एपिसोड 1

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अनुक्रम: 

एपिसोड 1-5 : प्रेरणा
एपिसोड 6-8 : सद्गति
एपिसोड 9-11 : तगादा
एपिसोड 12-17 : दो क़ब्रें
एपिसोड 18-25 : ढपोरसंख
एपिसोड 26-27 : डिमॉन्सट्रेशन
एपिसोड 28-30 : दारोगाजी
एपिसोड 31-32 : अभिलाषा
एपिसोड 33-36 : खुचड़
एपिसोड 37- 44: आगा-पीछा
एपिसोड 45-48 : प्रेम का उदय
एपिसोड 49-51 : सती
एपिसोड 52-57 : मृतक-भोज
एपिसोड 58-62 : भूत
एपिसोड 63-64 : सवा सेर गेहूँ
एपिसोड 65-66 : सभ्यता का रहस्य
एपिसोड 67-68 : विषम समस्या
एपिसोड 69-73 : मांगे की घड़ी
एपिसोड 74-78 : स्मृति का पुजारी

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यों तो सारा स्कूल उससे त्राहि-त्राहि करता था, मगर सबसे ज़्यादा संकट में मैं था, क्योंकि वह मेरी कक्षा का छात्र था और उसकी शरारतों का कुफल मुझे भोगना पड़ता था।

कहानी: प्रेरणा

उपदेश 

मेरी कक्षा में सूर्यप्रकाश से ज़्यादा ऊधमी कोई लड़का न था, बल्कि यों कहो कि अध्यापन-काल के दस वर्षों में मेरा ऐसी विषम प्रकृति के शिष्य से साबका न पड़ा था। कपट-क्रीड़ा में उसकी जान बसती थी। अध्यापकों को बनाने और चिढ़ाने, उद्योगी बालकों को छेड़ने और रुलाने में ही उसे आनन्द आता था।

ऐसे-ऐसे षड्यंत्र रचता, ऐसे-ऐसे फंदे डालता, ऐसे-ऐसे बंधन बाँधता कि देखकर आश्चर्य होता था। गिरोहबंदी में अभ्यस्त था। खुदाई फ़ौजदारों की एक फ़ौज बना ली थी और उसके आतंक से शाला पर शासन करता था। मुख्य अधिष्ठाता की आज्ञा टल जाए, मगर क्या मजाल कि कोई उसके हुक्म की अवज्ञा कर सके। 

स्कूल के चपरासी और अर्दली उससे थर-थर काँपते थे। इंस्पेक्टर का मुआयना होने वाला था। मुख्य अधिष्ठाता ने हुक्म दिया कि लड़के निर्दिष्ट समय से आधा घंटा पहले आ जाएं। मतलब यह था कि लड़कों को मुआयने के बारे में कुछ ज़रूरी बातें बता दी जाएं, मगर दस बज गए, इंस्पेक्टर साहब आकर बैठ गए, और मदरसे में एक लड़का भी नहीं। 

ग्यारह बजे सब छात्र इस तरह निकल पड़े, जैसे कोई पिंज़रा खोल दिया गया हो। इंस्पेक्टर साहब ने कैफ़ियत में लिखा, डिसिप्लिन बहुत ख़राब है। प्रिंसिपल साहब की किरकिरी हुई, अध्यापक बदनाम हुए और यह सारी शरारत सूर्यप्रकाश की थी मगर बहुत पूछ-ताछ करने पर भी किसी ने सूर्यप्रकाश का नाम तक न लिया। 

मुझे अपनी संचालन-विधि पर गर्व था। ट्रेनिंग कॉलेज में इस विषय में मैंने ख्याति प्राप्त की थी, मगर यहाँ मेरा सारा संचालन-कौशल जैसे मोर्चा खा गया था। कुछ अक्ल ही काम न करती कि शैतान को कैसे सन्मार्ग पर लाएं।

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कई बार अध्यापकों की बैठक हुई, पर यह गिरह न खुली। नई शिक्षा-विधि के अनुसार मैं दंडनीति का पक्षपाती न था, मगर यहाँ हम इस नीति से केवल इसलिए विरक्त थे कि कहीं उपचार से भी रोग असाध्य न हो जाए। 

सूर्यप्रकाश को स्कूल से निकाल देने का प्रस्ताव भी किया गया, पर इसे अपनी अयोग्यता का प्रमाण समझकर हम इस नीति का व्यवहार करने का साहस न कर सके। बीस-बाईस अनुभवी और शिक्षाशास्त्र के आचार्य एक बारह-तेरह साल के उद्दंड बालक का सुधार न कर सकें, यह विचार बहुत ही निराशाजनक था। 

यों तो सारा स्कूल उससे त्राहि-त्राहि करता था, मगर सबसे ज़्यादा संकट में मैं था, क्योंकि वह मेरी कक्षा का छात्र था और उसकी शरारतों का कुफल मुझे भोगना पड़ता था। मैं स्कूल आता तो हरदम यही खटका लगा रहता था कि देखें आज क्या विपत्ति आती है। 

एक दिन मैंने अपनी मेज़ की दराज़ खोली, तो उसमें से एक बड़ा-सा मेंढक निकल पड़ा। मैं चौंककर पीछे हटा तो क्लास में शोर मच गया। उसकी ओर सरोष नेत्रों से देखकर रह गया। सारा घंटा उपदेश में बीत गया और वह पट्ठा सिर झुकाए नीचे मुस्करा रहा था। मुझे आश्चर्य होता था कि यह नीचे की कक्षाओं में कैसे पास हुआ था।

एक दिन मैंने गुस्से से कहा, 'तुम इस कक्षा से उम्र भर नहीं पास हो सकते।'
सूर्यप्रकाश ने अविचलित भाव से कहा, 'आप मेरे पास होने की चिन्ता न करें। मैं हमेशा पास हुआ हूँ और अबकी भी हूँगा।'
'असम्भव!'
'असम्भव सम्भव हो जाएगा!'

मैं आश्चर्य से उसका मुँह देखने लगा। ज़हीन से ज़हीन लड़का भी अपनी सफलता का दावा इतने निर्विवाद रूप से न कर सकता था। मैंने सोचा, वह प्रश्न-पत्र उड़ा लेता होगा। मैंने प्रतिज्ञा की, अबकी इसकी एक चाल भी न चलने दूँगा। देखूँ, कितने दिन इस कक्षा में पड़ा रहता है। आप घबड़ाकर निकल जाएगा।

वार्षिक परीक्षा के अवसर पर मैंने असाधारण देखभाल से काम लिया, मगर जब सूर्यप्रकाश का उत्तर-पत्र देखा तो मेरे विस्मय की सीमा न रही। मेरे दो पर्चे थे, दोनों ही में उसके नम्बर कक्षा में सबसे अधिक थे। मुझे खू़ब मालूम था कि वह मेरे किसी पर्चे का कोई प्रश्न भी हल नहीं कर सकता। 

मैं इसे सिद्ध कर सकता था मगर उसके उत्तर-पत्रों का क्या करता! लिपि में इतना भेद न था जो कोई संदेह उत्पन्न कर सकता। मैंने प्रिंसिपल से कहा तो वह भी चकरा गए मगर उन्हें भी जान-बूझकर मक्खी निगलनी पड़ी। मैं कदाचित स्वभाव ही से निराशावादी हूँ। 

अन्य अध्यापकों को मैं सूर्यप्रकाश के विषय में ज़रा भी चिंतित न पाता था। मानो ऐसे लड़कों का स्कूल में आना कोई नई बात नहीं, मगर मेरे लिए वह एक विकट रहस्य था। अगर यही ढंग रहे तो एक दिन या तो जेल में होगा या पागलख़ाने में।

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उसी साल मेरा तबादला हो गया। यद्यपि यहाँ की जलवायु मेरे अनुकूल थी। प्रिंसिपल और अन्य अध्यापकों से मैत्री हो गई थी, मगर मैं अपने तबादले से ख़ुश हुआ क्योंकि सूर्यप्रकाश मेरे मार्ग का काँटा न रहेगा। लड़कों ने मुझे बिदाई की दावत दी और सब-के-सब स्टेशन तक पहुँचाने आए। उस वक़्त सभी लड़के आँखों में आँसू भरे हुए थे। 

मैं भी अपने आँसुओं को न रोक सका। सहसा मेरी निगाह सूर्यप्रकाश पर पड़ी, जो सबसे पीछे लज्जित खड़ा था। मुझे ऐसा मालूम हुआ कि उसकी आँखें भी भीगी थीं। मेरा जी बार-बार चाहता था कि चलते-चलते उससे दो-चार बातें कर लूँ। 

शायद वह भी मुझसे कुछ कहना चाहता था, मगर न मैंने पहले बात की, न उसने। हालाँकि मुझे बहुत दिनों तक इसका खेद रहा। उसकी झिझक तो क्षमा के योग्य थी पर मेरा अवरोध अक्षम्य था। 

संभव था, उस करुणा और ग्लानि की दशा में मेरी दो-चार निष्कपट बातें उसके दिल पर असर कर जातीं मगर इन्हीं खोए हुए अवसरों का नाम तो जीवन है। गाड़ी मंदगति से चली। 

लड़के कई क़दम तक उसके साथ दौड़े। मैं खिड़की के बाहर सिर निकाले खड़ा था। कुछ देर मुझे उनके हिलते हुए रूमाल नज़र आए। फिर वे रेखाएं आकाश में विलीन हो गईं मगर एक अल्पकाय मूर्ति अब भी प्लैटफ़ॉर्म पर खड़ी थी। 

मैंने अनुमान किया, वह सूर्यप्रकाश है। उस समय मेरा ह्रदय किसी विकल कै़दी की भाँति घृणा, मालिन्य और उदासीनता के बंधनों को तोड़-तोड़कर उसके गले मिलने के लिए तड़प उठा।

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