एपिसोड 1

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‘ममी-मम्मा कुछ भी कहे। पर नहीं, माँ-माँ करता रहता है। इसे भी अपनी तरह इटावियन मत बना देना।’

मां या मम्मा

साल 1989
'माँ-माँ, आप अब इस तरह से हँसते क्यों नहीं हो।'

एक जोड़ी मासूम आँखें मेरे चेहरे को तलाशती स्थिर हो गई थीं।

उसने आहिस्ता से पीछे छिपे हाथों को मेरे सामने किया। उसके हाथ में फ्रेम सहित मेरी वह तस्वीर थी, पाँच साल पहले जब हम हनीमून पर नैनीताल गए थे, दिवाकर ने यह तस्वीर खींची थी, जिसमें मैं बेतहाशा हँस रही थी। ऐसी खिलखिलाहट कि चेहरे को हर लकीर हँसती दिखे।

'ऐसे। माँ, आप ऐसे हँसते हुए कितने अच्छे लगते थे। अब क्यों नहीं हँसते ऐसे?'

सतह से धीमे-धीमे ऊपर आता उसका सवाल मेरे सामने आकर ठहर गया था। मेरे गले से कोई आवाज़ नहीं निकली। मैं स्तंभित। क्या कह रहा है मोनू। यह चार साल का बच्चा। इतनी बड़ी बात। मैंने बेआवाज़ उस फ्रेम जड़ी हँसी को उसके हाथ से लिया और वापस कार्निस पर किसी एन्टीक की तरह सजा दिया। मोनू को अपने पास खींचा और अपने भीतर समो लिया।

'मेरा राजा, मेरा सोना, मेरा बेटा, मेरा लाडो। देख मैं हँस तो रही हूँ। रुलाई को गले तक घोंटने की कोशिश में मेरी कनपटी की नसें तन रही थीं, जा, सो जा बेटा। कितनी रात हो गई है।'

'नहीं, आप भी चलो।' उसकी आवाज़ में गीलापन था।

मेरा हाथ अपने सीने पर भींचे दो मिनट में ही वह एक संतुष्ट नींद सो रहा था। सोता हुआ मोनू कितना मासूम लगता है। मैंने उसे फिर से चूमा। एक बार, दो बार, कई-कई बार। मैं उसे एकटक निहारती हूँ। ये मेरी इकलौती दौलत है। दुनिया की सबसे खू़बसूरत, सबसे नायाब चीज़। इसके लिए मैं सारी दुनिया को अपने ठेंगे पर रख सकती हूँ। मैंने उसकी छोटी-सी मुलायम हथेली अपने हाथों में जकड़ी। मेरी उम्मीदें, मेरे सपने, मेरी आँखों की रोशनी, सब इन्हीं नन्हीं हथेलियों में कैद हैं।

आज तेरे जन्मदिन पर तेरी माँ तुझे इतना छोटा-सा उपहार भी नहीं दे सकती क्या। मैं सोते हुए मोनू से कहती हूँ, मैं हँसूंगी। तेरे लिए। तू खुश रहे इसलिए। क्या नहीं है मेरे पास। मैं अपने को समझाती हूँ। एक खूबसूरत घर है। एक सुशील, सुंदर पति है। इतना प्यारा बच्चा है। ग़लती मेरी है। मैं ही अपने छोटे-छोटे दुखों को ग्लोरीफ़ाई करती हूँ। उन दुखों को मैग्नीफाइंग ग्लास से देखती हूँ और उन्हें ओढ़ लेती हूँ। जैसे सातवीं जमात में पढ़े अलजेब्रा के सम्स भूल गई हूँ, वैसे ही हँसना भूल गई हूँ। मुझे फिर से जीना सीखना है। अपने मोनू के लिए। और कोई चाहे, न चाहे, मोनू चाहता है कि मैं खुश रहूँ।

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मेनगेट पर चाभी अटकाने और घुमाने की आवाज़ आती है। साथ ही झाई जी का ऊँघता स्वर, 'शिखा, वेख, कौण ए।'
'कौन हो सकता है। वही हैं।'
'कोई नहीं, झाई जी। ये हैं। आप सो रहो।' मैं बिस्तर से उठे बिना कहती हूँ।

लेकिन ऐसा कैसे हो सकता है कि सुबह का गया बेटा रात को घर आए और माँ न उठे।

'बड़ी देर कर दी। तेरा रस्ता वेख-वेख के मोनू ने केक काटा। हुणे ही सोया है।' झाई जी अधलेटी-सी घुटने मलती हुई कहती है, 'शिखा, ग्लास पानी दा तां पुच्छ।'

'मैं यहीं हूँ। ज़रा धीरे बोलो। मोनू उठ जाएगा। आप थक गए हो। आराम करो। सो रहो।'

मैं पानी का गिलास सामने रख देती हूँ। दिवाकर गटागट पानी पीकर अपने कमरे की ओर बढ़ जाते हैं। जाते-जाते कह जाते हैं, 'मुझे याद था, पर मैं काम में फंस गया था। मुझे देर हो गई। जा, तू भी थक गई होगी। सो जा। मैं खाकर आया हूँ।'

'मोनू के लिए कोई चीज़ लाए हो?' मैं ऐसे पूछती हूँ, जैसे दुविधा में हूँ कि पूछूँ या नहीं।
'अब इस वक़्त दुकानें खुली रहती हैं क्या?' वह फट पड़ते हैं। 'मैं सीधे ऑफ़िस से आ रहा हूँ, दिखाई नहीं दे रहा?'

'मेरा यह मतलब नहीं था।' मैं दिवाकर के हाथ में एक खू़बसूरत काग़ज़ में लिपटा पैकेट पकड़ाती हूँ, 'यह सुबह उसे दे देना। वर्ना पूछेगा, आप उसके लिए क्या लाए।'

दिवाकर हाथ में लेते हैं, फिर वहीं रख देते हैं, 'तो उसे पहले ही दे क्यों नहीं दिया। कह देना था, मैंने भिजवाया है।'

सुबह मोनू के उठने से पहले ही दिवाकर ऑफ़िस चले जाते हैं। मोनू के चिल्लाने की आवाज़ आती है, 'माँ, माँ, देखो, झाई ने रैपर खोल दिया।'
'वे मुए, झाई जी तां बोल।'
'नहीं बोलता। जाओ। माँ-आं-आं...' दादी-पोते की झड़प होती है तो मोनू गुस्से में ‘जी’ हमेशा निगल जाता है।

मोनू अधखुला पैकेट लेकर मुझसे लिपट जाता है, 'पापा रात को मेरे लिए गिफ़्ट लाए थे। झाई जी ने खोल दी। आप खोलो।'

मैंने सधे हाथों से गिफ़्ट लपेटी थी, अब काँपते हुए हाथों से खोल रही हूँ।

'वेख्या, तेरे पापा इतनी रात को आए पर तेरे लिए गिफ़्ट ल्याणा नहीं भूले।'
झाई तिरछा मुस्कराती हैं, 'पर तू तां ठैरा माँ दा चमचा।'
'चमचा चाहे कड़छी। आप मेरी गिफ़्ट नहीं छूना, खाली देख लो, बस।' मोनू गिफ़्ट झाई जी की ओर बढ़ा देता है।

'जा, जा, मैंनू नहीं वेखणी। अच्छा, कड़छी की होंदी है वे नलैक, ज़रा सुणा।' दादी को पाते पर लाड़ उमड़ता है।
'कड़छी? आपको नहीं पता? चमचे से थोड़ी बड़ी होती है।' मोनू अपनी झोंक में बोलता जाता है।

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'आपको सब पता है।' दादी के हँसने पर वह फिर मेरे पल्लू में घुसता है, 'देखो ना माँ, झाई जी चिढ़ाती हैं। माँ-आं-आं...'

'जा, दफ़ा हो। वड़या रै माँ दे कुच्छड़। (घुसा रह माँ की गोद में) जब देखो तो माँ-माँ। होर कुज नईं सिखाया तेरी माँ ने।'

'क्या सिखा रखा है तूने अपने बेटे को' दिवाकर भी हमेशा यही कहते हैं। ऐसे जैसे बेटा सिर्फ़ मेरा हो, उनका नहीं। 'ममी-मम्मा कुछ भी कहे। पर नहीं, माँ-माँ करता रहता है। इसे भी अपनी तरह इटावियन मत बना देना।'

इटावियन यानी इटावा की। हमारे घर में इटावियन विशेषण गाली की तरह इस्तेमाल होता है। मैं अगर रंगीन प्रिंटेड साड़ी पहन लूँ तो दिवाकर कहते हैं, तीन साल हो गए दिल्ली में रहते, अभी तक दिल्ली का कल्चर नहीं आया तेरे में। दिल्ली की गरमी में सूती या फ्रेंच शिफ़ॉन साड़ियाँ पहनी जाती हैं। ये सब इटावा स्टाइल कपड़े मत पहना कर। लोग देखेंगे तो हँसेंगे।

लेकिन यह तो पुरानी बात हुई जब दिवाकर, बुरा सही भला सही, कुछ कहते तो थे। अब तो कुछ भी पहनो, उनकी बला से। साथ चलेंगे तो ऐसे, जैसे साथ चलने वाली को पहचानते ही नहीं। ऐसे जैसे पता नहीं किस पिंड से आकर मैं दिल्ली में उनके गले पड़ गई हूँ। दिल्ली, दिल्ली, डेल्हिआइट यानी संभ्रांतता, सुरुचि संपन्नता का प्रतीक। इटावा इटावियन यानी हिन्दुस्तान के नक्शे पर एक नामालूम-सा क़स्बा यानी सांस्कृतिक विपन्नता का प्रतीक।

'इसे ममा कहना सिखाओ, वर्ना ज़िंदगी भर माँ-माँ करता रहेगा।' अकसर दिवाकर एक हिकारत के साथ कहते हैं।
'माँ में क्या बुराई है?' मैं कहना चाहती हूँ, 'माँ कहता है तो दुनिया ठहर जाती है, मेरी मुट्ठियों में खज़ाना भर जाता है। भूल जाती हूँ कि यह तुम्हारी बेदिल दिल्ली है।'

पर कुछ कहती नहीं मैं। कहती हूँ तो यह, 'आपको तो पापा ही कहता है, पिताजी तो नहीं कहता।'
'वाह। है कोई लॉजिक इस बात में? सेंसलेस बातें ही करेगी तू जब भी मुँह खोलेगी। छोड़ो, तुमसे बहस करने का कोई फ़ायदा नहीं।'

दिवाकर मुँह बिचकाकर जाते हैं और मैं ज़मीन में कुछ और नीचे धंस जाती हूँ। अपनी ही नज़रों में अपना जाहिल होना रेखांकित होता है। मुँह खोलती ही क्यों हूँ मैं। और सच कहूँ तो यह शब्द ‘माँ’ ही है, उस वक़्त जिसके हाथ उग आते हैं और सहारा देकर दलदल में धंसे मेरे बेजान जिस्म को ऊपर खींच मुझमें फिर से जीने की संजीवनी फूँक देता है।

'होर कुज नईं सिखाया तेरी माँ ने।' कहकर झाई चली जाती हैं और मेरे पल्लू में दुबका हुआ मोनू सिर उठाता है, 'मा, झाई जी भी पापा जैसे क्यों हैं?'
'क्यों बेटा, इतना तो प्यार करते हैं तुझे। देख, पापा भी कल तेरे लिए गिफ़्ट लेकर आए। अपने मोनू का बर्थ डे याद रखते हैं न?'
'पर कल जल्दी क्यों नहीं आए?' मोनू मुझे मुक्कियाँ मारता कहता है, 'मेरे से मिले क्यों नहीं?' उसका गला भर आता है, 'पापा को कहना मैं कट्टी हो गया हूँ उनसे।'

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