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फाइल पर ऊपर लिखा था ‘रिजेक्टेड’ अन्दर अलग अलग पिन लगाए काग़ज़ थे जिन पर बड़े-बड़े अक्षरों में लिखा था सबूत। उसे आश्चर्य हुआ कि नागरिकता के सबूत के बतौर सर्टिफिकेट और कार्ड वगैरह की फोटोकॉपियाँ ही फाइलों में मिलती हैं। ये काग़ज़ के पुलिन्दे कैसे सबूत है? 

नागरिकता

उसे अपने काम से नफ़रत थी। उसे काम से ही नफ़रत थी, पर मजबूरी में करना पड़ता था। इसी मजबूरी में आज आ खड़ा हुआ था इस विशाल दफ़्तर के आगे जहाँ दुनियाँ जहान की पुरानी फाइलें धूल खाती पड़ी थीं। उसे इन फाइलों को तरीक़े से नष्ट करना था। उसने अपनी मजबूरी के बारे में फिर से सोचा- कैसी मनहूस ज़िन्दगी पाई है उसने कि हर रोज धूल से भरे कमरों में बंद फाइलों को फाड़ता रहता है। इन फाइलों में जाने किस किसकी जिन्दगी और कहानियां बंद पड़ी होती हैं; खैर, उसे क्या, उसने कंधे उचकाए और इमारत में घुसता चला गया।


आज उसे 20 साल पुरानी उन फाइलों को नष्ट करना था, जो गमारादेश की नागरिकता रजिस्ट्रेशन के वक्त बनी थी। लाखों की तादाद में देशभर के लोगों ने उस समय अपनी अपनी नागरिकता साबित करने के लिए काग़ज़ात और सबूत पेश किये थे। किसी का नाम रजिस्टर में लिखा गया, किसी का नहीं। जिनका नाम रजिस्टर में नहीं लिखा गया वे किस हाल में रहे यह ज़्यादा पता नहीं।

खैर, मुझे क्या, उसने फिर से कंधे उचकाए और अपने काम में जुट गया। ऊपर तक ठुसी हुई अलमारियों से फाइलों को निकालने और उन्हें बोरियों में बंद करने का ऊबाऊ काम। काम करते करते लगभग शाम हो गई थी। वह थक गया था और घर जाकर नहाना चाहता था उसने सोचा कि बस ये आखि़री अलमारी और निपटा दूं तो काम खत्म समझो। उसने ऊपर से फाइलों का एक पुलिंदा खींचा कि तभी फिसल कर वह नीचे गिर गई और चारों तरफ़ फाइलें बिखर गईं। झल्ला कर वह काग़ज समेटने लगा कि एक फाइल से झांकते काग़ज़ों ने उसका ध्यान खींचा।

फाइल पर ऊपर लिखा था ‘रिजेक्टेड’ अन्दर अलग अलग पिन लगाए काग़ज़ थे जिन पर बड़े-बड़े अक्षरों में लिखा था सबूत। उसे आश्चर्य हुआ कि नागरिकता के सबूत के बतौर सर्टिफिकेट और कार्ड वगैरह की फोटोकॉपियाँ ही फाइलों में मिलती हैं। ये काग़ज़ के पुलिन्दे कैसे सबूत है? और इस आदमी को नागरिकता नहीं दी गई। उसे बड़ी दिलचस्पी हुई और उसने वे काग़ज़ अपने बैग में रख लिए कि रात को आराम से पढ़ेगा।

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रात को उसने वे काग़ज़ निकाले और देखा कि ये काग़ज़ात की नाम की किसी औरत के हैं और उसने इन्हें अपनी नागरिकता को साबित करने के लिए जमा करवाये थे वह हैरान हो गया कि आखि़र इस औरत ने क्या सोचकर ये काग़ज़ात दिये होंगे। क्या उसे पता नहीं था कि सरकारें कैसे काम करती हैं? उसने फिर सोचा कि उसे क्या? लेकिन पता नहीं क्यों इस बार वह कन्धे नहीं उचका सका। उसे याद आ गया कि उसकी बूढ़ी माँ को भी उन दिनों किस यातना से गुज़रना पड़ा था। जाने कहाँ कहाँ से क्या-क्या कागज़ जुटाये थे और चिन्ता से उसकी खाल तक लटक गई थी। उसे लगा कि वह देखे कि आखिर री नाम की इस औरत ने क्या सबूत दिये और फिर भी उसका केस रिजेक्ट कर दिया गया।

सबूत नं.-1

यह शहर तब चारों ओर से रेत से घिरा था। यहाँ सारे घर पत्थर के थे। घरों की छतें भी पत्थर की थी। सीमेन्ट और कंक्रीट का नाम ज्यादातर लोग नहीं जानते थे। बाहरी इलाके की सड़कों का नाम नहीं होता था, सिर्फ ए, बी, सी, डी से काम चलता था- अब तो यह इलाका भीतरी हो गया। शहर पुराना होता हुआ भीतर घुसता जाता है और इंसान उससे बाहर। मेरे मोहल्ले की गलियाँ तब नई थीं। वह राज मिस्त्रियों और चेजारों का मोहल्ला था।

कुछ घर जैन व्यापारी और सिन्धी दुकानदारों के थे। ये आजादी के तुरन्त बाद के दिन थे। उजड़ कर आए लोगों की भाषा तब तक पुरानी ही थी। उनके पकवान, उनकी पोशाकें और उनके बर्तन तब तक बदले नहीं थे और इसीलिए मोहल्ले में अलग से पहचाने जाते थे। सिन्धी बच्चे रोते हुए तब भी अल्ला अल्ला अल्ला पुकारते और उनकी माँएं उन्हें ‘लक्ख लानत थई‘ कहतीं। सफ़ेद चौड़े पायन्चे के पजामें और कुरते पहने स्त्रियाँ याद दिलाती थीं कि वे किसी अनाम सीमा के पार की हैं। मुझे तो ग्राम नहीं ये स्त्रियां ही थार पार कर लगती थीं। ये औरतें सचमुच थार पार कर ही यहाँ पहुँची थी।


ये औरतें तब अजूबे की तरह मोहल्लों में देखी जाने लगी थीं। सफ़ेद पोशाक और सोने की चूड़ियों के अलावा भी उनका रात में एक गिलास शराब पीना, चावल और आम की फांक खाना जैसी छोटी छोटी बातें भी चर्चा का विषय बनने लगी थीं।

हालांकि राजपूत स्त्रियां भी शराब पीती थीं, लेकिन ये औरतें तो और किसी ग्रह की लगती थीं अपने पतियों के साथ बराबरी करने का इनका ढंग इन्हें इस शहर की औरतों से अलग कर देता था। ये स्त्रियां अभिजात और दलित के बीच की कड़ी थीं। न ये दब्बू थीं न दबंग। पर अब ये औरतें भी इसी आबादी का हिस्सा बन रही थीं नीम के पेड़ों की घनी छाया में इनके मर्दों के ठेले खड़े होने लगे थे, इनकी शादियों में अब सब लोग बुलाए जाने लगे और इनका भी आना जाना शुरू हो गया था उन्हीं दिनों शहर के बाहरी इलाकों में दाल पकवान, ब्रेड पकोड़ा और कराची का हल्वा दिखने और बिकने लगा था।

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यह सब तब हो रहा था, जबकि इस शहर के नमकीन दुनियाभर में मशहूर है, पर भाषा और खानपान बिना किसी रोकटोक के बदलते ही रहते हैं लगातार। किसी शहर की उम्र उसके बाज़ार में बिकते खाने से और दुकानदारों की बोली से भी पता की जा सकती है।

मेरा जन्म इस मोहल्ले के एक किराये के घर में हुआ। मकान मालिक एक ईसाई था जिसे यह घर उसकी धर्ममाता ने दिया था। बाद में मुझे पता चला कि मेरे स्कूल की चपरासन ही उसकी माँ थी- और धर्ममाता नहीं बल्कि असली माँ। उसका यह बेटा उसके विधवा होने के बाद पैदा हुआ था तो मारे शर्म के उसने शहर के इकलौते मिशनरी अनाथालय में उसे डाल दिया। बरसों बाद जब उसकी उम्र इतनी हो गई कि शर्म की गुंजाइश ही नहीं बची तो वह उसे अपने साथ ले आई, पर तब तक वह बेटा मिस्टर ग्रीन बन चुका था। ग्रीन रात दिन गिटार बजाकर 'सारंगा तेरी याद में नैन हुए बेचैन' गाता रहता।

उसकी माँ के लिए वह बेटा नहीं एक ईसाई आदमी सा था। उसने तंग आकर उसे यह घर देकर अपना पल्ला झाड़ लिया। ग्रीन ने भी इस घर को किराये पर चढ़ाकर आमदनी का ज़रिया बना लिया। मेरे पिता को यह घर उसने कम किराये पर इस शर्त के साथ दिया कि वह हफ़्ते में एक दिन उसे संगीत सिखाएंगे।

मगर मेरे पिता ने उसे कभी कभी किराया तो दिया, पर संगीत कभी नहीं सिखाया वे माँ से कहते- कूड़ है साला बेसुरा फिल्मी गीत गाता रहता है। ये वो दिन थे जब शादी ब्याह में लाउडस्पीकर पर रफ़ी और लता के गाने बजाना नया फ़ैशन बन कर उभरा था। 'सौ साल पहले मुझे तुमसे प्यार था' हर दूल्हे की पहली पसन्द होती थी। दुल्हन की तो खै़र कोई पसन्द होती ही नहीं थी।

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