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आरंभिक

स्त्री देह के सौंदर्य का तेज वहन कर पाने की योग्यता अर्जित करने में पुरुषों को अभी कई जन्म और लगेंगे! 

यशःकाया

वाल्मीकि देव की कुटिया,
अर्द्धरात्रि!

अयोध्यापति को सीता का प्रणाम! 

ज्वर आ गया था? पवनदेव ने बताया। अब कैसे हैं आप? पवनदेव कल इधर से होकर गुज़रे! वाल्मीकि की कुटिया तक आते-आते सबके चरण श्लथ पड़ जाते हैं! ऋषि की कुटिया निदाध-दग्ध प्राणियों के लिए एक बड़ी छाँह है। अद्भुत है इसका आकर्षण! पाँव एकदम से थमक जाते हैं! 

ऊपर से आपके मनहर बच्चों का खिंचाव! दोनों के पाँवों में हिरणों ने अपनी कुलाँचें भरी हैं, आँखों को खंजन ने चंचलता उधार दी है! हाँ, उधार ही माँगी थी मैंने चंचलता ताकि समय पर वापस लौटा सकें। चंचलता लड़कपन की ही शोभा है! युवावस्था तक इनकी आँखों में धीरोदात्त नायकों का ठहराव आ जाना चाहिए! 

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आखि़र तो हैं आपके बेटे, आँखों में और चित्त में आपका वाला ठहराव, आपकी गहराई, वत्सलता, दूरदर्शिता आनी ही चाहिए! 

भौतिक रूप से बिछुड़ते हुए हमने जो प्रण लिया था, आपको भी याद होगा। तभी आप भी चिट्ठियाँ लिखते हैं- राज-काज से समय चुराकर! छोटा-से-छोटा फैसला लेते हुए मेरी राय लेना नहीं भूलते। मैं राज-काज़, नीति-रीति क्या जानूँ? पर जो समझ में आता है, बता ही देती हूँ। हनुमान जब आपके पत्र लाते हैं, मैं सारे काम-काज़ ताख़ धर इस घने जंगल के गहनतम प्रदेश में चली जाती हूँ और उसी शाल-वन की छाँह में बैठकर पत्र पढ़ती हूँ जहाँ आप रात्रि के तीसरे पहर मेरी वेणी दुबारा बाँधते थे - चम्पक की लड़ियों के साथ! 

प्रकृति के कुछ रहस्य गुह्य ही रहने चाहिए, हनुमान के सिवा कोई नहीं जानता हमारे इस गुप्त पत्राचार की बात! हाँ, मैंने बच्चों से कुछ नहीं छुपाया! उन्हें तो सब कुछ बताना ही था, वरना वे आपके बारे में क्या सोचते! उन्हें मैंने कुछ दिन पहले ही कहानी सुनाते-सुनाते सब समझा दिया! बताया उन्हें कि आप तो सिंहासन भाइयों को सौंपकर मेरे साथ ही वापस वन की राह लेने लगे थे, वो तो मैंने ही ज़िद ठानी, शपथ दिलाई आपको, कई-कई रात जागकर समझाया कि आपके लिए आपके लोगों की आँखें तरसी हुई हैं। आप जैसे विशिष्ट पुरुष के संस्पर्श की आवश्यकता सार्वजनिक जीवन की अस्त-व्यवस्तताओं को भी उतनी ही सघन होती है जितनी निजी जीवन के सहचरों को! 

निजी जीवन में माता-पिता का तो कोना अब खाली ही है! अपने भाइयों के अभिभावक भी आप ही हैं! रहा मेरा और मेरे बच्चों का सवाल तो मैं धरती की बेटी, ये धरती के दौहित्र- इनके लिए पूरी धरती अपना हरा-भरा आँचल फैलाए हुए बैठी है यहाँ! स्वयंसमर्थ धरा की स्वयंसमर्थ बेटी मैं कुछ दिन अपने आदिवासी भाई-बहनों में रमकर रहूँगी या फिर, वाल्मीकि से शास्त्र-चर्चा मे मगन रहूँगी, मेरे दिन कट ही जाएँगे! इतनी विराट है धरती माँ, इतने गझिन सृष्टि के रहस्य! सब समझते-बूझते, पढ़ते-लिखते कट ही जाएगी ये ज़िंदगी! 

बाबा जनक आए थे मुझको बुलाने कि अयोध्या का हड़कम्प रामजी को सँभालने दो, मायके आकर कुछ आराम करो - मैं ही नकार गई! मैंने कहा - ‘बाबा, मैं विदेह की बेटी, देह तो वहीं आग में वार आयी! बेशक वह जली नहीं, क्योंकि वह आपकी यशःकाया थी। बेटी की देह बाप की यशःकाया ही होती है! वह तो जस-की-तस दमकती रही, पर मेरा ही उससे जी भर गया! 

सुन्दरता बड़ा मूल्य होगी, अवश्य होगी, पर स्त्री-देह में क़ैद सुन्दरता बड़े झमेले करती है -  युद्ध और जाने कितने लटर-पटर! स्त्री-देह के सौन्दर्य का तेज वहन कर पाने की योग्यता अर्जित करने में पुरुषों को अभी कई जन्म और लगेंगे! 

राम-जैसे योग्य पुरुष के एकनिष्ठ प्रेम का अमृत चखा, दो बच्चे हुए - देह का सुन्दर उपयोग हो ही गया। बाकी तो पुनरावृत्ति ही है! अमृत की एक बूँद ही काफ़ी है, बाबा!

एक बेटी की माँ होने के सुख से मैं वंचित रही ज़रूर, पर बेटों में मैंने अच्छी बेटियों के सब गुण भरे! फिर जैविक मातृत्व ही सब-कुछ नहीं होता - यह भी मुझे पता है। तो जंगल में जितनी भी बच्चियाँ हैं, ऋषि-पुत्रियाँ, आदिवासी बच्चियाँ, राक्षस जनजाति की बच्चियाँ - सब मेरी बेटियाँ ही तो हैं!

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देह से ऊपर उठा जब ये प्रेम तो ही यह प्रज्ञा जगी कि प्रेम तो एक ऐसा महाभाव है जो किसी एक व्यक्ति, एक राष्ट्र, एक निमित्त को निवेदित नहीं होता, वह तो बस होता है - जैसे आकाश में अनन्तता होती है और जल में प्रांजलता...अहैतुक! अशेष! एक के बहाने सारी दुनिया अच्छी-अच्छी-सी लगे तो ही समझो कि प्रेम सार्थक हुआ।

राम के प्रेम ने मुझमें यह महाभाव जगाया कि सामीप्य आत्मिक होता है, भौतिक नहीं! मैं आपकी बेटी, विदेह की बेटी इस बात का मर्म नहीं समझ पाती तो भला कौन समझता’’ 

ठीक जवाब दिया न पिता को आपकी सिया ने?


सादर,
सिया


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