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किसी ने नहीं देखा कि उसकी आँखों की कोरों पर अटकी कुछ बूंदें बाहर निकलने को बेताब थीं ...  

आरम्भ जहाँ कथा पूर्ण हुई

“Out beyond ideas of wrongdoing and rightdoing,
there is a field. I’ll meet you there.

When the soul lies down in that grass,
the world is too full to talk about.
Ideas, language, even the phrase ‘each other’
doesn’t make any sense.”

- Rumi

24 फरवरी 2021 

आरंभ जहाँ कथा पूर्ण हुई

"मैं लेखक नहीं हूँ। यह मेरी पहली किताब है और शायद आख़िरी भी हो! शब्दों की दुनिया मेरे लिए थोड़ी अनचीन्ही है। मुझे तो सिर्फ़ रंगों की भाषा समझ आती है, लेकिन यह कहानी जो मुझे कहनी थी, वह रंगों के अबाध तरल प्रवाह में भी शायद थोड़ी अव्यक्त और अबूझ रह जाती। मैं चाहती थी कि यह कहानी दूर तक पहुंचे। इसे आप तक पहुंचाने के लिए मुझे शब्द ही बेहतरीन माध्यम लगे।

यह कहानी कहना मुझपर एक दायित्व की तरह है। इसे सुनाना मेरे ही हिस्से लिखा गया था। 

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इस कहानी के एक सिरे को जीते हुए मैं बड़ी हुई लेकिन इसका कोई दूसरा सिरा भी है, यह मैं नहीं जानती थी। बचपन से जिस कहानी को मैं जीती आ रही थी, वह मुझे अपने आप में सम्पूर्ण लगती थी। उस कहानी के आँचल में ख़ुद को ढके मैंने अनगिन सपने देखे हैं। उनींदी आँखों से उसे सुनते हुए होंठों पर मुस्कान लिए मीठी नींद में डूब गई हूँ और सपनों में फिर उसे बार-बार जिया है।

लेकिन तब मैं नहीं जानती थी कि यह एक अधूरी कहानी है। इसके कई ज़रूरी पात्र तब अज्ञात थे क्योंकि मुझे उनके अस्तित्व से ही परिचित नहीं कराया गया था। वे तमाम समय उस कहानी के नेपथ्य में मौजूद थे। वे थे तो यह कहानी बुनी जा सकी थी लेकिन उनका वज़ूद कभी सामने नहीं लाया गया था।

कुछ तत्त्व हमारे जीवन में इस तरह से घुले होते हैं कि हम कभी अलग से उन्हें महसूस करने या उनपर बात करने की ज़हमत नहीं उठाते। साँसों की लय का हर क्षण का आरोह–अवरोह किसने महसूसा है! यह तो ध्यान की अवस्था में ही संभव है। और वह भी बाक़ी सब कुछ भूलकर!

मेरा अवचेतन मन भी शायद घटनाओं को जोड़कर कुछ और बुनना चाहता था। उसे कहीं यह एहसास था कि कुछ तो है जो इस देखी–सुनी जा रही कहानी के परे भी है। इस ज्ञात कहानी के साथ हर बार वह अज्ञात भी साथ चलता है। उसे महसूस किया जा सकता है। लेकिन शायद मैं उसे महसूस करना नहीं चाहती थी।

शायद इसलिए भी कि हम जीवन की तरह कहानी को भी एक ख़ास तरीक़े से सुने जाने के आदी हो जाते हैं। उसमें रंचमात्र का परिवर्तन भी हमें नागवार गुज़रता है। शायद यह भय रहता है कि इस ज्ञात ज़िंदगी का सिरा अगर हाथ से छूटा तो वह अज्ञात जीवन हमें जाने किस भूल भुलैया में भटका दे! ठीक किसी उलझी हुई अधूरी कहानी की तरह। 

हम जीवन को भी किसी पारंपरिक कहानी की तरह ही जीना चाहते हैं, जिसका एक सहज आरंभ हो, रोचक मध्य हो और फिर सुखांत हो। फिर यह तो मेरे जीवन से जुड़ी कहानी थी जिसे अपने सामने घटित होते देख मैं गौरव और आह्लाद से भर उठती थी। उस कहानी में तब रत्ती भर का फेर बदल भी मुझे मंजूर नहीं था। “मैं उस कहानी की श्रोता और पात्र दोनों एक साथ होती थी और अपने सौभाग्य पर इठला उठती थी।” 

अपने पहले उपन्यास की भूमिका पढ़ते हुए अनाहिता थोड़ा ठिठकी। गले में कुछ अटका सा था। शायद स्मृति का कोई टुकड़ा। उसने घूँट भर पानी से गले को तर किया। फिर सामने बैठे श्रोताओं पर नज़र डाली। ज़्यादातर युवा थे। एक युवा लेखिका के उपन्यास अंश को उसके मुँह से सुनने के लिए उत्सुक और आतुर।

लगभग सबके हाथ में उसकी किताब की हस्ताक्षरित प्रति थी। दिल्ली के प्रतिष्ठित क्रॉसवर्ड बुकस्टोर ने कोरोना का प्रकोप थोड़ा कम हो जाने पर उसके उपन्यास का एक रीडिंग सेशन रखा था और तमाम सोशल डिस्टेंसिंग की हिदायतों के बाद भी इस जानी-मानी कलाकार की पहली किताब के आकर्षण में डूबी युवा पीढ़ी खिंची चली आयी थी। हालांकि सुरक्षा उपायों का पूरा ध्यान रखा जा रहा था। 

श्रोताओं के इतनी बड़ी संख्या में आने का कारण शायद अनाहिता का रहस्यमय बोहेमियन जीवन भी था जिसमें सच से ज़्यादा अफ़वाहें भी घुल गईं थी। लोग किताब के बहाने इस आकर्षक युवा स्त्री के जीवन में भी ज्यों झाँक लेना चाहते हों! 

अचानक अनाहिता को थोड़ा भय महसूस हुआ। यह मिलेनियल्स की पीढ़ी जिस तरह का जीवन जी रही, प्रेम और जीवन को लेकर इनके यहाँ जितना वैविध्य, जितना रोमांच और प्रयोग है, कहीं ये कहानी इन्हें निराश न कर दे। लेकिन फिर उसने ख़ुद को ही दिलासा दिया। वह भी तो पाँच साल पहले इनसे कुछ अलग नहीं थी।

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यायावर मन कहीं भी बंधने को तैयार कहाँ था! प्रेम तब गतिशील पैरों को रोकने वाला सबसे बड़ा बंधन प्रतीत होता था। वह भी कहाँ जानती थी कि प्रेम तो दरअसल मुक्त करता है, इतना मुक्त कि आत्मा किसी उन्मुक्त पंछी की तरह निर्बाध आकाश के विस्तार को नापने लगती है। शरीर फूल सा हल्का हो उठता है, पाँवों को नयी दिशा मिलती है और जीवन को उसके तमाम अभिशापों के बाद भी जिए जाने का एक सुंदर कारण। 

पाँच साल पहले अनाहिता भी यह तभी जान पायी जब उसे अपने बचपन की सबसे प्रिय कहानी का अधूरा हिस्सा मिला। किसी उलझे, बेतरतीब जिग सॉ पज़ल की तरह, जिसके सभी बिखरे टुकड़े उसने फिर ख़ुद तलाशे थे। और इसी तलाशने के क्रम में उसे अपनी उलझी हुई ज़िंदगी के सिरे भी मिल गए थे। ज़िंदगी की सभी पहेलियाँ सुलझ गई हों या इसके खड़े किए गए सभी सवालों का उत्तर मिल गया हो, ऐसा तो नहीं हुआ लेकिन जीवन से इश्क़ ज़रूर हो गया था। 

अनाहिता ने एक लंबी साँस भरी और आगे पढ़ने लगी, “मैं यह दावा नहीं करूंगी कि यह कोई ऐतिहासिक कथा है। अगर यहाँ इतिहास है भी तो वह नितांत निजी है। इतिहास का ऐसा टुकड़ा जो अक्सर दर्ज होना छूट जाता है। इस कहानी के सभी पात्र मेरे जीवन से ही उठाए गए हैं। इस दीर्घ कथा के सभी अंश मैंने बचपन से अब तक या तो उन्हीं पात्रों से सुने हैं या फिर ख़ुद उन्हें तलाशा है। सभी टुकड़े जोड़कर उन्हें एक कहानी की तरह बुना है। एक क्रम में बांधने की कोशिश की है। जबकि कुछ कहानियाँ इसके परे रहकर ही सार्थक होती हैं। वे अधूरी होकर भी पूर्ण होती हैं। 

जैसा कि मैंने आरंभ में ही बताया कि इस उपन्यास को लिखने के पीछे मेरी कोई लेखकीय महत्वाकांक्षा नहीं है। ना ही कोई आर्थिक लाभ लेने का उद्देश्य है। यह कहानी दुनिया के सामने लाना मुझे अपना दायित्व लगता था। इस कहानी को दुनिया के सामने आना ही चाहिए था इसलिए भी कि शायद इसी माध्यम से यह अधूरी कहानी पूरी हो सकती थी। शायद इसलिए भी कि इस कहानी को शब्दों के माध्यम से अमर कर देने का मेरा निजी स्वार्थ भी था। 

पिछले एक साल से हम सब अपने मित्रों, सबसे क़रीबी लोगों से भी दूरी बना कर रखने को अभिशप्त रहे। शारीरिक दूरियाँ कई बार दिलों को भी दूर कर देती हैं। यह कहानी लिखते हुए मुझे यह एहसास हुआ कि ह्रदय की प्रगाढ़ता से जुड़े रिश्तों के लिए शारीरिक दूरी कोई मायने ही नहीं रखती। चाहें वे जीवन भर नहीं मिलें लेकिन कभी क्षण भर के लिए भी दूर ही नहीं हुए होते हैं। 

रूप और रामेश्वर की इस कथा में आज़ादी की लौ में सुलगते बिहार के एक कस्बाई इलाक़े की धड़कनें भी शामिल है। एक तरफ़ प्रेम है, स्वप्न है, तो दूसरी ओर नेपथ्य से गूँजती हैं, अंग्रेजों भारत छोड़ो की विप्लवी आवाज़ें। कहीं दूर, शायद क्षितिज की तरफ़ दो आँखें नम हैं। उनमें फिर से मिल सकने की आशा कौंधती है।"

अनहिता ने किताब बंद कर मेज़ पर रख दी थी। अपना रीडिंग ग्लास उतारकर मुस्कुराते हुए सामने बैठे श्रोताओं की ओर देखा। लेकिन किसी ने नहीं देखा कि उसकी आँखों की कोरों पर अटकी कुछ बूंदें बाहर निकलने को बेताब थीं जिन्हें किसी दक्ष कलाकार की तरह उसने काजल की हदों में ही सिमटे रहने का अघोषित आदेश दे दिया था।    

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