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आपके रेट्स? 

मुफ़्त, एकदम मुफ़्त। कोमल सफेद त्वचा और चाँंदी की तरह जगमगाती जाँघें, सफेद रंग के जुराबों में एहतियात से ढकी और उनके...अनछुए, संतुलित, गर्वोन्नत, नुकीले। 

कर्र की धीमी आवाज़

आलमगीरीगंज के वे तमाम लफंगे कर्र की उस धीमी आवाज़ में रहते थे जो उनके चाकुओं के खुलने से होती थी। उनमें से केवल एक, उनका ग्रुप लीडर, राजाराम वर्मा उर्फ राजू, जो ‘बटलर प्लाजा’ की चार फाइनेंस कंपनियों का रिकवरी एजेंट था, एक बिना साइलेंसर की बुलेट मोटरसाइकिल की पटाखों जैसी भयानक भड़-भड़ की आवाज़ में रहता था। वे रात को एक टेलीफोन की घंटी के दरवाजे पर दस्तक देते थे, जिसके पीछे लड़कियाँ रहती थीं, और उसके बाद एक कमीनी हँंसी में थोड़ी देर ठहरते थे। उन सबका सपना था कि किसी दिन एक बहुत बड़े धमाके में अपना घर बनाएंगे। इन वाक्यों का अर्थ समझने के लिए उस कविता संग्रह को याद करना होगा जिसका शीर्षक है - ‘आवाज़ भी एक जगह है।’ 

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आलमगीरीगंज की मनिहारिन गली के बिल्कुल आख़िर में था वह सौ साल पुराना, धीरे धीरे ढहता हुआ मकान, जहाँं उदयराज डिग्री कालेज में बायोलॉजी पढ़ाने वाली उम्रदराज टीचर चेतना सक्सेना अपनी चार स्टूडेंट्स के संग रहती थी। उनके अलावा रोज़ शाम अलग अलग इलाकों से लड़कियाँं पढ़ने आती थीं। उस गली में हर शाम लड़कियाँं ही लड़कियाँ होती थीं, उस मकान के बाहर साइकिलें ही साइकिलें। बिहारीपुर ढाल से कुतुबखाने और उसके आगे आलमगीरीगंज तक के सभी लड़कों को पता नहीं कहाँं से नम्बर मिल गया था। वे रात को दस और ग्यारह के बीच फोन करते थे। फोन उठाकर कहने पर, हलो, यह 5253751 है न, उधर से आवाज़ आती थी, जी हाँ, यही नम्बर है, कहिये, आप कौन? यह कहने पर, क्या आप मैडम सक्सेना हैं, आवाज़ आती थी, जी हाँ, आप कौन हैं? साफ़ कह दिया जाता था, आपके पास सुना है लड़कियाँ हैं। हमें लड़कियों की जरुरत है। आपके रेट्स क्या हैं? रात की ख़ामोशी में बहुत देर तक एक स्त्री के सीने की धक-धक सुनाई देती थी, और फिर यह कहने पर, हलो मैडम, जो सुन पड़ता था, वह एक अलग जिह्वा होती थी, अलग आवाज़। हाँं, आपने ठीक सुना है। हैं लड़कियाँ। एक दो नहीं, पूरी चार। 

आपके रेट्स? 

मुफ़्त, एकदम मुफ़्त। कोमल सफेद त्वचा और चाँंदी की तरह जगमगाती जाँघें, सफेद रंग के जुराबों में एहतियात से ढकी और उनके...अनछुए, संतुलित, गर्वोन्नत, नुकीले। 

रेट्स क्या हैं, फिर कहा जाता था। 

- मुफ़्त, बताया न। छूते ही खून छलक आये, इतनी नाज़ुक। हरेक के साथ दो गोल, ठोस मजे, जो साँसों के साथ उठते गिरते हैं। हरेक में एक हल्की हरारत, गुनगुने बदन और ... ।  यह सब बिल्कुल मुफ़्त, सिर्फ एक ... । 

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हलो हलो, आवाज़ साफ़ नहीं आ रही, वो कहते थे। - सिर्फ़ एक क्या? आवाज़ आती थी - सिर्फ़ एक... । फिर फोन कट जाता था। लड़के ऊंची आवाज़ में एक समवेत, कमीनी हंसी हंसते थे। 

पन्ने पर सिर झुकाए इस कहानी को धीरे-धीरे, मन ही मन पढ़ते प्राणप्रिय पाठकों से शुरुआत में ही एक ज़रूरी बात कहनी है, यह कि यह कोई कहानी नहीं, सिर्फ एक इच्छा है कहानी लिखने की। जैसे जीवन में, वैसे ही कहानियों में भी अजानी कसकों और हृदयविदारक वाक्यों का वक़्त जा चुका है, सामने सख़्त समय है, उसका एक-एक लम्हा, और वैसे ही चाहिए लफ़्ज़। क्या आपके मन में फाँस की तरह यह ख्याल गड़ता है जैसे इस लेखक के मन में कभी कभी - कि दर्जा छह से बारह तक की और उसके बाद की भी इतिहास की किताबों के बाद हिंदी और उर्दू की अवांछित कहानियों का, उनके आख़िरी वाक्यों का नंबर आएगा। उन कहानियों के अंत बदले जाएंगे। इतिहास को शुरु से बदले बिना उनका काम न चले, हिंदी उर्दू की कहानियों के आख़िरी वाक्यों को बदलने से चल जाएगा जहाँ उनका ‘‘जहर’’ जमा होता है, बिच्छू की दुम की तरह। अगर हाँ तो पाठको, जी, आपको ही, बतानी है एक ज़रूरी, ख़ास बात। इस वक़्त, ठीक अभी, हमारी निष्ठावान मातृभाषा में सख्त, कड़े, कठोर वाक्यों से कहीं एक सुविशाल कहानी लिखी जा रही है - वह उतनी बड़ी होगी जितनी इस जमाने की हक़ीक़त, और तब तक चलेगी जब तक यह वक़्त चलेगा। शब्द दर शब्द अभी लिखी जा रही उस कहानी में अपरिमित खून होगा - सारा मानवीय रक्त जो समय की शुरुआत से अब तक ज़मीन पर आया है, और उस कहानी के आख़िरी वाक्य तक पहुँचना ‘उस’ के लिए नामुमकिन होगा, समय के आख़िर तक। वही होगी असल कहानी, यह नहीं, यह तो एक अधेड़ बायोलॉजी टीचर की, जिसके चेहरे पर थकान थी, अधिकतर ख़ामोश रहती थी निमग्न इस दुनिया की आवाज़ें सुनती और जिसके बालों में एक सफेद रंग आ चुका था - और थोड़े से चाकुओं, ज़रा से खून और एक अदने ब्लेड की मामूली कहानी है, उतनी ही मामूली जितना इस कहानी का शीर्षक है, उसका विषय। जब वह कहानी सामने आएगी, यह कहानी व्यर्थ हो जाएगी। 

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