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स्मृति अजीब तरीके से काम करती है। बहुत कुछ होता है जो जिया हुआ नहीं होता फिर भी स्मृति में रह जाता है। 

स्मृति

ये भी हैं ऐसे कई और भी मज़मूँ होंगे 

लेकिन उस शोख़ के आहिस्ता से खुलते हुए होंठ 

-फ़ैज़ 

‘…till the heart of me weeps to belong’ 

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-Lawrence 


जय पिछले सत्तर सालों से इसी शहर में था। वह और शहर दोनों साथ-साथ सत्तर साल घटे थे, यह जय को लगता था। वह एक पुराने मकान में रहता था। वह पुराना मकान एक पुरानी गली के मुहाने पर था। उस गली में एक ज़माने में जहाज़ी रहा करते थे - मछुआरे रहा करते थे। लंगर बनाने वाले कारीगर रहा करते थे। जाने उस ज़माने में वहाँ कैसी दुकानें रही होंगी, जाने कैसे मकान। 

जय की पहली याद में उस गली की शुरुआत में ही पान की एक बड़ी दुकान थी। पान वाला गूँगा था। एक टोकरी में लाल कपड़े में ढंके पान के पत्ते रखे रहते और बीच-बीच में वह उन पर पानी मारता रहता। उस पान की दुकान के बग़ल में एक किराने की दुकान थी। किराने की दुकान के बग़ल में एक लोहे-लक्कड़ की दुकान। उसके बग़ल में बीड़ियों की दुकान। उसके बग़ल में एक नाई ने अपनी दुकान जमाई थी। दूसरी तरफ़ पंक्तिबद्ध मकान जिनमें किसी में भी जय का कोई दोस्त नहीं रहता था। उन मकानों के रंग फीके थे, दरवाज़े भारी और लकड़ी के और जय की पहली याद में ही बने रहने थे। सत्तर सालों में सब कुछ बदल जाना था पर कथा को उधर जाने में वक़्त लगेगा। 

वह गली जिस मुख्य सड़क से सटी हुई थी, वह सड़क एक ज़माने में अपनी नर्तकियों के लिए प्रसिद्ध थी। जय की ज़िंदगी में भी एक नर्तकी आनी थी, पर यह वह क़िस्सा भी नहीं है। यहाँ याद आता है कि कमोबेश इसी समय में, दिल्ली में एक शायर हुआ करता था जो घर में बनी मस्जिद से ऊबा हुआ और शराब और दैहिक प्रेम खोजता हुआ एक नर्तकी के पास चला जाता था। नर्तकी को उसके जीवन में बहुत दिन नहीं टिकना था और विरह और प्रेम दोनों को एक-दूसरे का पर्याय बन जाना था। जय उस शायर से डरता था। उसकी तबीयत से डरता था। इस हद तक कि वह शायर जय का सबसे बड़ा रक़ीब बन गया। 

उस मुख्य सड़क के मकानों में झरोखे थे जहाँ वे नर्तकियाँ शामों को बैठा करतीं और उनका इंतज़ार करतीं जो फिटन में उन तक आया करते। शहर का वह कोना किसी ज़माने में अपनी शामों के लिए जाना जाता था। बाद में अंग्रेज़ों को भी शहर में आना था। इसी मोहल्ले के बग़ल में एक क़ब्रिस्तान बसाना था। वहाँ क़ब्रें होनी थीं। फिटनें जिन मकानों के आगे रुकतीं उनमें जो राग गाए जाते, शहर की हवा सालों उसी संगीत को ढोती रही थी। उन मकानों की दीवारें मोटी थीं, उनके खम्भे गोल और ऊँचे, उनके दालान खुले हुए, उनमें पड़ी आराम-कुर्सियाँ मज़बूत, नक़्क़ाशीदार लकड़ियों के फ़्रेम में कसी हुईं। जय को लगता यही लय उसको विरासत में मिली थी। जय को लगता कि बीते हुए का आग्रह बीतने वाले के सामने हमेशा बना रहता है। 

स्मृति अजीब तरीके से काम करती है। बहुत कुछ होता है जो जिया हुआ नहीं होता फिर भी स्मृति में रह जाता है। जैसे जय अब यह फ़र्क़ नहीं कर पाता कि उसकी स्मृति में जो जहाज़ है, जिसकी गीली लकड़ियाँ वह अक्सर ख़्वाब में देखता है, वह उसने कभी असल ज़िंदगी में देखा था या किसी और की स्मृति कोई ख़्वाब बन कर उस तक चली आयी थी। 

हम अपनी यादों पर कई खोल भी चढ़ाते रहते हैं, उनको तहों में समेटते रहते हैं, अपने हिसाब से उनको व्यवस्थित करते, अपने दिमाग़ में आगे-पीछे करते रहते हैं। सत्तर बरस का होते होते, ये तहें इतनी पक्की हो जाती हैं कि स्मृतियाँ सत्य में बदल जाती हैं। शीशे में देखता हुआ आदमी वही देखता है जो वह देखना चाहता है। कितना गहन होता है यह प्रेम जो आदमी अपनी स्मृति से करता है। वहीं वह केंद्र में होता है, संदर्भों के बदलते रहने के बावजूद, दुनिया के पेच-ओ-ख़म के बावजूद। 

जय ने अपनी रसोई में दो कप चाय बनाई। एक चीनी वाली और एक बिना चीनी की। जनवरी बीत रही थी। सुबह का वक़्त था। ठीक-ठाक ठंड थी। कुहरा इस बरस तो जा चुका था लेकिन उसने जिसको भी छुआ था, वह उसकी छुअन के सम्मोहन में अभी भी पड़ा हुआ था। शहर जितना भी पसर गया हो, जितना एलीयन हो गया हो, जय से जितना बिसर गया हो, ठंड में थोड़ा पास-पास लगता था। 

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ठंड जय का पसंदीदा मौसम था। रसोई की खिड़की का एक शीशा दरक गया था। उससे थोड़ा-थोड़ा शोर, थोड़ी-थोड़ी ठंड रिस रही थी। जय थोड़ी देर वहीं खड़ा चाय का सिप लेता रहा। घर के अधिकांश कमरे बंद थे। बहुत बड़े घर भी बूढ़े लोगों के ज़िम्मे ऐसे नहीं छोड़े जा सकते। दोनों ही एक बार में दृष्टि से लोप नहीं होते। धीरे-धीरे अदृश्य होते जाते हैं। 

जय ने दिन भर के अपने कामों के बारे में सोचा। सत्तर की उम्र में उसने फिर से कर्कगार्ड को पढ़ने का सोचा था। “आइदर ऑर” का एक सुंदर सजिल्द एडिशन मंगाया था। वह गुलाब भी उगाना चाहता था। उसने बिना चीनी की चाय वाला कप उठाया और हॉल को पार करता, सहर के कमरे की ओर बढ़ा।

एक दुनिया, एक पूरी कायनात के वजूद के लिए एक बहुत छोटा-सा कारण भी काफ़ी होता है। एक आदमी अपनी ज़िंदगी का अर्थ कैसे बनाता है? पूरी की पूरी ज़िंदगी ख़ुद से अजनबी बन कर बिताई जा सकती है। पूरी की पूरी ज़िंदगी निर्वासन में गुज़ारी जा सकती है। या तो पूरी ज़िंदगी हम खो गए घर की तलाश में भटकते हैं या फिर किसी घर के मिलने की उम्मीद में। एक आदमी अपनी ज़िंदगी का अर्थ कैसे बनाता है? जो बीत गया, वह फिर से नया हो जाता है क्या? या जो बीत गया वह स्मृति में जितनी बार बीतता है, उतनी बार नया होता है? क्या आत्मबोध बहुत बड़ा शब्द है?

सहर को देर तक सोने की आदत थी। जय ने उसकी गर्दन पर से थोड़े बाल हटाए। जय के हाथ ठंडे थे। सहर थोड़ी कसमसाई। जय ने चाय का कप बेड स्टैंड पर रखा। वह सहर की ओर झुका। उसकी गर्दन पर एक सूखा चुम्बन दिया।  

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