एपिसोड 1

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अनुक्रम

एपिसोड 1 : 61 डाउन
एपिसोड 2 : उसने कहा था
एपिसोड 3 : इंद्रधनुषों का घर 
एपिसोड 4 : आगरे में स्पेन की लड़की
एपिसोड 5 : एक अमानती मोबाइल फ़ोन का क़िस्सा
एपिसोड 6 : एक क़स्बे का नदी-किनारा
एपिसोड 7 : किताब में गुलाब
एपिसोड 8 : एक तालाब फूटने की रिपोर्टिंग
एपिसोड 9 : एक पागल औरत का क़िस्सा
एपिसोड 10 : किताबघर
एपिसोड 11 : किताबों की दुकान में चाकरी 
एपिसोड 12 : चाय-उस्ताद
एपिसोड 13 : जूतों पर पॉलिश
एपिसोड 14 : ग्रीनी का झूला
एपिसोड 15 : त्रिलोक नाथ की फ़ज़ीहत
एपिसोड 16 : नमक का क़र्ज़
एपिसोड 17 : नेमि चंद्र की कथा
एपिसोड 18 : पिक्चर देखने जाना
एपिसोड 19 : प्रेम के चूके हुए अवसर
एपिसोड 20 : मनसुखभाई की सीख और दूसरी सीखें
एपिसोड 21 : मेरी पहली रचना
एपिसोड 22 : राजहंस का जोड़ा
एपिसोड 23 : लखनऊ आउटर का लैम्प पोस्ट
एपिसोड 24 : रावण आया!
एपिसोड 25 : लड़की स्कूल की माया
एपिसोड 26 : लव इन यूथ फ़ेस्ट
एपिसोड 27 : स्कूल
एपिसोड 28 : हुकुम सेठ और पंड्या जी

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उन दिनों मैं यही सोचता कि अगर कोई मुझसे कहे एक वरदान मांगो तो मैं कहूं - रेलगाड़ी में जो खिड़की वाली सीट है, वो उसके लिए!

61 डाउन


इंदौर एक बहुत बड़ा चुम्बक है। उसके आसपास के तमाम छोटे-मोटे गांव, क़स्बे, शहर उन कीलों की तरह हैं, जो उसकी तरफ़ खिंचे चले जाते हैं। उज्जैन इनमें प्रमुख है। रोज़ सुबह उज्जैन से जाने कितने जन नौकरी या पढ़ाई की ग़रज़ से इंदौर जाते और शाम होते-होते लौट आते। इन अपडाउनर्स के लिए ही बड़े सवेरे एक रेलगाड़ी चलती, जो शटल कहलाती। फिर कुछ और डाउन गाड़ियां, जो मुल्क भर के शहरों से इंदौर लौट रही होतीं। फिर, सुबह सुबह ही बम्बई से लौट रही अवंतिका एक्सप्रेस उज्जैन के प्लेटफ़ॉर्म पर आ खड़ी होती। इस ट्रेन का नम्बर 12961 था, लेकिन मैं इसे 61 डाउन कहता था।

मैं इसी अवंतिका से इंदौर जाता था। इसी से जाती थी वह भी।

दरमियानी क़द। गेहुंआ रंग। काजल अंजी भूरी आंखें। चेहरे पर बैंजनी रूमाल। हाथ में दस्ताने। कंधे पर बस्ता। रेलगाड़ी में बहुत रेलमपेल रहती। बैठने को जगह ना मिलती। धक्का-मुक्की चलती। वह उन सबके बीच पिसती रहती। उसकी आंखें तब मुझको बहुत कातर जान पड़तीं।

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मैं उसे देखता। मेरा यों देखना उसे विकल करता। वह नज़र घुमा लेती। यों लड़कियां इस भेद को बूझ लेती हैं कि कौन लालसा से देख रहा है, कौन लगाव से। वह भी जानती ही होगी, तब भी ख़ुद को जज़्ब करके रखती। 

धीरे-धीरे मुझको अनुभव हुआ, मेरा मन उसकी तरफ़ खिंचने लगा है। जिस दिन वह नहीं आती, मैं उसका रास्ता तकता। रेलगाड़ी की सीटी बज गई है, वह अभी तक नहीं आई। दरवाज़े पर हलचल हुई है, देरी से आए अपडाउनर्स का एक जत्था डिब्बे में घुस आया है, सबसे आख़िर में आई है वह, और अब मैं मुस्करा दिया हूं। वह एक कोने में खड़ी हो गई। चेहरे पर रूमाल बांध लिया है। और उसकी काजल सनी आंखों में जाने क्यूं इतनी करुणा!

तभी मेरा मन करता कि अगर कोई मुझसे कहे कि एक वरदान मांग लो तो मैं कहूं - रेलगाड़ी में जो खिड़की वाली सीट है, वह रोज़ उसके लिए सहेज रख लूं। इससे ज़्यादा कुछ नहीं।

कितनी तो ख़ाली जगहें इस दुनिया में पड़ी हैं। सांय-सांय करते वीराने। कभी ख़त्म न होने वाले जंगल, सहरा, जज़ीरे। एक बित्ते भर की जगह क्या इस रेलगाड़ी में नहीं हो सकती, जहां वह चैन से बैठ सके?

स्टेशन पर वह उतरती। मैं भी उतरता। यशवंत टॉकिज़ की ओर चलती। मुझे भी उसी दिशा जाना होता। फिर रीगल चौराहे की ओर। फिर बस स्टॉप पर जाकर नौ नम्बर की सिटी बस का इंतज़ार। अकसर बस में भी हम साथ ही सवार होते। उसे महसूस होता कि उसका पीछा किया जा रहा है। जबकि बात केवल इतनी भर थी कि हम दोनों के रास्ते एक-दूसरे से टकरा गए थे।

उन दिनों मैं डायरियां लिखता था। धीरे-धीरे मेरी डायरी उसके ब्योरों से भर गई। मैं उसमें लिखता कि आज उसने क्या पहना था, कैसी दिख रही थी, आज क्या हुआ, कब आई, कैसे बस स्टॉप तक हम साथ रहे। जब वह डायरी भर गई तो मुझको लगा मैं बहुत अकेला हो गया हूं। मैं उस अकेलेपन को अपने तक नहीं रख सकता था, इसलिए तय किया यह डायरी उसे सौंप दूंगा।


मैंने डायरी के आख़िरी पन्ने पर लिखा - "मेरा नाम सुशोभित है, अगर आपको मुझसे बात करनी है तो यह उसका ज़रिया है!" उसके आगे मेरा फ़ोन नम्बर। 

किंतु यह इतना सरल कहां। उधेड़बुन में ही कितने दिन बीत गए। हिम्मत जुटाने में दम फूल गया। एक दिन तय करके आया कि आज यह डायरी सौंप ही दूंगा। रेल से उतरते ही डायरी हाथ में ले ली। पूरे रास्ते उसे हाथ में लेकर चलता रहा। बस में बैठा। वहां भी पूरे समय डायरी हाथ में। बस रुकी। मैं उसके पास गया और बोला - "यह आपके लिए है।" वह चौंक गई। सब हमारी तरफ़ देखने लगे। "यह क्या है", उसने पूछा। "कुछ नहीं, कुछ भी तो नहीं", मैंने कहा, और उतर गया। बस आगे बढ़ गई। मैं देर तक बस की पीठ को धड़कते दिल से निहारता रहा। मेरे घुटने कांप रहे थे।

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अगले दिन रेलगाड़ी में उसे देखा तो लगा जैसे मैं उसका अपराधी हूं। वह असहज थी। मैंने संकोच से सिर झुका लिया। कुछ दिनों यही खटास में बीते। मैं उसके फ़ोन का इंतज़ार कर रहा था लेकिन फ़ोन नहीं आया। फिर एक दिन की बात है। रेलगाड़ी में ख़ूब जगह थी। वह अपर बर्थ पर बैठी थी। मैं साइड बर्थ पर था। उसने कुछ खाने को अपना बैग खोला तो सहसा मुझे अपनी स्पाइरल वाली नीली डायरी उसके बैग में रखी दिखाई दी। मेरा दिल धक्क से रह गया।

तब जाकर मैं इस बात को महसूस कर पाया कि जिस डायरी को मैं रात-दिन इतने विकल अनुराग से लिख रहा था, वह आज उसके पास है। क्या वह उसे पढ़ती होगी? पढ़कर मुस्कराती होगी? क्या यह तमाम बातें उसके लिए कोई मायने रखती होंगी? पता नहीं। इस बात को वही महसूस कर सकते हैं, जिन्होंने किसी चीज़ को ख़ूब लगाव से अपने पास रखा हो, फिर उसको किसी को सौंप दिया हो, और फिर बहुत दिनों बाद एक मायूस दूरी से उसे ताका हो और एक मीठी ख़लिश के साथ सोचा हो कि जगहें अब बदल गई हैं, वो चीज़ अब तुम्हारी नहीं रही। 

फिर, इसको भी बहुत दिन बीत गए। उस दिन रेलगाड़ी देरी से चल रही थी। मांगलिया पर रुकी रही। फिर लक्ष्मीनगर पर लम्बी क्रॉसिंग में फंस गई। रेंगते-रेंगते इंदौर पहुंची। एक-एक कर सब उतरे। वह नहीं उतरी। मैं भी बैठा रहा। मैं हमेशा उसके बाद ही उतरता था। जब सब चले गए तो मुझे लगा जैसे मेरी चोरी पकड़ा गई हो। कोई चारा न था तो मैंने अपना बैग उठाया और उतरने को हुआ कि उसने मुझे पुकारा - "सुनिये!" मैंने लौटकर देखा - वह मुस्करा रही थी। उसके हाथ में मेरी डायरी थी। उसने हाथ बढ़ाया और डायरी मुझे लौटा दी। दो पल मुझे देखती रही। मैं उसकी आंखों को पढ़ने की कोशिश करता रहा, लेकिन मुझे कोई जवाब नहीं मिला। फिर वह उतर गई। मैंने कांपते हाथों से डायरी के पन्ने उलटाकर देखा कि क्या उसमें कोई जवाबी ख़त है। कहीं कोई ख़त नहीं था। कोई संदेशा नहीं था। उसे मुझसे कुछ नहीं कहना था। उसके पास केवल एक मुस्कराहट थी। बात ख़त्म हो गई थी।

मुस्कराहटों का मतलब हां भी होता है, ना भी होता है, और "कुछ नहीं" भी होता है। यह "कुछ नहीं" वाली मुस्कराहट थी। ठीक वैसे ही, जैसे मेरी डायरी कुछ नहीं थी - "कुछ नहीं, कुछ भी तो नहीं!" तब मैंने अपना रास्ता बदल लिया। मन बदल नहीं सकता था तो उसको किताबों में रोप दिया। किताबों में मुस्कराहटें नहीं थीं, स्याही के दाग़ थे। स्याही के दाग़ मेरी डायरी में भी थे। वह डायरी अब लौटकर मेरे पास आ चुकी थी। किंतु अब उसके भीतर कोई हूक नहीं थी। वह अब केवल एक लौटाई गई चीज़ थी। लौटाई गई चीज़ों के साथ जीना कठिन होता है, इसलिए मैंने उसे छुपाकर रख दिया। 

आज भी जब-तब वह डायरी घर के सामान-बदल में कहीं मिल जाती है तो कौतूहल से उसको देखता हूं और ख़ुद से पूछता हूं - एक सदी पहले इस डायरी से जो मन विकल होकर बंध गया था, उसका फिर क्या हुआ?


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