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सोमनाथ महालय के चारों द्वारों पर एक - एक पहर के अन्तर से नौबत बजती थी । इस प्रकार ऐश्वर्य और वैभव से इस महातीर्थ की महिमा दिग् - दिगन्त तक फैल गई ।

दुर्ग 

सौराष्ट्र के नैऋत्य कोण में समुद्र के तट पर वेरावल नाम का एक छोटा सा बन्दरगाह और आखात है । वहां की भूमि अत्यन्त उपजाक और गुंजान है । वहाँ का प्राकृत सौन्दर्य भी अपूर्व है । मीलों तक विस्तीर्ण सुनहरी रेत पर कीड़ा करती रत्नाकर की उज्ज्वल फेनराशि हर पूर्णिमा को ज्वार पर अकय शोभा विस्तार करती है । आखात के दक्षिणी भाग की भूमि कुछ दूर तक समुद्र में धंस गई  गई है , उसी पर प्रभास पट्टन की अति प्राचीन नगरी बसी है । यहाँ एक विशाल दुर्ग है , जिसके भीतर लगभग दो मील विस्तार का मैदान है ।

दुर्ग का निर्माण सन्धि - रहित भीमकाय शिलाखण्डों से हुआ है । दुर्ग के चारों ओर लगभग 25 फुट चौड़ी और इतनी ही गहरी खाई है , जिसे चाहे जब समुद्र के जल से लबालब भरा जा सकता है । दुर्ग में बड़े - बड़े विशाल फाटक और अनगिनत बुर्ज हैं । दुर्ग के बाहर मौलो तक प्राचीन नगर के ध्वंसावशेष बिखरे पड़े हैं । टूटे - फूटे प्राचीन सादों के खंडहर , अनगिनत टूटी - फूटी मूर्तियां , उस भूमि पर किसी असह्य घट घटना के घटने की मौन सूचना - सी दे रही हैं ।

दुर्ग का जो परकोटा समुद्र शोर पड़ता है , उससे छूता हुआ और नगर के नैऋत्य कोण के समुद्र में घुसे एऊंचे शृंग पर महाकालेश्वर के विद्युत मन्दिर के ध्वंस दीख पड़ते हैं । मन्दिर के ध्वंसावशेष और दूर तक खड़े हुए टूटे - फूटे स्तम्भ , मन्दिर की अप्रतिम स्थापत्य कला और महानता की ओर संकेत करते हैं । 

अब से लगभग हजार वर्ष पहले इसी स्थान पर सोमनाथ का कीर्तिमान महालय था , जिसका अलौकिक वैभव बदरिकाश्रम से सेतुबन्ध रामेश्वर तक , और कुमारी कन्या से बंगाल के छोर तक , विख्यात था । भारत के कोने - कोने से श्रद्धालु यात्री ठठ - के - ठठ बारहों महीना इस महातीर्थ में आते और सोमनाथ के भव्य दर्शन करते थे । अनेक राजा - रानी , राजवंशी , धनी कुबेर , श्रीमन्त साहूकार , यहां महीनों पड़े रहते थे और अनगिनत धन , रत्न , गांव , धरती सोमनाथ के चरणों पर चढ़ा जाते थे । इससे सोमनाथ का वैभव अवर्णनीय एवं अतुलनीय हो गया था । 

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उन दिनों भारत में वैष्णव धर्म की अपेक्षा शैव धर्म का अधिक प्राबल्य था । सोमनाथ महालय - निर्माण में उत्तर और दक्षिण दोनों ही प्रकार की भरतखण्ड स्थापत्य कला की पराकाष्ठा कर दी गई थी । यह महालय बहुत विस्तार में फैला था , दूर से उसकी धवल दृश्यावलि चांदी के चमचमाते पर्वत - शृंग के समान दीख पड़ती थी । सम्पूर्ण महालय उच्चकोटि के श्वेत मर्मर का बना था । महालय के मंडप के भारी - भारी खम्भों पर हीरा , मानिक , नीलम आदि रत्नों की ऐसी पच्चीकारी की गई थी कि उसकी शोभा देखने से नेत्र थकते नहीं थे ।

जगह - जगार सोने - चांदी के पत्र , स्तम्भों पर चढ़े थे । ऐसे छह सौ खम्भों पर महालय का रंग मंडप खड़ा था । इस मण्डप में दस हजार से भी अधिक दर्शक एक साथ सोमनाथ के पुण्य मंडप के सामने छत और दीवार पर रत्ती - रत्ती रत्न और जवाहर जड़ थे । इस कारण साधारण घृत का दीया जलने पर भी वहां ऐसी झलमलाहट हो जाती थी कि आंखें चौंधिया जाती थीं । इस भूगर्भ में दिन में भी सूर्य की किरणें प्रविष्ट नहीं हो सकती थीं । वहां रात - दिन सोने के बड़े - बड़े दीपकों में घृत जलाया जाता था तथा चन्दन - केसर . सोमनाथ के पुण्य दर्शन कर सकते थे ।

इस मंडप में द्विजमात्र ही जा सकते थे । पास दो - दो योजन तक पृथ्वी सुगन्धित रहती थी । रंग - मंडप के चिकने स्वच्छ के सामने गम्भीर गर्भगृह में सोमनाथ का अलौकिक ज्योतिर्लिंग था। गर्भगृह की कस्तूरी की धूप रात - दिन जलती रहती थी , जिसकी सुगन्ध से महालय के आस फर्श पर देश - देश की असूर्यपश्या महिलाएं रत्नाभूषणों से सुसज्जित , रूप - यौवन में परिपूर्ण , गुणगरिमा से लदी - फदी , जगह - जगह बैठी श्रद्धा और भक्ति से नतमस्तक कोमल स्वर से भगवान सोमनाथ का स्तवन घण्टों करती रहती थीं ।

नियमित पूजन और नित्यविधि के समय पांच सौ वेदपाठी ब्राह्मण सस्वर वेद - पाठ करते , और तीन सौ गुणी गायक देवता का विविध वाद्यों के साथ स्तवन करते , तथा इतनी ही किन्नरी और अप्सरा - सी देवदासी नर्तकियां नृत्य - कला से देवता और उनके भक्तों को रिझाती थीं । नित्य विशाल चांदी के सौ घड़े गंगाजल से ज्योतिर्लिंग का स्नान होता था , जो निरन्तर हरकारों की डाक लगाकर एक हजार मील से अधिक दूर हरद्वार से मंगवाया जाता था ।

स्नान के बाद बहुमूल्य इत्रों से तथा सुगन्धित जलों से लिंग का अभिषेक होता था , इसके बाद श्रृंगार होता था।सोमनाथ का यह ज्योतिर्लिंग आठ हाथ ऊंचा था , अतः इसका स्नान , अभिषेक श्रृंगार आदि एक छोटी - सी सोने की सीढ़ी पर चढ़ कर किया जाता था । सब सम्पन्न हो जाने पर आरती होती थी , जिसमें शंखनाद , चौघड़िया घण्ट आदि का महाघोष होता था ।

यह आरती चार योजन विस्तार में सुनी जाती थी । मंडप में दो सौ मन सोने की ठोस शृंखला से लटका हुआ एक महाघंट था , जिसका वज्रगर्जना के समान घोर रव मीलों तक सुना जाता था । सोमनाथ महालय के चारों द्वारों पर एक - एक पहर के अन्तर से नौबत बजती थी । इस प्रकार ऐश्वर्य और वैभव से इस महातीर्थ की महिमा दिग् - दिगन्त तक फैल गई । इन सब कामों में अपरिमित द्रव्य खर्च होता था , किंतु उससे महालय के अक्षय कोष में कुछ भी कमी नहीं होती थी ।

दस हजार से ऊपर गांव महालय को राजा - महाराजाओं के द्वारा अर्पण किए हुए थे । महालय के गगनचुम्बी शिखर पर समुद्र की ओर जो भगवे रंग की ध्वजा फहराती थी , वह दूर देशों के यात्रियों का मन बराबर अपनी ओर खींच लेती थी । महालय के शिखर के स्वर्ण-कलश सूर्य की धूप में अनगिनत सूर्यों की भांति चमकते थे। 

महालय के चारों ओर असंख्य छोटे - बड़े मन्दिर , घर , महल और सार्वजनिक स्थान थे जो मीलों तक फैले थे तथा जिनसे महालय की शोभा बहुत बढ़ गई थी । इस प्रचण्ड महालय के संरक्षण के लिए चारों ओर काले पत्थर का अत्यन्त सुदृढ़ परकोटा बंधा हुआ था जिसमें स्थान - स्थान पर अठपहलू बुर्ज बने हुए थे। बाहरी मैदान में चालीस हजार सैनिक एक साथ खड़े रह सके , इतना स्थान था । जब महालय की खाई में समुद्र का जल भर दिया जाता था , तब उसका दृश्य समुद्र के बीच एक द्वीप का दृश्य बन जाता था । 

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परकोटे के भीतर नगर बाजार तथा सद्गृहस्थों के मकान आदि थे , जहां देश - देश के अनगिनत व्यापारी , शिल्पी और राजकाजी जन तथा महालय - कर्मचारी अपना - अपना कार्य करते तथा निवास करते थे । उनके आराम के लिए अनेक कुएं - बावड़ी - तालाब - सर - मरो वर - उपवन आदि थे । 

देश के भिन्न - भिन्न राजाओं की ओर से बारी - बारी महालय पर चाकरी चौकसी होती थी । इसके अतिरिक्त महालय की ओर से भी एक सहस्र सिपाही नियत थे , जो सावधानी से महालय की करोड़ों की सम्पत्ति की तथा वहां के बसने वाले करोड़ाधिपति व्यापारियों की सावधानी से रक्षा - व्यवस्था करते थे । 

प्रतिवर्ष श्रावण की पूर्णिमा और शिवरात्रि के दिन तथा सूर्य और चन्द्र ग्रहण के दिन महालय में भारी मेला लगता था , जिसमें हिमालय के उस पार से लेकर लंका तक के यात्री वहां आते थे । इन मेलों में पांच से सात लाख तक यात्री एकत्र हो जाते थे । इन महोत्सवों में पट्टन के सात सौ हज्जाम एक क्षण को भी विश्राम नहीं पाते थे । दूर - दूर के राजा - महाराजा अपने - अपने लाव - लश्कर लेकर लम्बी - लम्बी मंजिलें काटते हुए , तथा मार्ग के कठिन परिश्रम को सहन करते हुए , प्रभास पट्टन में आकर जब महालय की छाया में पहुंचते , तो अपने जीवन को धन्य मानते थे ।

भरतखण्ड भर में यह विश्वास था कि भगवान सोमनाथ के दर्शन बिना किए मनुष्य - जन्म ही निरर्थक है । अनेक मुकुटधारी राजा और श्रीमन्त अपनी - अपनी मानता पूरी करने को सैकड़ों मील पांव - प्यादे चलकर आते थे । इन सब कारणों से उन दिनों पट्टन नगर भारत भर में व्यापार का प्रमुख केन्द्र बन गया था ।

मालव , हिमाचल , अबुर्द , अंग , बंग , कलिंग के अतिरिक्त अरब , ईरान और अफगानिस्तान तक के व्यापारी तथा बंजारे कीमती माल लेकर इन मेलों के अवसरों पर आकर अच्छी कमाई कर ले जाते थे । पट्टन के बाजार उन - उन देशों की हल्की - भारी कीमत वाली जिन्सों और सामग्रियों से पटे रहते थे । 

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