ गई। इसी पेड़ के नीचे पलाश और शाल्मली को देख, विहाना ने कभी कहा था- "टेसू को क्या कहती हो तुम? पलाश? पलाश, सेमल का… सॉरी, शाल्मली का रफ स्केच लगता है। ईश्वर ज़रूर तब प्राइमरी में रहा होगा। लाल फूलों से भरा टेसू का पेड़ बनाकर कुलाँचे भरता टीचर के पास गया होगा। टीचर ने कहा होगा- अच्छा है, पर और अच्छा हो सकता है। नीट बनाओ। तब सेमल बनाया होगा।" याद करते हुए कितनी ही स्मृतियों की साझा मुस्कान अन्वेषा के चेहरे पर चली आई। तब उसे कह नहीं पाई थी कि उसे पलाश अधिक भाता है अपने पूरे उजाड़पन के साथ नाज़ुक गात लिए। शाल्मली अपने विराट चमकीले रूप से कृत्रिमता का बोध देता है। उसकी आँखें भीग उठीं। क्या विराटता के लिए सहजता का त्याग आवश्यक है? 

स्केच बुक के पन्ने ज़ेहन में फड़फड़ाने लगे। जंगल की आग मन दहकाने लगी। कुछ बरस पहले जब वे दोनों साथ बैठे थे, तब जाते मार्च के ये दिन ऐसे गर्म नहीं हुआ करते थे। गर्मियाँ उसे कभी पसन्द थी भी नहीं। उसे सर्दी के भले दिन याद आए। वह रज़ाई की कोमल ऊष्मा ओढ़े अलसाई-सी किताब पढ़ती। विहाना उसके कंधे पर टिकी गाने सुनती रहती। फिर किसी क्षण उकताकर या उसे किताब पढ़ते, मुस्कराते या उदासीन देख पूछ उठती- "क्या प्लॉट है?"

वह किताब आगे बढ़ा देती। 

"नहीं, शार्ट में बता न।"

"फ़िल्म देखती है या स्टोरी सुनती है?"

"तो तू इस किताब पर बनी फिल्म दिखा दे।"

"अभी बनी नहीं।"

"तब बता।"

और वह सुनाने लगती, तो टोक देती।

"लम्बी है क्या?" 

वह घूरती। 

"भूख लग रही है न। मैग्गी बनाएँ? या पास्ता?"

वे रसोई में चले आते। एक दूजे के ऊर्जित साथ ने दिल्ली की सर्दी को कभी उन पर हावी नहीं होने दिया। विहाना स्लैब पर चढ़, बैठ जाती। कॉफ़ी बीट करती हुई। अन्वेषा मैग्गी बनाते, प्लॉट सुनाती जाती। उसके हल्के विरोध के बावजूद अपने पसंदीदा वाक्य और अंश भी पढ़कर सुनाती।

वे कप और प्लेट लिए लिविंग रूम के सोफे पर आ बैठते। विहाना सुनती जाती और आपत्ति दर्ज करती जाती।

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"खीझ नहीं हो रही तुझे इसे पढ़ते? रेखा कैसी स्त्री है, भुवन के पीछे लगी है। प्रेम है, तो स्वीकारती क्यों नहीं? जब तक नहीं पाती उसके सान्निध्य को तरसती दिखती है। पा लेती है, तो जाने कौन-से आदर्शों की दुहाई दे अलग हो जाना चाहती है।" 

अपनी प्रिय किताब पर ऐसी टिप्पणी से  मन खिन्न होता पर कुछ कह कब पाती। 

"मुझे ऐसा प्रेम समझ नहीं आता। तन-मन का मिलन होते, समाज आड़े नहीं आता। विवाह के नाम पर डरकर कहते हैं, समाज के विरुद्ध नहीं जा सकते।" वह आगे कहती।

"तुम प्लॉट सुन रही हो। अज्ञेय को पढ़ोगी, तो उनकी बुनी परिस्थिति में पात्रों का व्यवहार उचित ठहराओगी।"

"लेखक अज्ञेय सही किंतु हैं तो पुरुष ही। तू मान, कहानी बदलकर लिखी गई है। मैं भुवन को रेखा का पीछा करते देख पा रही हूँ। सोच रही हूँ कि काश, रेखा ने यह कहानी ख़ुद कही होती।" वह आवेशित स्वर में कहती, "अधिकतर पुरुष लेखकों की कहानियाँ पढ़ते हुए तू पाएगी कि पुरुष उनमें निरीह शिशु बन जाते हैं। नायिका उन पर मोहित होती है... उनके प्रेम में स्वतः समर्पित होती जाती है और उन्हें विरह दंश देने की दोषी भी वही बना दी जाती है।"

"जो किताब में लिखा है वह सुनाऊँ या जो तू सुनना चाहती है।" वह मुलायम गुस्से से कहती।

"गुस्सा नहीं करते।" विहाना मुँह चूमती, "झुर्रियाँ आ जाती हैं। अच्छा आगे क्या हुआ फिर…"

आगे कब वे दोनों उस छोटे से सोफे पर अपनी देह सिकोड़ कर सो जातीं, कब मम्मी या पापा में से कोई आकर उन्हें कम्बल ओढ़ा जाता। उन्हें कुछ पता न चलता। सबको यह आश्चर्य अवश्य होता कि छोटे से सोफे पर पूरी रात दो लोग बिना गिरे सो कैसे सकते हैं! 

इसी समय क्षुधापूर्ति हेतु टेसू पर उल्टी लटकी एक गिलहरी अचकचाकर नीचे गिर पड़ी। एक हल्की चीख अन्वेषा के मुँह से निकली। गिलहरी वापस पेड़ पर चढ़ गई। बौराया हुआ फूलसुंघनी फूल-फूल भटक रहा था। इसी समय कुछ तोते कर्कश ध्वनि करते उड़ गए। जो सुंदर है, उसे भी झर जाना है। जो असुंदर है, उसे भी। दोनों के मेल से उपजा नश्वरता का यह पटल कैसा मोहक है। रंगीन बोगेन्विलिया और नीम के पीले पत्तों से बनी रंगोली को देखते हुए अन्वेषा ने सोचा। लौट आ विहू,तेरे साथ से हर रुत भाती है। पुरानी कहानी को बिसरा किसी नए शहर में कोई नई कहानी बुनेंगे।

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