एपिसोड 1

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सचमुच मां मम्मी से ज़्यादा अच्छी लगती है। बस, एक खुली-खिली सी मुस्कान भर दिख जाये इस मां के चेहरे पर।

मम्मी नहीं, मां 

इस घर में चूहे ही चूहे हैं… इंसान यहां रहे तो कैसे? 

पापा पहले खीझ कर बोलते हैं, फिर बुदबुदाते हैं, आखिर चूहे आते क्यों हैं, कभी सोचा है? जब घर गंदगी से अटा-पटा रहता है, तब!

पापा हमेशा दांत पीसते हुए ही क्यों बोलते हैं, समझ में नहीं आता। पर शब्द हैं कि अंदर नहीं पिसते, बाहर आते हैं और घर की सारी पुरानी धूल खायी चीज़ों पर उफनने लगते हैं।

पता नहीं इस उफान का इस दीवार से कोई कनेक्शन है! क्यों मेरी निगाह दीवार पर टंगी सिद्धार्थ भैया की तस्वीर पर चली जाती है। एक तस्वीर जिस पर माला टंगी होने भर से उसके सारे रंग बदल जाते हैं। तस्वीर की आंखों में नमी दिखने लगती है, उस चेहरे के इर्द-गिर्द गोलाकार में एक प्रभामंडल खिंच आता है और मन में आता है कि तस्वीर के होंठ अभी हिलें और कुछ बोलें। पर फ्रेम के अंदर से तस्वीरें कहां बोलती हैं! 

दस साल पुरानी तस्वीर है भैया की, पर इस पर कभी धूल नहीं देखी। बाकी पूरे घर की साफ़-सफ़ाई में मां की कोई दिलचस्पी नहीं। भैया के सामान पर भी धूल जमी दिख जाती है। उनकी गिटार पर। उनके आधे अधूरे कैनवास पर। अलमारी में बंद उनके रंग और ब्रश पर। संगीत की उनकी किताबों पर। उनके सारे साजो-सामान पर। अलमारी के किवाड़ के अंदर उनके लगाये पोस्टर तक पीले और बदरंग हो चले हैं। उनके किनारे उखड़ने लगे हैं पर वे हैं वहीं। पापा इनके बारे में कभी कुछ नहीं कहते। 

पर जब वह कहते हैं तो दांत भींच कर ही कहते हैं। जो कहते हैं उसका मतलब यह होता है कि घर का कोई भी पुराना, फट-फटा चुका सामान भी मां बाहर नहीं फेंकती, सहेज-सहेज कर रखती जाती हैं और घर धीरे-धीरे एक कबाड़ में बदलता जा रहा है। ...और ऐसे कबाड़ में चूहे नहीं आयेंगे तो क्या तितलियां आयेंगी!

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‘‘अभिजित, आज देर मत करना, समय पर पहुंचना है वहां।” पापा के याद दिलाने से पहले ही मां मुझे बता चुकी थीं कि आज अपने जन्मदिन वाले कपड़े निकाल लेना। वही पहनना। और कार्डिगन ज़रूर ले लेना । खुले फार्महाउस में ठंड लगेगी।

‘‘जी!” मैं भीतर से चहक उठा था। इसलिये नहीं कि अच्छे कपड़े पहनकर सज-धज कर हम आउटिंग पर जा रहे हैं। वैसे तो मुझे दोस्तों के साथ अपने बरमुडा या रिप्ड जींस में बाहर जाकर धमाल करना ज़्यादा पसंद है बजाय इसके कि मां-पापा के साथ राजा बेटा बनकर सलीके से चलूं! ज़ोर से हंसने पर या झूम-झूम कर टेढ़ा चलने पर भी जहां पाबंदी हो। हर बड़े-बुज़ुर्ग को झुककर प्रणाम करने की जगह अगर ग़लती से ‘हाय या हलो अंकल’ बोल दिया तो अपनी ख़ैर नहीं। पापा के साथ चलते हुए मुझे हमेशा ‘अटेन्शन’ की मुद्रा में रहना पड़ता है। 

मेरी चहक की असली वजह है कि मां ज़रा ढंग के कपड़े पहनकर बाहर निकलेंगी। घर में तो मां ऐसे कपड़े पहने रहती हैं कि उनसे साफ़ तो हमारी लक्ष्मीताई दिखती हैं - साफ़-सुथरी चमकदार साड़ी और कान में चमकते सोने के बुंदे और कलाई भर भर लाल हरी कांच की चूड़ियां।

आज हम सब मेहता अंकल के बेटे की शादी में जा रहे हैं। मां भी चलेंगी। अक्सर मां कहीं भी जाने से सीधे मना ही कर देती हैं। जहां भी जाना होता है, मैं और पापा ही जाते हैं। मां साथ जाती हैं तो वह खास दिन होता है। दरअसल मां को पता ही नहीं कि वह जब ढंग से सजती-संवरती हैं तो हम दोनों को कितना अच्छा लगता है। जी होता है कि उन्हें देखता ही रहूं। फिर उन्हें ऐसे एकटक निहारने से मुझे खुद अपने पर शर्म आने लगती है। 

‘‘अभि! कैश गिनकर अलमारी के ड्रॉअर में डाल देना।’’ पापा मुझे नोटों का जत्था थमा देते हैं।

‘‘वहां से लौटकर गिनता हूं न पापा!’’ मैं शादी में तैयार होने के लिये कपड़े निकालता हूं । 

पापा पहले मां को ये नोटों का ढेर थमा देते थे पर मां का गणित बहुत कमज़ोर है। वह हमेशा गिनने में ग़लती कर देती हैं। एक दिन पापा बौखला गये - “रोज़ का यही हाल! अभि! तेरी मम्मी से आजकल कुछ नहीं किया जाता।” ...और यह काम मेरे ज़िम्मे आ गया। मेरे पापा - डॉ. देवाशीष कुमार शहर के नामी डॉक्टर हैं ! पापा के पास कितने सारे मरीज़ आते हैं। उनके क्लिनिक में शीरीन दीदी का दराज़ नोटों से भर जाता है। वह हालांकि गिनकर ही पापा को पकड़ाती हैं पर दोबारा चेक तो करना ही पड़ता है न! 

जब पहली बार इतने सारे नोट देखे थे तो कैसी चुहल-सी पैदा हुई थी। नोट गिने। फिर सहेजे। इतने-इतने ढेर सारे नोट। 

मैंने मां से चहक कर कहा,‘‘मां, मुझे भी डॉक्टर बनना है! पापा की तरह!’’

मां ने मेरी ओर ऐसे देखा जैसे मेरे पार कहीं और देख रही हों। बस, फिर हल्के से मुस्कुरा दीं - पापा को बताना। खुश होंगे। 

पापा तो हर वक्त फ़ोन पर ही रहते हैं। हर वक्त बिज़ी। हर वक्त जैसे लाम पर। मैं पापा को लेकर गर्व से भर जाता हूं। कितना भरोसा करते हैं उनके मरीज़ उन पर। कार ड्राइव कर रहे होते हैं, तब भी फोन बजता ही रहता है। 

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अब तो लगता ही नहीं कि मेरी यह हमेशा चुप सी रहने वाली मां भी कभी डॉक्टर रह चुकी हैं। शहर की एक नामचीन डॉक्टर! डॉ. देवयानी कुमार! पापा से कहीं ज्यादा शोहरत थी जिनकी। पापा के मरीज़ों से कहीं ज़्यादा मरीज़ उनके कमरे के बाहर इंतज़ार करते थे। रात को पापा पहले खाली हो जाते। मां को एकाध घंटा और लग जाता। सब मुझे बंसी काका ने बताया।

...पर एक हादसे में भैया क्या गये, मां की दुनिया ही बदल गई। मां ने अपनी प्रैक्टिस छोड़ दी और घर में बैठ गईं। चुपचाप। एक बुत बनकर! जैसे बोलना भूल गई हों। फिर घर में ग़रीबों का मुफ़्त में इलाज करने लगीं। दवाइयां भी अपने पास से देतीं। बाहर से दवा लाने के लिये पैसे भी पकड़ा देतीं।

मैं तब बहुत छोटा था। छह साल का। मां बहुत चुप रहती थीं और मुझे समझ ही नहीं आता कि उन्हें कैसे खुश करूं। कभी-कभार मां मुझे बहुत लाड़ करतीं पर उनके छूने में लगता, जैसे मुझे नहीं भैया को दुलार रही हैं। एक स्पर्श जो होकर भी नहीं था। पर हर चीज़ की धीरे-धीरे आदत हो जाती है। मां जैसी हैं, वैसी हैं। और पापा? पापा तो पापा हैं! पापा से भला कैसी शिकायत !

ऐसे ही माहौल में बड़ा हुआ मैं। कभी मन होता - मां से पूछूं, सच बताओ क्या प्यार करती हो मुझे या सिर्फ़ भैया से ही प्यार था तुम्हें! मैंने तो सुना था मां हमेशा बेटों से बहुत लाड़ करती हैं। बस, एक ही बात याद है, मां को तब मैं मम्मी बोला करता था। एक बार मां ने कहा,‘‘मुझे मम्मी मत बोला कर तू!’’ 

‘‘क्यों?’’ मैंने पूछा ज़रूर पर मां की आंखों में देखा तो कुछ ऐसा दिखा कि लगा - इतनी सी बात पर सवाल क्यों। तब से ही मां को मां कहता हूं और सचमुच मां मम्मी से ज़्यादा अच्छी लगती है। बस, एक खुली-खिली सी मुस्कान भर दिख जाये इस मां के चेहरे पर। जब दिख जाती है तो लगता है बारिश की फुहारें पड़ रही हैं। 

मुस्कुराती हुई मां बहुत भली दिखती हैं।

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