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दम बन्द कर ज़ोर डालने से हल्की एक धार। फिर बन्द। तीन-चार पछुआई हुई टप-टप। फिर वह भी बन्द। बाघा देर तक बैठा रहा।

मलबे का मालिक 


रात के कोई डेढ़-पौने दो का समय रहा होगा। चाँदनी रात। बाघा से और चला नहीं जाता। थक गया था। चूर-चूर। उमर भी तो हुई। अब वह पहले-सा जोश कहाँ कि रात भर बउआता रहे और भोर होते ही एक साँस में नदी हेल जाए। आज तो ठौर-ठिकाने की थाह लेने में ही आधी रात हुई आयी और हँफनी छूट रही है। एक ताड़ के पेड़ के नीचे साफ-सुथरी ठाँव देखकर थस्स-से बैठ गया। सुस्ताने लगा। अभी इत्मीनान की दो-तीन साँसें ही भरी थीं कि याद आया, यह अगहन का महीना है। फौरन से पेश्तर बैठे-बैठे ही मेंढक की तरह कूदकर ताड़ के पेड़ से दूर जा छिटका। सिर पटककर गुहार लगायी। भूल-चूक बख्शो बाबा! फिर थोड़ी दूर पर चप्पलों को पेंदे से लगाकर बैठ गया। आराम से।

मुस्तैद रहना पड़ता है भाय! यह सब देख-सुनकर नहीं चलने से तो काम नहीं होगा! आज देवी की किरपा से ऐन समय पर उसे चंडी गुरु की बात याद आई थी। उस्ताद की सीख। अगहन मास की रात भूलकर भी किसी ताड़ के पेड़ के नीचे नहीं बैठना चाहिए। जिन्नों का वास। इस्लामी भूत के चक्कर में एक बार पड़े कि गये काम से! जिनगी भर की आफत। गोड़ पड़ता हूँ बाबा, माफ करो। धन्धा वैसे ही आजकल मन्दा चल रहा है। दो जून की रोटी का जुगाड़ ही किसी तरह से हो पाता है। कहाँ से जुटाऊँगा तुम्हारे लिए दारू-मुर्गा!

कहीं दूर उधर से एक कुकुर के भूँकने की आवाज़ आयी। इधर से उल्लू के डाकने की आवाज़। जानवरों के बीच चिट्ठी-पत्री। टेलीफोन। उधर बार्डर पार बांग्लादेश से वो पूछा कि क्या हाल-चाल हैं, तो इधर पच्छिम बांग्ला से ये बोला सब समाचार ठीक है, अपनी सुनाओ। आईएसडी काल। फोकट में। बाघा ने टो कर देखा, पेट की निचली तरफ, नाभि के पास फूलकर बैलून हो गया है। टो कर देखते ही पेशाब महसूस हुआ। धुत्त साला! ये एकठो अलग ही बिपत है। घड़ी-घड़ी पेशाब। 

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नलहाटी के डाक्टर को दिखाया था। परेश डाक्टर। होमीपेथी की मीठी-मीठी गोलियाँ बाँटने से ही बन गया डाक्टर। साला सिलीगुड़ी-नलहाटी लाइन में झालमूड़ी बेचने वाला भी आजकल अपने को दुकानदार कहता है। बिजिनेसमैन, चाहे सेल्समैन। दवाइयों के नाम पर छिपकली का अंडा देता है। प्राब्लेम जस का तस। लगेगा एक ही साथ गंगा-पद्मा बहा दूँगा। संसार को डुबा ही दूँगा। लेकिन बैठो तो छुल-छुल दो बूँद। एकदम पीला। जलन। खाना खाते-खाते गले में कौर अटक जाए और पानी नहीं पीने से जैसे फील होता है, ठीक वैसे ही लगता है पेट बँध गया। 

एक दिन हाथ में कुछ पैसा लेकर सिलीगुड़ी जाने के सिवा कोई उपाय नहीं। वहाँ के किसी अँगरेजी डाक्टर से एक्सरे करवाने से ही असली रोग पकड़ में आएगा। जैसे हराधन की हड्डी का फिरेक्चर पकड़ा गया था दन्न-से। उसी ने तो बताया था बाघा को एक्सरे के बारे में। विज्ञान की बात। एक्सरे मतलब लाइट। जैसे बीएसएफ कैम्प की सर्चलाइट। दन्न-से पकड़ लेती है रात के अँधेरे में छुपकर बार्डर पार करने वालों को। धाँय!

घुटने पर हाथ रखकर एक मैली-सी साँस छोड़ते हुए बाघा उठा और थोड़ी दूर हटकर जा बैठा। उकड़ू। दम बन्द कर जोर डालने से हल्की एक धार। फिर बन्द। तीन-चार पछुआई हुई टप-टप। फिर वह भी बन्द। बाघा देर तक बैठा रहा। पेशाब करते हुए पेशाब के बारे में सोचते रहने से पेशाब ठीक होता है। लेकिन एक बार बन्द तो बन्द ही। बाघा ने उल्टी हथेली से नाभि पर प्रेशर डाला। नदी-नाले में डूबते हुए को बचाने के बाद उल्टा लिटाकर खूब जोर-जोर दबाने से उसके मुँह से जैसी एक मरगिल्ली-सी दो-चार कुल्ले भर की धार बहती है, वैसी ही एक बीमार-सी धारा फिर से। जलती हुई। लास्ट में दो-चार टप-टप। फिर बन्द। पूरा क्लियर अब भी नहीं हुआ। बाघा उठा और वापस आकर अपनी चप्पलों पर बैठ गया।

अगहन मास। ठंड अबकी थोड़ी कम है। लेकिन रात में, और वह भी खुले खेत-बेहार में जरा-सी हवा भी बाघा की बूढ़ी हो रही हड्डियों को बेतरह खटखटा जाती। बाघा ने सोचा बीड़ी पी जाए। अंटी में दोठो बीड़ी है। वो भी कल हराधन से उधार ली गयीं। घंटे भर से बीड़ी पीने की तलब रह-रहकर महसूस कर रहा था। इन्हीं दो बीड़ियों के आसरे पूरी रात निकालनी थी। अगहन की लम्बी रात। बाघा ने एक निकाली। निहारी। सूँघी। गदा छाप हरा सूता बीड़ी। जलायी और एक लम्बा कश खींचकर 'कवि-कवि' भाव से दुनिया-जगत को निरिखने लगा।

दूर-दूर तक चाँदनी में सीझती खुली जगह। चुपचाप और मीठी-मीठी। जवानी के चिकने गाल पर इधर-उधर मुँहासों की तरह खुली ज़मीन की देह पर इधर-उधर ताड़ के शीशम के पेड़, मेहँदी की झरबेरियों की झाड़ियाँ। पीछे कोई दस-बारह रस्सी भर दूर लकड़ी का एक गोला, दराँती कल। लकड़ी के गोले के पीछे तीन-चार फीट ऊँची चाहारदीवारी से घिरा एक लम्बा-चौड़ा अहाता है।

साढ़े तीन सौ एकड़ जमीन का यह अहाता कभी सी.पी.टी. कम्पनी का कारखाना हुआ करता था। 1976 के आसपास आदिग्राम में यह कम्पनी आयी थी। कोई डेढ़ सौ किसानों की ज़मीन को उन्हें यह लोभ देकर हथियाया गया था कि जब कारखाना शुरू हो जाएगा, उन्हें नौकरी दी जाएगी। खेती-बाड़ी में क्या रखा है! देखो कलकत्ते में लोग खेती-बाड़ी नहीं, नौकरी करते हैं, इसलिए बाबू हैं, अमीर हैं। कारखाना जब शुरू हुआ तो इन किसानों को ठेके पर मजदूरी मिली भी थी। लेकिन फिर जाने क्या हुआ कि कम्पनी बन्द हो गयी। जिन किसानों ने ज़मीन दे दी थी, वे घर के रहे न घाट के। आज की तारीख में उनकी ज़मीन कम्पनी के कब्जे़ में है और कम्पनी अब मलबे में बदल गयी है। मलबे का कोई मालिक नहीं है।

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कम्पनी के अहाते के ठीक सामने की ज़मीन पर इलाके के विधायक कामरेड रासबिहारी घोष ने पार्टी ऑफिस खोल रखा है। एक कमरा है, पार्टी ऑफिस कहिए या इलाके के लड़कों का क्लब 'नवयुवक संघ', जो भी। एक तरफ कैरम बोर्ड, शतरंज आदि रखे रहते हैं तो दूसरी तरफ पार्टी के बैनर, बिल बोर्ड्स, होर्डिंग्स, झंडे आदि। कभी-कभी रासबिहारी घोष आते हैं, दस-पन्द्रह मिनट बैठकर चले जाते हैं। 

घोष बाबू विधायक होने के अलावा भी बहुत कुछ हैं। वैसे विधायकी के इतर उनका सबसे बड़ा कारोबार चोकड़-खली और देसी-विदेसी खाद का है। दो साल पहले घोष बाबू ने पार्टी ऑफिस के बगल में लकड़ी का यह गोला भी बनवा लिया। दो-तीन मुंशी और एक मैनेजर गोले को चलाते हैं और हर शाम बशीरपुर जाकर घोष बाबू को हिसाब दे आते हैं। आदिग्राम के दक्खिन जो जंगल है, वहाँ अवैध रूप से पेड़ काटे जाते हैं और दूर-दूर तक लकड़ियों की सप्लाई की जाती है।

पार्टी आफिस के दाएँ आधेक मील पर नलहाटी-सिलीगुड़ी को जोड़ता हुआ हाइवे है। हाइवे के पास ही हराधन का मोदीखाना। लाइन में चलने वाली रात की लॉरियों के चीखते हॉर्न यहाँ तक सुनाई पड़ जाते हैं। दारू-चिलम की पिनक में बेतहाशा भागती लॉरियाँ, जो ऐसे ही जब मन हो हॉर्न बजा देती हैं। फिर बॉर्डर के दोनों ओर से कुकुर-सियार देर तक उस हॉर्न की माँ-बहन करते रहते हैं। इसके अलावा कहीं कुछ हिलता-जगता दिखाई नहीं देता।


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