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योजनाओं को अमलीजामा पहनाने के लिए, जब तक तंत्र को दुरूस्त नहीं किया जाएगा, यह सिर्फ़ एक ड्रामे के सिवा और कुछ नहीं होगा। यह सस्ती लोकप्रियता हासिल करने का महज एक हथकंडा है।

योजना

न कोई सुराग़, न कोई सबूत। तमाम आला दिमाग रहस्य सुलझाने में रात-दिन एक किए हुए थे। लेकिन रहस्य का कोई सिरा पकड़ में नहीं आ रहा था। जांच एजेंसियां अंधेरे में हाथ-पांव मार रही थीं और दिन के उजाले में पातीं कि वे जहां से चली हैं, वहीं खड़ी हैं।

सरकार, विपक्ष और मीडिया के दबावों, आरोपों-प्रत्यारोपों के बीच जांच एजेंसियों के पास अपने बचाव के लिए बस एक ही जुमला बचा था, ‘जांच सही दिशा में जा रही है। हम जल्द ही पूरे मामले का खुलासा कर देंगे।’

मामला सूबे के मुख्यमंत्री से जुड़ा था, इसलिए मामले की मॉनिटरिंग स्वयं डीजीपी कर रहे थे। वह हर दिन समीक्षा के बाद यही पाते कि जांच सही दिशा में नहीं जा रही है। अपनी कोर टीम पर जांच को सही दिशा में ले जाने का दबाव बना रहे थे और सबको साफ-साफ कह दिया था, ‘हम पर चैतरफा दबाव है। अगर मामले का खुलासा न हुआ तो कइयों पर गाज गिर सकती है।’

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 कॅरियर के बेहतरीन दौर में पहुंच चुके ये अफ़सर गाज गिरने का रिस्क अफोर्ड नहीं कर सकते थे, इसलिए उन्होंने केस को सुलझाने में एड़ी-चोटी एक कर दी थी। उधर, विपक्ष अमादा था कि मामले की जांच सीबीआई को सौंप देनी चाहिए। विधान सभा में नेता प्रतिपक्ष आरोप लगाते हुए हमलावर हो आए थे, ‘राज्य का पुलिस तंत्र मामले की तह तक पहुंचने में अक्षम है। बेहतर होगा कि जांच सीबीआई से कराई जाए।’ 

 इस आरोप के जवाब में मुख्यमंत्री ने स्वयं कमान संभाल ली थी, ‘राज्य का पुलिस-प्रशासन पूरी तरह सक्षम है। मुझे पूरा भरोसा है कि यह मामला जल्द सुलझा लिया जाएगा। इस षडयंत्र के पीछे जिसका भी हाथ होगा, वह बख्शा नहीं जाएगा। मेरा विपक्ष से अनुरोध है कि इस संवेदनशील मामले पर राजनीति न करे।’

दरअसल, मुख्यमंत्री को डीजीपी प्रसाद पर पूरा भरोसा था। तीन अफ़सरों की वरिष्ठता को नज़रअंदाज कर अगर मुख्यमंत्री ने उन्हें डीजीपी बनाया था, तो सिर्फ इसलिए नहीं कि वह उनके स्वजातीय थे, बल्कि इसलिए भी कि केन्द्र में प्रतिनियुक्ति के दौरान उन्होंने बतौर सीबीआई ज्वांइट डायरेक्टर कई नाजुक मौकों पर उनकी मदद की थी, लिहाज़ा प्रतिनियुक्ति से लौटते ही मुख्यमंत्री ने उन्हें डीजीपी के वेतनमान पर प्रोन्नत कर दिया था और फिर तीन महीने बाद डीजीपी एस.के.सिन्हा के रिटायर होते ही उन्हें डीजीपी बना दिया गया था। 

इस मामले पर भी विपक्ष ने काफी हो-हल्ला मचाया था। लेकिन मुख्यमंत्री के विशेषाधिकार को चुनौती देना संभव नहीं था, इसलिए मामला जल्द ही ठंडा पड़ गया था। पद संभालते ही डीजीपी प्रसाद ने कई करिश्मे किए थे। उन्होंने सूबे में कानून-व्यवस्था ठीक वैसे ही दुरुस्त कर दी थी जैसा मुख्यमंत्री चाहते थे। 

कई खूंखार सरगनाओं को पुलिस ने ढेर कर दिया था, या सलाखों के पीछे डाल दिया था। स्पीडी ट्रायल के जरिए कइयों के भाग्य का फैसला इस तेजी से हुआ कि बाहर बचे अपराधी या तो अंडरग्राउंड हो गये या सूबा छोड़कर भाग खड़े हुए। सूबे में चारों तरफ अमन-चैन था और लोग मुख्यमंत्री के गुण गा रहे थे।

ऐसे वक़्त में, जबकि मुख्यमंत्री विश्वास से भरे थे और सूबे में किए जा रहे अपने विकास-कार्यों पर उनकी खास नज़र थी, उन्होंने तय किया कि वह स्वयं विभिन्न जिलों में कैंप करेंगे और जमीनी हक़ीक़त का जाएज़ा लेंगे। उनका फ़ैसला जनोन्मुख था, लिहाज़ा मंत्रिमंडल ने उनके फैसले की तारीफ़ की। उनकी पार्टी ने इस फैसले को क्रांतिकारी कदम बताया और स्वयं मुख्यमंत्री ने इस बाबत जोरदार तर्क दिया, ‘जनता की चुनी सरकार को जनता के बीच जाना ही होगा। सेक्रेटेरिएट में योजनाएं बनाकर, बाबुओं के भरोसे नहीं छोड़ा जा सकता। योजनाओं का लाभ समाज के अंतिम आदमी तक पहुंचे, यह सुनिश्चित करना होगा। मैं अपनी इस यात्रा की शुरुआत इसी उद्देश्य से कर रहा हूं।’

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 विपक्ष जैसा कि होता है, विरोध करना उसकी प्राथमिकता होती है, उसने मुख्यमंत्री की इस योजना पर तीखा हमला किया, ‘यह सरकारी पैसे का दुरुपयोग है। योजनाओं को अमलीजामा पहनाने के लिए, जब तक तंत्र को दुरूस्त नहीं किया जाएगा, यह सिर्फ़ एक ड्रामे के सिवा और कुछ नहीं होगा। यह सस्ती लोकप्रियता हासिल करने का महज एक हथकंडा है।’

 सूबे की जनता को सरकार और विपक्ष के तर्क अपनी-अपनी जगह पर सही जान पड़ते। उसका मानना था कि मुख्यमंत्री ने कई विकास योजनाएं शुरू की हैं और उनसे सूबे की बदहाली दूर हो सकती है। सूबा दशकों से पड़े सन्निपात से बाहर निकला है, इसलिए अपनी सेहत को लेकर वह बेहद संवेदनशील है। उसे मुख्यमंत्री की कोशिश ईमानदार लगती है। लेकिन वह विपक्ष की इस आशंका को भी सच मानता है कि सरकारी बाबुओं और बिचैलियों के कारण योजनाओं के जमीन पर उतरने में कठिनाई पेश आ रही है। 

ज़ाहिर है, मुख्यमंत्री की इस पेशकश से जनता में एक और उम्मीद की किरन फूटी कि इस बहाने ही सही, सच्चाई सामने आएगी और बाबुओं और बिचैलियों की नकेल कसेगी। जनता ने मुख्यमंत्री की इस यात्रा को भी गहरी उम्मीद से देखना शुरू किया। उसके इस देखने में, उसके पिछले अनुभवों के दंश से, अवसाद से, त्रासदी से उबरने की अतिरिक्त अपेक्षा भी थी। 

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