एपिसोड 1
अनुक्रम
एपिसोड 1-11 : पाँच मिनट
एपिसोड 12-20 : मर्सिया
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वह मरने वाला था। घर में उस वक़्त और कोई न होता था, भांय-भांय करती ख़ामोशी के सिवा। मैं भय से चीखना, रोना चाहता था, मगर उसकी नींद में खलल पड़ने के डर से खामोश रहता था।
कहानी : पाँच मिनट
मैंने किसी का क़त्ल नहीं किया
दिल्ली जायें तो नेहरू प्लेस ज़रूर जायें जो पूरे उत्तर भारत का कंप्यूटर केंद्र है। वहां सीढियों पर धूप सेंकते यूं ही बैठे या इधर-उधर टहलते आठ-दस साल के मैले-कुचैले लड़कों को कचरा बीनने वाला समझने की भूल न कीजिएगा, वे कंप्यूटर विशेषज्ञ हैं, जी विशेषज्ञ, उतनी ही इज्जत के हकदार, जितनी ज्ञानियों, विद्वानों और दानीश्वरों को दी जाती है।
इन पंक्तियों के लेखक को कभी-कभी वहां जाना होता है, अपनी इंजीनियरिंग में पढ़ रही बेटी के लिए कोई कंप्यूटर पुर्जा या प्रोग्राम खरीदने के लिए, और उनसे पूरे अदब से पेश आता है। वे कंप्यूटर के हार्डवेयर और सॉफ़्टवेर के बारे में सब कुछ जानते हैं, और उनकी सिर चकरा देनेवाली तकनीकी और वैज्ञानिक शब्दावली भी।
वे 'सी', 'सी प्लस प्लस'. 'विजुअल सी प्लस' और जावा जैसी अधुनातन कंप्यूटर भाषाओं और विंडोज, लीनक्स और यूनिक्स जैसे ऑपरेटिंग सिस्टम्स के बारे में प्रामाणिक जानकारी देंगे और घेरकर तहखाने या तमाम मंजिलों में से किसी पर किसी छोटी, संकरी, तंग दुकान तक ले जाएंगे जहां पचास या सौ रुपये में वह प्रोग्राम उपलब्ध करा देंगे जो बिल गेट्स एक लाख रुपये में बेचता है।
उसकी नकल, जाहिर है कि ग़ैरकानूनी। अगर आपके साथ कोई कवि, विचारक या दार्शनिक दोस्त हो जो भर्रायी आवाज़ मैं नैतिक वक़्तव्य देने लगे या कानून झाड़ने वाला कोई वकील या पुलिस इंस्पेक्टर, तो उसे वे ये कहकर चुप करा देंगे- अंकल जी, आप भी...।
पूरा हिंदुस्तान ऐसे ही चल रहा है। यह कहानी इस गरीब देश के उन प्रखर, प्रतिभावान, अतिमेधावी कंप्यूटरज्ञ छोकरों के लिए है, इस उम्मीद के साथ कि उनमें से कभी कोई इसे पढ़ेगा।
मुझे सब कुछ याद आ गया। (यह संवाद जिस व्यक्ति को संबोधित है, उसके बारे में आपको वक़्त आने पर बताया जाएगा)। कल रात आपसे जब उस टूटी दीवार के पीछे एक सीधी निगाह में मेरे चेहरे पर कुछ देखा था, और सोचती सी आवाज़ में कहा था- तुम... तुम यहां क्या कर रहे हो, उसी क्षण।
अच्छी याददाश्त का मेरे काम से कोई मेल नहीं, न इस जानकारी का मेरे लिए कोई मोल कि क्या वक़्त हुआ है, कौन-सा साल चल रहा है। लेकिन कल रात मुझे अपना घर और शहर याद आये, और अपना पिता, भाई, मरी हुई बहन, और भी न जाने कितने लोग- और उसके साथ यह भी कि छह साल हो गये, यह सन् उन्नीस सौ इकसठ है, वह भी बीतने वाला है।
मुझे अब वहां वापस जाना है, मगर उसके पहले आपके पास आना ज़रूरी था, यह बताने कि मैंने किसी का कत्ल नहीं किया। सच्ची, एक भी नहीं, अपनी मरी हुई बहन की कसम। मारपीट ज़रूर की है, लोगों को लहूलुहान भी कर दिया है।
सिर्फ़ एक बार लूटपाट की थी और चाकू चलाने की कोशिश भी बस एक ही बार, उसी वक़्त, मगर वह मुझसे खुला ही नहीं था वह छह बरस पहले की बात है। मेरी बहन उससे प्रेम करती थी। खून की धार से मुझे भी बहुत डर लगता है, सच।
याद आया कि कितनी गर्मी होती थी! वह पूरे बदन पर छुरियों की तरह चुभती थी। वह बहुत पहले की बात है जब तीन या चार साल का रहा होऊंगा। याद आया कि एस्बेस्टस की तपती छत के नीचे मेरा बारा अपनी थकी हड्डियों समेत चारपायी पर लेटा रहता था।
मुंह खुला रहता था जैसे एक छोटा खाली छेद। उसकी उम्र हो गयी थी, वह मरने वाला था। घर में उस वक़्त और कोई न होता था, भांय-भांय करती ख़ामोशी के सिवा। मैं भय से चीखना, रोना चाहता था, मगर उसकी नींद में खलल पड़ने के डर से खामोश रहता था।
सिरहाने पर अलार्म घड़ी के खाली खोल में पानी में उसके दांत डूबे रहते थे। रेत उड़ती आती थी। आंखों पर पसीजी उंगलियों में रेत भरी रहती थी, दांतों तले किरकिराती थी।
हमारा घर शहर के आख़िरी छोर पर एक पहाड़ी पर था। अच्छी तरह याद है कि उन दिनों एक पुल बनाने के लिए पहाड़ी का एक हिस्सा बारूद से उड़ाया जा रहा था। धमाके के साथ रेत और धूल उड़ती थी, और कई परतों में हमारी बस्ती, घरों और घर के एक कमरे में धीरे-धीरे मरते बाबा के बदन पर जमा होती थी। बाप वहां से बहुत दूर मेरठ छावनी में था, फौज में। मां दोपहर में पहाड़ी के नीचे 'सेंटर' चली जाती थी- ऊंची दीवारों वाली वह सरकारी, सफ़ेद, बिल्डिंग जिसका कुछ बड़ा सा नाम था, लेकिन सब लोग उसे सिर्फ़ सेंटर कहते थे।
वहां हमारे जैसे घरों की औरतों को सिलाई-बुनाई या ऐसा ही कुछ काम सिखाते थे। बड़ा भाई भानू आवारागर्दी करता था, बहन दिनभर बस्ती के कच्चे किनारे कच्ची दीवारों वाले स्कूल में होती थी। घर में सिर्फ़ मैं रह जाता था और बूढ़ा बाबा। रोना चाहता था और कभी-कभी रोने कचहरी चला जाता था। जी, कचहरी। घर में किसी को नहीं पता और मेरे अलावा यह सिर्फ़ आप जानते हैं।
पहाड़ी से नीचे उतरकर एक सूखे, खाली मैदान को पार कर, 'सेंटर' को भी पार कर, पता नहीं कितनी दूरी चलने के बाद कचहरी आती थी। वह पुरानी इमारत थी, जिसके गलियारों में छांव और ठंडक रहती थी। वहां हमेशा भीड़ होती थी। फूस या लकड़ी के बहुत सारे खोखों में और उनके बाहर तिरपाल के नीचे तख़्त पड़े रहते थे और उन पर तालाबंद बक्से।
वहां वकील, नोटरी और टाइपिस्ट बैठते थे। सिपाही रस्सी में बांधकर मुजरिमों को लाते थे जिनके जिस्मों पर मारपीट के निशान होते थे। कुछ शांत दिखते थे, सिपाहियों से बीड़ी मांगकर पीते थे, लेकिन कुछ को वे घसीटते हुए लाते थे, रोते हुए मुजरिम, 'माफ़ कर दो सिपाही जी, माफ़ी दे दो बाबू साहब' कहते हुए।
कभी-कभी उनके घर वाले, रोती हुई औरतें और बच्चे, साथ-साथ चलते थे। उनके रोने में रोना मिलाकर मैं भी रो लेता था।
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