एपिसोड 1

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एपिसोड 1-5 : बस... दो चम्मच औरत
एपिसोड 6-11 : युद्ध और बुद्ध 
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इतना भर भी समय नहीं बचा था उसके पास कि ज़िंदगी की इस नई समझ को ज़िंदगी पर उतारा जाए। शायद इसी विरोधाभास और टकराव का नाम ही है ज़िंदगी, उसने सोचा और एक नज़र फिर फेंकी अपने सोए हुए देवर पर।

कहानी : बस... दो चम्मच औरत

देवर

ज़िंदगी के प्रति वह इतना ठंडा हो चुका था कि कोई लहर उसे ज़िंदगी की ओर वापस लौटा भी नहीं सकती थी। अरसे तक वह हाड़-मांस का जीवड़ा नहीं वरन् एक गहरी ठंडी उच्छवास ही था। ऐसे में भला कोई सोच भी कैसे सकता था कि इस चट्टान के नीचे भी इतनी जलतरंगें हैं। यह तो भला हुआ उस डायरी का जो न जाने कैसे खुली रह गई थी, जिसे जाने किन घायल और असावधान क्षणों में लिखने वाले ने कुछ टीपने के लिए अपने गुप्त तहखाने से बाहर निकाला और फिर चूक गया अपनी असह्य यातना के चलते... या कौन जाने उसी ने सचमुच उसे खुला छोड़ दिया हो अपने न होने के विरुद्ध अपने होने के प्रतिपक्ष में। 

बहरहाल... इस डायरी को पढ़ा उसकी भौजी ने। इसे पढ़ उसकी भौंहें उठीं, मुंह खुला का खुला रह गया। उसकी आत्मा में अजीब किस्म की खलबली मची। ज़िंदगी और देवर के प्रति उसकी राय बदली। ज़िंदगी ने पहली बार उसे अपने क़रीब खिसकाया और हर संभावनाओं की एक नई बारहखड़ी पढ़ाई। 

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पर अफसोस तब तक सचमुच देर बहुत हो चुकी थी। इतना भर भी समय नहीं बचा था उसके पास कि ज़िंदगी की इस नई समझ को ज़िंदगी पर उतारा जाए। शायद इसी विरोधाभास और टकराव का नाम ही है ज़िंदगी, उसने सोचा और एक नज़र फिर फेंकी अपने सोए हुए देवर पर।

कई बार उसे लगता जैसे यह पौने छह फीट का देवर नहीं, रिश्तेनुमा डोरियों की एक खूबसूरत झालर है जिसमें सारे रिश्ते गड्डमड्ड हो गए हैं। उसे याद आया, शादी के तुरंत बाद कैसे देवर एक खलनायक बन गए थे - उसके और नए-नवेले दूल्हे मियां के बीच। सुहागरात को भी नहीं बख्शा था मरजाने ने। वक़्त की धूल हटी कि यादें चमकीं। हंस पड़ी वह-कैसे बिस्तर के नीचे बिछा दिए पापड़ ही पापड़। जैसे ही बैठी वह कि चर्र-चर्र। झेंप गई वह बुरी तरह से, चारों तरफ गर्दन घुमाई, किसी ने सुन तो न ली वह चर्र-चर्र, उसे लगा जैसे उसके बैठने में ही है कोई खोट। थोड़ी देर बाद ही घुसे मेजर! फ़ौजी अंदाज में जैसे ही लेटे कि फिर चर्र-चर्र। रेशमी भावनाओं का झीना सा पर्दा बनते-बनते बिखर गया। झुंझलाकर सारे पापड़ नीचे फेंके उसने और जैसे ही करीब सरकने को हुए मेजर कि चीख उठा अलार्म। उफ! सारी रात धड़कता रहा उसका नन्हा सा कलेजा, फिर कोई खुराफ़ात न आ धमके दोनों के बीच। 

सुबह जब नटखट देवर ने ठुमकते हुए आंख नचाई और भौंह मटकाते हुए पूछा... कैसी बीती रात? पापड़ तो खूब खाए होंगे, अलार्म का संगीत भी खूब सुना होगा। तब जाकर समझी वह कि यह सारी कारस्तानी मेजर के दोस्तों की नहीं, देवर की ही थी। 

वक़्त के सबसे खूबसूरत परिंदे उड़ने लगे एक-एक कर! खुमारी भरे मयूरपंखी दिनों ने डाल दिया उसकी गोद में गोल-मटोल गुदगुदे नितिन को। स्रष्टा होने की गर्वभरी अनुभूति के साथ मेजर मनोहर सिंह राठौर ने जी भर निहारा भी न था नितिन को कि नई पोस्टिंग आ गई। और पोस्टिंग भी कहां- 14 राष्ट्रीय राइफल्स में, कश्मीर के सबसे संवेदनशील इलाके कंगन में। भारत सरकार की सबसे खतरनाक पोस्टिंग। पूरे घर को जैसे सांप सूंघ गया। अबीरी शाम देखते-देखते गहरी काली रात में तबदील हो गई। सारा घर हंसते-हंसते एकाएक खामोश हो गया। चलते-चलते ठिठक गया। पर मेजर हंसता रहा, समझाता रहा देवर को, उसको-जानती हो, अपन राजस्थान के हैं, जहां की तो रीति ही है कि हर परिवार अपने सबसे बड़े बेटे को सेना में भरती करवाता है, देश रक्षा के लिए। बात-बात में मेजर देवर के कान में फूंक मार गया था - जानते हो भाई, मैंने जानबूझकर राष्ट्रीय राइफल्स में पोस्टिंग मांगी क्योंकि अभी मेरी सबसे अधिक जरूरत कश्मीर में ही है। मैं उन सिरफिरे आतंकवादियों को बता देना चाहता हूं कि भारतीय समाज की पहचान प्रेम है, घृणा नहीं। वे चाहकर भी इसे छिन्न-भिन्न नहीं कर पाएंगे। 

मेजर के भीतर कुछ जोरों से धड़क रहा था जिसकी झलक भर पा सका था देवर उस दिन। मेजर का सर्वथा नया रूप। सेल्यूट किया उसने बड़े भाई को। नई शादी! नवेली दुल्हन और नवनीत सा बेटा, पर कुछ भी बांध नहीं पाया... कर्तव्य की ऐसी पुकार! देश सेवा का ऐसा जज्बा! ज़िंदाबाद भाई! माई ब्रदर, माई हीरो!! 

जाते वक्त मां की आंखें भर आईं। जाने कैसा तो कुविचार मन में आया-क्या फिर देख पाऊंगी लाड़ले को। जहां हर नुक्कड़ पर आतंकवादी, हर मस्जिद में बम-बारूद, हर मस्तिष्क में घृणा, क्या बच पाएगा उसकी आंखों का नूर? झड़-झड़ आंखों से ताका उसने बेटे की तरफ। बेटे ने मां को गले लगाते हुए धीमे से कहा-मां तुम तो मुझे जन्नत में भेज रही हो तो रो रही हो, सोचो भगत सिंह की मां ने तो उसे फांसी पर भेज दिया तो भी नहीं रोई। 

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मां आसमान से गिरी - यह क्या कह गया बेटा? 

भगत सिंह की मां से क्यों की उसकी तुलना? पहली बार रीढ़ की हड्डी में कुछ रेंगा। पहली बार कांपा उसकी भावनाओं का संसार। मन ही मन मन्नत मांगी जब तक सकुशल न लौट आए लाड़ला, मिठाई नहीं खाऊंगी। 

पर यथार्थ उतना भी बदरंग और दहशत भरा न था। शुरुआती दिन जरूर सहमे-सहमे से गुजरे, पर जेवर बने देवर उसे पल भर के लिए भी अकेला नहीं छोड़ते! पहला फोन आते-आते आया, पर इस बीच देवर ने नन्हे को कंधे पर लादे-लादे उसे पूरा अजमेर घुमा डाला- यह सोने की नसिया, यह अढ़ाई दिन का झोंपड़ा, यह पुष्कर, यह दौलतबाग! यह दरगाह! 

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