एपिसोड 1

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अनुक्रम

एपिसोड 1-2 : वॉकआउट
एपिसोड 3-4 : तुलसी के बहाने
एपिसोड 5-6 : नामंज़ूर
एपिसोड 7-11 : प्रेम की इबारत, चमकीला फ़रेब और परकाया प्रवेश
एपिसोड 12-17 : लोग कहते हैं

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टेलीविज़न पर बार-बार अभिनेत्री की मृत्यु की ख़बर रेणु के नाजु़क मन पर प्रहार कर रही थी।  ठीक उन्हीं दिनों रेणु अपनी तुलना उस अभिनेत्री से करने लगी। क्षणांश में उसने यही सोचा, वह भी एक दिन इसी गति से दुनिया से ओझल हो जाएगी।  

कहानी: वॉकआउट

इंतज़ार

'दर्शक अक्सर निष्पक्ष फै़सलों के साथ, अन्याय का इज़हार करते हैं'
- हेलेन विल्स मूडी

हमारी सबसे प्रिय चीज़ अक्सर ही हमसे दूर छिटक जाती है, ठीक वैसे ही जैसे जीवन से अथाह प्रेम करने वालों को जीवन से दूर चले जाना पड़ता है। उसे भी जीवन से असीम प्रेम था, जीता-जागता शारीरिक प्रेम। 

अपने आख़िरी दिनों में वह जीवन से अधिक क़रीब हो गई थी और मैं उसके बेहद क़रीब। इतना नज़दीक कि उसका जीवन मेरे लिए मेरा आईना हो गया था। 

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लेकिन जिस तरह आईने में अपने चेहरे पर उगती हुई सिलवटों को हम पकड़ नहीं पाते, मैं भी उसके जीवन की सिलवटों को थामने में पूरी तरह से असमर्थ थी। उसके चले जाने के बाद सूनी सड़क की तरह उसका जीवन अब मेरे सामने से गुज़र रहा है।  

हम दोनों की दोस्ती का क़द बचपन से जवानी तक की लम्बाई लिए हुए था। यदि तीस साल को जवान कहते हो तो छः महीने पहले हम दोनों जवान थीं और खू़बसूरत भी। दसवीं  के इम्तिहान के बाद उसके पिता का तबादला ग्वालियर हो गया और मैं दिल्ली निफ़्ट में दाख़िला लेने तक अपने शहर कानपुर में ही रही। 

दूरी के बावजूद मन के भीतर हमारी दोस्ती का जल बेरोक-टोक गतिमान रहा। एक सुहाने संयोग के तहत पंद्रह साल बाद, रेणु और मेरा रैन-बसेरा दिल्ली में बना, उस समय तक हम दोनों का जीवन एक बड़ा-सा चक्कर काट चुका था। 

चूंकि हमारे जीवन की धुरी बचपन पर टिकी थी, सो जीवन के इस दूसरे मोड़ पर आकर हमारी दोस्ती का रंग फिर से चटख होने लगा। 

मैं अपने बूटीक के कामों में  व्यस्त रहती और रेणु अपनी पढ़ाई में। नई मुलाक़ातों के ज़रिये हमारी दोस्ती की चाशनी फिर से गाढ़ी होने लगी। 

रेणु, मेरी पुरानी दोस्त, रेणु… मेरी नई हमदम। वह मनोविज्ञान में शोध कर रही थी। सिगमंड फ्रायड, कार्ल रोजर्स, कन्फ्यूशियस, नीत्शे के फ़लसफ़ों के भीतर रेणु के ज़रिये ही मैंने डुबकी लगाई। 

उसे मोटी जिल्द वाली किताबों में घंटों डूबे हुए, लाल, नीले, पीले, हरे रंग के कलमों से नोट्स बनाते हुए देखना मुझे सुहाता था। बातचीत के दौर में मैं उसे सुमित से जुड़ी हुई सारी बातें बताती पर उसने अपने प्रेम को मुझसे दूर ही रखा। उसके इस बर्ताव के कारण कभी-कभी मैं सोचती, ‘क्या हम वयस्कों की तरह, निजता का मान रखने के शिष्टाचार निभाने की उम्र में आ चुके हैं?’

दोस्ती में कैसा दुराव-छिपाव? 

इस साल के शुरुआती दिनों में रेणु की तबियत कुछ उखड़ी-उखड़ी सी रहने लगी है। उसका बचपन बहुत वाचाल था और मैं बेहद घुन्ने स्वाभाव की बच्ची मानी जाती थी, मगर अब हम दोनों के स्वभाव ने इस मोड़ पर आकर करवट ले ली थी। उसका छिपाना और घंटों चुप रहना मुझे परेशान करने लगा। तब तक मैं नहीं जानती थी कि रेणु के जीवन में ‘प्रेम’ एक बहेलिया बनकर आ चुका है और अब वह प्रेम जाल की परकटी पंछी है। और उस पर रेणु के पास बेहद  संवेदनशील मन का होना ही बेहद दुखदाई था। मैं केवल साक्षी बन देखा करती थी, प्रेम के दृश्य उसे बेतरह रुला देते, देवदास-पारो का सात्विक प्रेम उसके रोंगटे खड़े कर देता था। नायिकाओं के एकनिष्ठ प्रेम पर वह गर्वित होती। 

बार-बार संवेदनशील और उदास कर देने वाली फ़िल्में देखती और घंटों सन्न रहती, जैसे प्रेम में पड़ना और उसी में डूबे रहना उसे सुहाने लगा हो। मैं लगातार महसूस कर रही थी कि वह अब जीवन से विपरीत जाने वाले रास्ते पर चल रही है। सर्दियों में जैसे ठंड शरीर के भीतर जम जाती है, रेणु की देह के भीतर प्रेम जमने लगा था और वह प्रेम में दुनिया के सारे नदी-नाले टाप डालने की कल्पना करती थी। उसका अथाह प्रेम-भाव ही पागलपन को अपने पीछे ले आया था। वह फ़ॉकनर और सिल्विया की उदास कविताओं की आड़ में अभिजीत के यादों की परिक्रमा करती और सच की जली राख के ढेर पर बैठा हुआ था अभिजीत। मन से खाली और आँखों में नमी लिए हुए अभिजीत। सपनों को फ़रेब समझने वाला अभिजीत। 

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यह उन दिनों की बात है जब बॉलीवुड की एक पुरानी हीरोइन की अकेलेपन में हुई मृत्यु की ख़बर को हर टीवी चैनल नमक-मिर्च के साथ दिखा रहे थे, जो अपने फ़्लैट में निपट अकेली मृत पाई गयी थी, गैंगरीन से उसके दोनों पाँव सड़ चुके थे। अभिनेत्री के मृत शरीर के चारों तरफ़ लम्बे, छोटे बदसूरत कीड़े ही कीड़े दिख रहे थे। एक बड़े राजघराने की खू़बसूरत नायिका, जिसका शोख़ जीवन कभी सबको लुभाया करता था, अब बिना किसी अपने के अनजान कंधों पर श्मशान जा रही थी। 

टेलीविज़न पर बार-बार अभिनेत्री की मृत्यु की ख़बर रेणु के नाजु़क मन पर प्रहार कर रही थी। ठीक उन्हीं दिनों रेणु उस अभिनेत्री से अपनी तुलना करने लगी। क्षणांश में उसने यही सोचा, वह भी एक दिन इसी गति से दुनिया से ओझल हो जाएगी।  बस उस ख़बर की छाया ही रेणु को निगल गई। उसके बाद वह पानी में बताशे की तरह घुलती गई। मैं बेबस उसे गलते हुए देखती रही। मैंने उसे बार-बार कहा, ‘धीरज रखो,  इंतज़ार करो समय सब कुछ ठीक करेगा’, पर मैंने पाया कि वक़्त से रेणु को कुछ ख़ास आशाएं नहीं थीं। इंतज़ार के जल के बिना उम्मीद की जड़ें सूख जाती हैं और उम्मीद के बिना जीवन भोथरा हो जाता है। मगर रेणु को इंतज़ार नहीं सुहाता था और आख़िर वह इंतज़ार करती भी किसका?

जब इंतज़ार एक फ़रेब के सिवा कुछ नहीं था। जब रेणु को अपनी मनचाही दुनिया नहीं मिल पाई तो उसने अपनी दुनिया खु़द बनानी चाही, जहाँ कोई दूसरा नहीं था। वह अकेली ही थी, केवल वह। उसकी यह नई दुनिया आत्मघाती, आत्मविनाश की दुनिया थी। याद है एक दिन ऐसे ही किसी बातचीत के सिलसिले में उसने ग़मगीन होते हुए कहा था, ‘जानती हो शोभना, गोरख पाण्डेय ने कहीं लिखा था 'जो प्रेम को सबसे अधिक महसूस करने की क़ूवत रखता है उसे ही प्रेम नहीं मिलता’।’ उस वक़्त मैं रेणु के कहे इस वाक्य की जड़ तक नहीं पहुंच पाई थी पर उसकी मृत्यु के बाद यह कथन कई बार मेरी आत्मा को छू कर निकल गया है। मुझ से बेहतर कौन जानता था कि रेणु को प्रेम चाहिए था, रुई के फाहे जैसा प्रेम, बच्चों के खिलौने जैसा मासूम प्रेम। लेकिन उसका प्रेम आसमान में पतंग की तरह उड़ रहा था और रेणु के नज़दीक ऐसी कोई डोर नहीं थी, जिससे वह अपने प्रेम को लपेट सके।  

दुखी मन से मैं रेणु को प्रेम की राह पर चलते हुए और रपटते हुए देखती। उसके प्रेम का अपना संसार, बनता- बिगड़ता हुआ संसार था, जिसकी ज़मीन लगभग बंजर थी,  जिस पर वह कुछ रोपने की हर संभव कोशिश कर रही थी। उसका प्रेम अनोखा था, उस हवा-सा जो चुपके से सनसनाता हुआ कानों के पास से गुज़र जाए लेकिन अपनी मुकम्मल छाप अंकित ना कर सके। 

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