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"सम्भालो मोगरा यादों का सिरा, भरवां खरगोश न बन ले। पाठक मार मारेंगे।”

गुलमोहर और मोगरा 

कहानी कहने से पहले किरदार को नाम देना पड़ेगा। क़ायदा है। तो नाम रख देते हैं गुलमोहर। पता है भई, गुलमोहर नाम नहीं था उसका। कहानी लिखी थी उस नाम से। 

"हाँ, गुलदुपहरिया नाम से भी।”

"तय हुआ तब कि गुल से ख़ास लगाव रहा होगा उसे।”

''मानी तुम्हारी बात। गुलमोहर नाम है मौज़ू। ताप और जलते दिनों से भागने वालों में से नहीं थी वह। छाता ज़रूर लगा कर चलती थी, छोटी उम्र से ही। चेहरे की रंगत बिगड़ न जाए। आम हिन्दुस्तानी लड़की की तरह, काली नहीं गोरी कहलाना चाहती थी।

आम होना चाहने वाला इंसान कब खास बनने पर मजबूर हो जाए, कौन कह सकता है। बहुत कुछ छूटा उससे पर छाता न छूटा। पर इससे यह क़यास न लगा लेना कि वह ज़िन्दगी से ख़ुद को बचा कर चली। चेहरे की रंगत बचाना एक बात है, ज़िन्दगी को आँधियों से बचाना, दूसरी। मेरे हिसाब से जो डर कर भागने के बजाय, ताप-लू-गर्दिश को अपने हक़ में कर ले, वह है गुलमोहर। शोख और लचीला एक साथ। 

चेहरे की रंगत को ले कर हमेशा पशेमां रही पर हाथों की सुन्दरता पर नाज़ भी रहा। बहुत सुन्दर थे उसके हाथ, उसकी बहन मोगरा बतलाया करती थी। शोख़, मुँहज़ोर गुलमोहर और शर्मीली, मुँहचोर मोगरा। 

एक बार हुआ यूँ…

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"नहीं, आगे कहानी मोगरा सुनाएगी। सुनाओ न मोगरा, तुम बेहतर कहोगी।” 

"सो तो है, आख़िर हमने पूरी उम्र साथ काटी।”

"झूठ से न शुरु करो। साथ कहाँ काटी? शादी अलग मर्दों से हुई कि नहीं? शादी के बाद कहाँ साथ रहीं तुम?” 

"शादी अलग मर्दों से हुई तो क्या। पहला प्यार दोनों ने एक मर्द से किया । फ़र्क़ इतना था कि मैंने उसे ताक पर रख, दूर से निहारा और नायाब महसूसने का लुत्फ़ उठाया। प्यार जब तक एकतरफ़ा रहे, तभी तक लुत्फ़ देता है। जो मज़ा इन्तज़ार में है वगैरह। इश्क ऐसी बला है कि माक़ूल वक्त पर अलविदा न कहो और लुत्फ़ को ज़िन्दगी बन जाने दो, तो लील जाता है समूचा। गुलमोहर ने उसे वक़्ती न रहने दिया, लाइलाज रोग बना डाला। जी का जंजाल। काफ़ी क़ुसूर हमारी माँ का था। अजब रोमानी शै थीं। गुल के प्यार का पता क्या चला, ख़ुद मुहब्बत अदायग़ी पर उतर आईं। बार-बार कहें, प्यार किया है तो ज़ाहिर है शादी भी उसी से करोगी, चाहे ज़माना कितनी मुख़ालफ़त करे। मार-मार कर हकीम बनाने वाली मसल परवान चढ़ी। बेचारी गुल पहले प्यार को अमर प्रेम समझ बैठी। ख़ुद समझी या औरों पर रुआब डालने के क़िस्से में मारी गई, ठीक से कह नहीं सकती। मुहावरों का इस्तेमाल उसका मुझसे बेहतर था। प्यार अन्धा होता है; प्यार किया तो डरना क्या; प्यार में सबकुछ माफ़ होता है, वगैरह-वगैरह।

"सच, मोगरा? सच्ची तुम्हारा प्यार हुआ था उसी से, जिससे गुल ने ब्याह रचाया?”

"क्यों न होता? उस उम्र में जो पहले-पहल पहलू में आ बैठे, उसी से प्यार हो जाता है। जिस्म में एक अदद दिमाग़ रहे तो इंसान, पहले प्यार का रोमांच चख़ कर, रफ़ा-दफ़ा कर देता है, जैसे और बहुत शौक़ करता है। कुछ दिन शौक़ फ़रमाने के बाद, दूसरा पाल लेता है। पर यूँ तुम बात-बात पर सवाल करोगी तो कहानी आगे कैसे चलेगी? ऐसा करो, तुम्हीं सुनाओ।”

"नहीं, मोगरा तुम सुनाओ, चश्मदीद गवाह जो हो। शादी के बाद एक घर में भले न रही हों, दीदार और दख़ल दोनों बने रहे ता-उम्र।”

"ठीक है, पर टोका-टोकी नहीं।”

"बिल्कुल नहीं। तुम कहो, क्या हुआ था, कहो न।”

"कहती हूँ। सोचने दो, कहाँ से शुरु करूँ। याददाश्त बड़ी नामुराद चीज़ है। जब तक कपाट बन्द रहें, ठीक। खोल दो तो यादें यूँ लस्टम-पस्टम बाहर भागती हैं कि, सिरा पकड़ना मुश्किल हुआ जाता है।”  

"जैसे गुलमोहर की बुनाई, याद है?”

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"याद न होगी!”

फिर मोगरा और मैं मिल कर जो हँसे, लेखक-किरदार का फ़र्क़ मिट गया। बरजा उसीने। 

"कहा न, बीच में टोका-टोकी नहीं।”

कहा ज़रूर पर हँसना बन्द नहीं किया। गुल का स्वेटर बुनना याद आए तो कोई कैसे हँसी पर रोक लगाए। स्वेटर बुनने को ऊन खरीदती, घण्टों बाज़ार घूम कर। फिर फन्दे डलवाती मोगरा से। काम को बेहद ताम-झाम और करीने से आग़ाज़ दिया जाता। पर अंजाम किया होता? बीच बुनाई फ़न्दे घट जाते या बढ़ जाते। ठोकपीट,गिरा-बढ़ा, सम पर लाए जाते। जल्दी ही हिसाब दुबारा गड़बड़ा जाता। बहुत देर उसका सब्र नहीं टिकता। शुरु से बार-बार शुरु करने की फ़ितरत नहीं थी उसकी। तभी न पहले प्यार को जानलेवा उम्र क़ैद बना डाला। स्वेटर अलबत्ता चायदानी या भरवां खरगोश बन चुक जाता।

"सम्भालो मोगरा यादों का सिरा, भरवां खरगोश न बन ले। पाठक मार मारेंगे।”

"लो,पहली बात पहले। गुल के हाथ बहुत सुन्दर थे। लम्बी-स्तूपाकार उंगलियाँ, उभरे अंडाकार नाख़ून, ज़रा-सा लम्बा कर, जिन्हें गोलाई में तराश कर रखा करती थी। जब तक स्कूल में थी, मिस हुक्कू के डर से नेल पॉलिश लगाने का सवाल पैदा नहीं हुआ बल्कि लम्बे नाखूनों की वजह से, जब-तब पकड़ ली जाती। मिस हुक्कू थीं मादा कैप्टन हुक, वही पीटर पैन वाला समुद्री डाकू। कैंची से गुल के खूबसूरत नाखूनों का सिर क़लम करने में दिली मसर्रत महसूस करतीं। मज़ा यह कि हार गुल की नहीं, हुक्कू मास्टरनी की होती थी। गुल चाहे दिन भर के लिए रुआंसी रहती पर मिस हुक्कू की तरह पराजित नहीं, क्योंकि कटने के बावजूद, उसके नाखून औरों की बनिस्बत खासे पुरक़शिश लगते। मिस हुक्कू बेचारी को तक़लीफ़ देने की खुशी भी पूरी न मिल पाती। और कोई खुशी उनकी ज़िन्दगी में थी नहीं। 

कोई खुशी थी तो रोज़-दर-रोज़ लड़कियों के बालों में जुएं ढूँढने की। हफ़्ते-के-हफ़्ते, एक क्लास की लड़कियों की पेशी होती और जिन के सिरों में जूं बरामद होती, खूब ज़लील किया जाता। गन्दी, बेशर्म, जाहिल कहके, सरेआम, कार्बोलिक एसिड से सिर धुलवाया जाता। जिन के सिर पाक-साफ़ पाए जाते, वे ताली बजा-बजा कर उन्हें चिढ़ा कर गातीं, "गन्दी लड़की, छी-छी, गन्दी लड़की कूटो-मारो, धूप में खड़ा करो।" मिस हुक्कू का यही हुक्म था। गरमी-बरसात की परवाह किये बग़ैर, लड़कियों को सारा दिन धूप में खड़े रहना पड़ता। ख़ुशकिस्मत लड़कियाँ बेहोश हो कर गिर पड़तीं और टॉनिक की कड़वी ख़ुराक पी, निजात पा जाती। हम दोनों में से कोई कभी जो बेहोश हुआ हो। गुल लबेदम होती तो, धूप से चेहरे का रंग काला पड़ने के डर से। अपने खूबसूरत हाथों की आड़ दे, किसी तरह चेहरे को बचाए रखती।

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