एपिसोड 1
अनुक्रम
एपिसोड 1-5 : पहला प्रेम
एपिसोड 6-8 : दूसरा प्रेम
एपिसोड 9-12 : शोकगीत
एपिसोड 13-15 : इस बारिश में
एपिसोड 16-18 : आसमानी नीली यादनए एपिसोड, नई कहानी
एपिसोड 19-23 : प्रवास
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हम सब यह विश्वास करते हैं कि हमारा प्रेम अद्वितीय है और यह देखकर चिढ़ जाते हैं कि वह प्रत्याशित ढर्रे को ही दोहरा रहा है -केट टेलर
कहानी: पहला प्रेम
हिचकॉक की 'वर्टिगो'
पहले इंस्टीट्यूट ऑफ साइन्स की लाल दीवारों, कवेलुओं और लकड़ी से बनी विशालकाय इमारत आती थी। वहीं एक जगह पर हवाई जहाज़ अस्थिपंजर पड़ा रहता। फिर प्रमुख डाकघर की कोलोनियल बिल्डिंग। जहाँ लेटर बॉक्स था वहाँ से एक रास्ता उस गली में जाता था, जहाँ मानस का मकान था। आनन्द विहार का आखिरी बंगला। कॉलोनी की शुरुआत में ही गमलों, पेड़ों, फूलों, कबूतरों के बीच, बेंत की कुर्सी लिए हुए एक अधेड़ औरत नज़र आती जो शायद नर्सरी की मालकिन रही होगी। अक्सर हाथों में अख़बार या ट्रांजिस्टर लिये रहती थी। मानस के घर के पड़ोस में एक लम्बी-चौड़ी और पुरानी दीवार नज़र आती जो लड़कियों के स्कूल के परिसर का हिस्सा थी। मानस के छोटे-से बगीचे में खड़े होने पर स्कूल की कक्षाओं से आती आवाज़ों को सुना जा सकता था।
'माँ यहाँ गुज़री थी, बाबू रानीखेत में, वहाँ कॉलेजों के एक सेमिनार में गये थे।’
'तब तुम वहाँ थे?'
'नहीं, माँ वहाँ थी, मैं मौसी के यहाँ।'
'तब तुम्हारी उम्र?'
'मैं बारह का था, दीदी बीस-इक्कीस की रही होगी।'
'अब दीदी कहाँ है?'
वह कुछ देर ख़ामोश रहा था। उसकी अपनी-सी ख़ामोशी जो उसके साथ अक्सर बनी रहा करती थी। वह हमारी जान-पहचान के शुरुआत के दिन थे। बाद में जब मैंने जाना कि उसकी बहन ने खु़दकुशी की थी तो मुझे अपने सवाल पर शर्म आयी थी। हमारी पहले-पहल की मुलाकातों के दिन और भी ज़्यादा छोटी-छोटी, मामूली और औपचारिक बातों से बनते, साधारण-से दिन रहे थे। मैं बहुत ज़्यादा बोलती थी और वह बहुत ज़्यादा सुनता था।
'देवयानी तुम बहुत ज़ोर-ज़ोर से बोलती हो', माँ समझाती थी।
'मैं अपनी बात ठीक तरह से रखना चाहती हूँ।'
'लेकिन लड़की की आवाज़ का तेज़ होना अच्छा नहीं माना जाता।'
‘ऐसा क्यों है?'
'तुम इतने सवाल करती हो!'
'तुम नहीं करती थी?'
'नहीं।'
'क्यों?'
'फिर क्यों, मुझे तुम्हारे लिए डर लगता है'
'लेकिन बाबा मुझ पर कभी नाराज़ नहीं होते थे'
'वे अलग तरह के आदमी थे। तेरे बाबा ने ही मुझे शादी के बाद पढ़वाया था... कॉलेज में मेरी नौकरी से उनको ज़्यादा खुशी मिली थी, मुझे तैरना उन्होंने सिखाया… स्कूटर चलाना भी।'
मैं जब बी.ए. फाइनल के इम्तिहान दे रही थी तब बाबा की एक दुपहर में अचानक मृत्यु हो गयी थी। उनके इस तरह जाने के बाद, हम दोनों माँ-बेटी के साथ उनकी किताबों, उनके हिन्दुस्तानी क्लासिकल के रिकॉर्डों के साथ-साथ, उनके साथ बीते हमारे दिनों की यादें रहा करती थीं। हम दोनों अपनी फु़रसत की घड़ियों में कभी-कभार उनकी धर्म, इतिहास और राजनीति से जुड़ी किताबों को पढ़ा करते थे।
उस्ताद अमीर खान और निखिल बैनर्जी के रिकॉर्ड्स सुना करते थे। हमें फु़रसत कम ही मिला करती थी। माँ कॉलेज में पोस्ट ग्रेजुएट छात्र-छात्राओं को अंग्रेज़ी पढ़ाती थीं और मैं एम.एससी. पढ़ रही थी। सप्ताह में तीन दिन मैं यूनिवर्सिटी लाइब्रेरी में फ्रेंच सीखने जाती थी। माँ की किताबों में कुछ किताबें फ्रांसीसी चित्रकारों की कला और ज़िन्दगी पर थीं। उन किताबों में ही मैंने बैन गॉग के कुछ असाधारण, विलक्षण और अद्भुत चित्रों को, उनके रंगों, आकारों और आकृतियों को शिद्दत से महसूस किया था। बैन गॉग के चित्रों का जीवन और जादू भी रहा होगा कि हममें फ्राँस के लेखकों-कवियों की किताबें पढ़ने का लगाव उतर आया था। मैं वहाँ के कवियों को अंग्रेज़ी में पढ़ती थी, उनके मराठी अनुवादों को देखा करती थी और तभी मेरे मन में फ्रेंच सीखने का ख़्याल उतरा होगा।
यह भी होता रहता है कि पूना से मेरी नानी कुछ दिनों के लिए हमारे यहाँ आ जाती। तब हमें शाम को उनके साथ कभी सैर के लिए किसी पार्क में, कभी किसी किताब के लिए पब्लिक लाइब्रेरी में या कभी दर्शन के लिए गणेश मन्दिर में जाना पड़ता। नानी को पण्डित के हाथों बना खाना अच्छा नहीं लगता। उन दिनों खाना मैं बनाती या माँ। इन दिनों में अपने कुत्ते को रोज़ नहलाना ज़रूरी हो जाता। नानी को कुत्तों से चिढ़ थी और उनको पालने वालों से भी। जिन दिनों मैं नानी के घर में रहा करती थी उन दिनों में हमारा कुत्ता कुछ उदास-सा बना रहता। वैसे भी अपोलो के स्वभाव में ही एक तरह की उदासी थी जो उसकी निगाहों में रची-बसी रहा करती।
'अंग्रेज़ों को कुत्ते-बिल्लियों की ज़रूरत थी', नानी कहती थी, ‘क्यों?' मैं पूछती।
'वे हमारे यहाँ अकेलापन महसूस करते थे।'
नानी की भारत में अंग्रेज़ों के अकेलेपन की इस बात का ख़्याल मुझे मानस से हुई शुरू की मुलाक़ातों में आया था। विश्वविद्यालय की लाइब्रेरी की पहली मंज़िल के गोखले हॉल में अल्फ्रेड हिचकॉक की कुछ फ़िल्में तीन-चार दिनों तक दिखायी गयी थीं। मैं और माँ एक शाम लाइब्रेरी की टैरैस पर खड़े थे। बाहर जून की शुरुआत गर्मियों की लम्बी शाम थी। लम्बी और गहरी और माँ की बातों से बनती और कुछ गम्भीर-सी शाम। फ़िल्म को कुछ देर बाद शुरू होना था।
“गहराइयाँ...” इस शब्द का हमेशा ख़्याल रखना था, माँ मराठी में कह रही थी। माँ बताना चाह रही थी कि कोई भी आदमी धीरे-धीरे ही कुछ बनता चला जाता है… अपने स्वप्न का बराबर ख़्याल रखना पड़ता है... उस तक पहुँचने के रास्ते खोजने पड़ते हैं... माँ और नानी कितना-कुछ बताते रहते थे पर मैं सुनती कहाँ थी? मुझमें अपना ही कुछ कहने-बताने का उतावलापन बना रहता।
मानस से मिलने पर मैंने धीरे-धीरे किसी को सुनना, सुनने को सीखना शुरू किया था।
वह आख़िरी फ़िल्म की शाम थी। हिचकॉक की वर्टिगो' की शाम। तभी वह माँ के पास आया था। सात-आठ मिनिट्स के बाद हॉल में अन्धेरा हो जाना था।
“नमस्ते, आप कैसी हैं... कुछ काम आ गये और मैं आपसे मिलने नहीं आया।'
“कोई बात नहीं... तुम जब कॉलेज आये थे तब मैं पढ़ाने जा रही थी... यहाँ कितने दिन रहोगे?'
'मुझसे वहाँ जमा नहीं... मैं लौट आया।'
‘फिर कभी घर आना... यह मेरी बेटी देवयानी है... कामायनी से छोटी... नयी फिल्म के लिए आये हो’
हमारी बातचीत के बीच ही माँ ने उसे हमारा फोन नम्बर दिया था। उस शाम हम लाइब्रेरी से अपने घर तक पैदल ही लौटे। पाम रोड की सँकरी-सी सड़क के फुटपाथ पर माँ ने बताया था कि मानस के पिता उनके अंग्रेज़ी विभाग में रहे थे और एक सेमिनार के वक्त रानीखेत में मरे थे। उसकी माँ शास्त्रीय संगीत सीखती थी और अब वह भी नहीं रही हैं। मानस की बचपन से ही संगीत में रुचि बनी रही और पिछले कुछ बरसों से वह बम्बई-पूना में फिल्मों में संगीत देने के लिए वहीं रह रहा था।
‘क्या उसने संगीत सीखा है'
'हमारे ही कॉलेज की मैडम डिक्रूज़ से पियानो सीखा करता था... बहुत कम बोलता है... उदास-सा बना रहता है, उसके पड़ोस में ही उसकी मौसी रहती थी।'
माँ ने उस शाम और भी कुछ-कुछ बताया था लेकिन मुझे उनका यह वाक्य याद रह गया था कि 'उदास-सा बना रहता है।'
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