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हरे तरबुजों के बीच मटियाये बादामी तरबूज पर हाथ गये और हाथों में लेकर उसे ऊपर किया, हैरान हुए कि अरे, हरों के बीच यह बादामी तरबूज क्‍या कर रहा है? भटकी, अटकी नज़रों दम भर उसे भरपूर देख लिया होगा तब जाकर कहीं ख़याल आया, ओ गो मां, अरे, तरबूज नहीं, यह तो आदमी का कटा सिर है!...

तरबुजों में एक कटा सिर था 

बड़का इमली। घनघोर वृक्ष। महरौली में क़ुतुब मीनार है, सीकरी में बुलंद दरवाज़ा, जसपुर में बड़का इमली। कहते हैं तीन सौ वर्षों से ज़्यादे उम्र हुई। पचास कदम पीछे खड़े होकर देखिए, और फिर देखते रहिए। गुरुजी कहते लोगों को ताड़ी और स्‍कॉच से नशा होता होगा, हमको बड़का इमली देखके होने लगता है! कहते हैं डॉक्‍टर कमल राय की गाड़ी में मशहूर फोटोकार रघु राय कलकत्‍ते से लौट रहे थे, अक्‍टूबर की सांझ का समय था, कोयल नदी पर ज़रा धुआं-धुआं-सा पसरा था, कार की खिड़की से उसी का आनंद ले रहे थे कि तभी दूर से बड़के इमली पर नज़र गई, एकदम दीवाना हो गए, रोको-रोको का हल्‍ला करके कार रुकवाई, भागकर बलुहे मैदान पर दौड़ते गए और जाकर बड़के में गुम हो गए! कार से निकॉन का ताम-झाम तो आधे घंटे बाद बाहर किया, उससे पहले सिर्फ़ देखने के नशे में गुम थे।

कहते हैं अंधेरा होने तक रघु राय ने बड़के की पचासेक तस्‍वीरें खींची होंगी, मगर देर रात डॉक्‍टर कमल ने जब अपने बंगले के पोर्च में स्‍कॉच का पेग खत्‍म करते हुए कहा, 'मगर रघु दा, इनको कहीं छपवाना मती,' तो फोटोकार का मन उतर गया था। डॉक्‍टर कमल राय ही क्‍यों, यहां बहुतों का मानना है बड़के पर जॉन मॅकफरफील्‍ड के भूत का निवास है! 

रघु राय ने बड़के इमली की एक भी फ़ोटो कहीं नहीं छपाई। आज तक नहीं छपाई। 

कहते हैं मुंह-अंधेरे ऐसी ही किसी सुबह का वक़्त था जब हुगली के सेरामपुर और चंदरनगर का मशहूर बदनाम व्यापारी कोयल नदी से घोड़ा निकालकर बड़के के इसी विराटकाया के नीचे पहुंचा और अपने घूमते माथे को काबू करने में असमर्थ, वहीं घोड़े से बलुआही ज़मीन पर गिर पड़ा। तत्क्षण तय किया हुगली से अपना सारा व्यापार हटाकर, यहीं इस पवित्र मार्मिक भूमि पर 'नया जीवन' शुरू करेंगे! 

मतलब जसपुर के नींव पड़ने व जन्‍म की जो बीसेक कहानियां हैं, उसमें एक यह अंग्रेज हाकिम बारिस्‍टर व्यापारी जॉन मॅकफरफील्‍ड की भी नत्‍थी है। अब उसमें कितना सत्‍य का तत्‍व है, कितनी लोक-कल्‍पना इसका वाजिब जवाब तो रिज्‍जू भइया और अपने गुरुजी के ज्ञान-झोले में ही है। अभी गये साल की ही तो बात है, बड़के से पचास हाथ की दूरी पर दुर्गोत्‍सव के अवसर पर 'शकुंतला-संवाद' नाटक से ठीक पहले डॉक्‍टर कमल बाबू कलाकारों का अभिनंदन-संदेश पढ़ रहे थे, पेट्रौमैक्‍स और ट्यूब की मिली-जुली रौशनी में हाथ में माइक लिये एकदम भावुक हो गए थे, बोले, 'बाहर से देखने में छोटी दिखती है, मगर इस जसपुर का गुरुत्‍व बहुत बड़ा है, आपके-हमारे हिसाब से बाहर!

हमारी इस सुजलाम, सुफलाम ममतामयी मातृभूमि को अंबेडकर और धरमपाल सदृश विचारक और इतिहासकार मिले हैं, यह शर्म का विषय है कि उनके ज्ञान को समाज में उसी मात्रा का स्‍थान और सम्‍मान नहीं मिला, जैसे जसपुर के गुरुजी सत्‍यपाल नंदी को हमने अभी तक असम्‍मानित रखा है, डॉक्‍टर धरमपाल के ज्ञान-संसार को बारह खंडों में भारत सरकार प्रकाशित करती है, गुरुजी के वांगमय को हम कब प्रकाश में लाएंगे?' 

कहते हैं भरी सभा में रिज्‍जु भइया रोने लगे थे। हवलदार रामजस तिवारी ने अपनी आंखों से देखा था, हवलदार सदन टोप्‍पो ने देखा था। सरकारी अस्‍पताल की अस्‍थायी मलयाली नर्स मरीना मैथ्‍यू बुदबुदाकर अपनी कुर्सी में करवट बदली थीं, 'वेरी स्‍ट्रेंज दिस लिटिल जसपुर इस। एंड स्‍ट्रैंजली वाइल्‍ड, आई टेल यू!' पाल्‍टा तालियां पीटता इधर से उधर दायें-बायें भागता रहा था। किसी ने उसे समझाने, रोकने की कोशिश की तो पगले ने उसे दांतों से काट लिया था।  

गुरुजी सत्‍यपाल नंदी जसपुर के प्रकाश-पुरुष हैं, जैसे फ़रगाना की घाटि‍यों में आंदीझान को बाबर मिला, जोड़ा सांको को रवि ठाकुर, जसपुर को गुरुजी मिले। मगर प्रताप रिज्‍जु भइया का भी है। मजदूरों की सभा में कभी उनको भाषण देते सुना है? लड़के पाड़ा का क्रिकेट मैच देखने के लिए साइकिल रोक लेते हैं, अस्‍पताल जाती औरतें मनोहरगंज वाले दुर्गा पंडाल के आगे मां के दर्शन के लिए रिक्‍शा रुकवा लेती हैं, कुछ वैसे ही, मोहल्‍ले में रिज्‍जु भइया का भाषण चल रहा हो तो क्‍या मजाल खड़कपुर, आसनसोल कहीं का हो साइंस, कॉमर्स ग्रैजुएट, भइया की चार पंक्तियां सुने और अक-बक मंत्रमुग्‍ध अपनी जगह गड़ा न रह जाये! एक बार रिज्‍जु मंच पर बोलने के लिए खड़ा हो गए तो उसके बाद उनके आगे गौरकिशोर घोष का सगीना महतो- चाय बगान, बस-खदान का एक से एक बड़का लेबर लीडर फेल है। 

आप एक बात बताइये, एक अच्‍छा स्‍पीकर क्‍या होता है? यही न कि मसले की नस और जन का मन जानता है? लोगों के बीच बैठना, उनके साथ हंसना और रोना जानता है। जब चाहे उनको जमीन घुमाता है, और जब मर्जी बने उन्‍हें आसमान में उछाल देता है। एक बार रिज्‍जु भइया को टोककर देखिये? जोसेफ स्तिगलित्झ, पुतिन, बोलसोनारो, बोकारो के इस्‍पात संयंत्र में सोवियत योगदान के पीछे की क्‍या राजनीति थी, जांग चिंग की सांस्‍कृतिक क्रांति और चार की टोली ने चीनी क्रांति का कैसा क्‍या नुकसान किया, आपको कुछ भी जानना हो, जैसलमेर के पुरातत्‍व से लेकर जसपुर का इतिहास, भूगोल, पंचांग-पुराण, भइया कंप्‍लीट इंसाइक्‍लॉपीडिया हैं! बस एक शर्त है कि उनको धीरज से सुनने और गुनने का टाईम देना होगा। जितनी भइया में सुनाने की मुहब्‍बत है, कम से कम उसका आधा आपके सुनने में भी हो। शहर के संज्ञान का एक कोई डंठल उनकी हथेली पर धर दो, भइया डेढ़ घंटे तक उस फुनगी की बाट पर अपने बहलने, आपको टहलाने के काम में निकल जायेंगे! बस उनके हाथ के कुल्‍हड़ में बीच-बीच में खोखन की चाय भरते रहिए!  

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कहते हैं इसी बड़के इमली से लगा बरगद का भी एक विशाल वृक्ष था, विशाल विराट। उम्र और अनुभव में इमली का बड़ा भाई। मगर जॉन मॅकफरफील्‍ड ने घर में एक आदिवासी औरत लाकर बिठा रखी थी, सेनुरी सुगुन, औरत ने मालूम नहीं नौ दिनों का कोई उपवास की थी, ठंडी के भोरे नदी के जल में स्‍नान किया और तीन पहर बीतते न बीतते माता से आक्रांत हुई। झाड़-फूंक के लिए पड़ोस के गोयना से कूली फ़कीरमोहन बुलाये गये। भरी दोपहर अगरबत्तियों की आरती के धुआं-घुले अंधेरों में कूली फ़कीरमोहन औरत के गोड़ के करीब हाथ से हाथ जोड़े, सिर नवाये सोच में डूबे बैठे रहे, फिर जैसे गहरी नींद से जागे हों, चमककर आंखें खोलीं, बीमार के पलंग की इक्‍कीस परिक्रमा किए, फिर अचानक ऐलान किया बरगद पर भूत है। और भूत स्‍त्री मां के लोभ में फंसा हुआ है। जब तक जीवित रहेगा, मां बीमार रहेगी। 

गांव के लोगों में कूली फ़कीरमोहन के देववाणी से विशेष प्रसन्‍नता नहीं हुई। ढेरों थे जिनके मन में बरगद का मोह और आदर था। मगर जॉन मॅकफरफील्‍उ फिरंगी साहब ठहरा, ऊपर से ठसक, माथे का सनकी, कौन उसे समझाये, मुंह लगे। अंग्रेज यूं भी किसी की सुनता नहीं था, फर्र-ठर्र चार फ़रमानों की उसने रसीद काटी, रजिस्‍टर में चढ़ाया, मकान के बाहर निकलकर फूं-फां हुक़्म दिया। सांझ चार का समय होगा, बल्‍लम, भाला, आरा, कुल्‍हाड़ा लिये साहब के आठ नंगे बदन निजी पहलवान थे, बुदबुदाते, मंत्र फूंकते, कूली फ़कीरमोहन के पीछे-पीछे बरगद के नीचे जाकर इकट्ठा हुए, और घंटे-डेढ़ में आसमान छूता जितना भी ऊंचा वह बरगद रहा होगा, टुकड़े-टुकड़े कटकर नीचे ज़मीन पर ढेर हुआ। 

यह अलग बात है कि इसके तीन दिनों के अनंतर मां सुश्री सेनुरी सुगुन भी स्‍वर्ग सिधारीं। रिज्‍जु भइया से पूछो तो जॉन मॅकफरफील्‍ड प्रकरण पर बात करने से अपने को बचा जाते हैं। जॉन मॅकफरफील्‍ड के नाम पर जसपुर में जो तीन हवेलियां चिन्हित की जाती हैं, उनमें से एक जो 1820 के आग में जलने के बाद खत्‍म हो गई थी, और अब उसके घुड़साल की दीवार का एक टुकड़ा मात्र बचा है, उसके बारे में भइया का कहना है यह मुज़फ़्फ़रपुर के देवकी सेठ का निवास था, वह यहां बिहार के फतुहा से आकर बसा था। बंगाल और उड़ीसा में दूर-दूर तक पलटन की छावनियों में उसके घोड़े बिकते थे। घोड़े, अनाज, गांजा देवकी सेठ ने इन तीनों में बहुत पैसा बनाया था, मगर फिर 1857 की आग लगी, और सेठ बरबाद हो गया। जबकि 1857 की उठा-पटक में जॉन मॅकफरफील्‍ड या उसके खानदान का देखिये, कहीं कोई ज़िक्र नहीं मिलता।  

भइया कहते हैं तो विश्‍वास करना ही होगा। मगर कहनेवाले यह भी कहते हैं कि देर रात सुनसान में कभी अकेले कोयल पार करो, पानी के छप-छप से अलग और कोई आवाज़ नहीं होगी, पंछी सोये रहेंगे, प्रकृति सोयी रहेगी, और हो सकता है आपकी यात्रा सुमंगल शांति से निपट जाये, बहुत बार निपटती ही है, मगर यह भी हो सकता है, और बहुत बार हुआ ही है, कि अकेले में कोयल हेलकर निकल रहे हों, और एकदम-से, सनसनाता आपके बाजू से कुछ गुज़र जाये! पूरी देह में बिजली का करंट गुज़रा हो जैसे। था क्‍या, कोई चीज़ थी? कि कुछ भूत-सूत था? किसका भूत? जॉन मॅकफरफील्‍ड का, और किसका?  

याद करिये डॉक्‍टर कमलकृष्‍ण राय ने रघु राय को क्‍या कहा था, यूं ही नहीं कहा था।

इमली से पचास हाथ पच्छिम निकल जाइये तो कोयल के उस मुहाने पहुंच जाइयेगा जहां छठ के दौरान औरतें आरती और भोग की दउरियां उतरवाती हैं, दूर सिवानी तक गायन के तीव्र स्‍वरों का तिरपाल तन जाता है! 

इमली से एक सीध में सीधे डेढ़ सौ हाथ उत्‍तर की ओर निकलते चलिये तो झाड़ी-जंगल होते ठीक वहां पहुंच जाइयेगा जहां से बुध-बियफे जसपुर की तरकारी मंडी का संसार शुरु होता है। लगती महीने में दो ही बार है, लेकिन आपको जसपुरिया रसोई के अंर्तलोक की अंतरंग झांकी लेनी हो तो उसकी वाजिब जगह यही है, पहली, महीने के दूसरे वृहस्‍पतिवार के दिन, दूसरी, महीने के आखिरी बुधवार के दिन। 

सवा-साढ़े चार के अन्‍धेरे में माल लादकर पहुंचते टेम्‍पो, चौकियों का लगना, तिरपालों का तनना, जानवरों और मनुष्‍यों की जो मिश्रित चें-पों शुरु होती है, फिर उसको विराम आठ-साढ़े आठ के बाद ही मिलता है। जैसी जिसकी किस्‍मत और कमाई का नसीब, उसी हिसाब से टेम्‍पुओं की भराई, बेथना, नौरासी, माधोपुर के पसिंजरों की खुशी और नाखुशी बनती है। 

कमर की चुन्‍नी में अपना डेढ़ हाथों का 'झाड़ू-झाड़ा' खोंसे, उस्‍मान की बेवा नौसा बी, झाड़न-बुहारन की अपनी तीन आदिवासी रेजा सखियों की संगत में 'मुंसि‍पल' आफिस के जमील अंसारी के पास मजूरी 'वसूली' को पहुंचती है। आठ रुपये कम-जादे पर बीस मिनट चख-चख। हर दूसरे वृहस्‍पतिवार और चौथे बुध की कहानी। अंसारी को हमेशा लगता कि उस्‍मान की बेवा उनको चौंसठ और चौरासी रुपये की चपत लगा गई, और नौसा अपनी आदिवासिनों के बीच बुड्ढे को कोसती कि माटीमिला उनके पच्‍चीस रुपये खा गया! 

मगर माटी मिले अंसारी और उसके आश्रितों की जिरह में अभी चार घंटों का समय था, चुन्‍नी से आंख पोंछती नौसा बिस्‍तरे में उठ तो गई थी, मगर अभी होश नहीं था कहां है। पैताने आंख मूंदे दुबकी बिल्‍ली पर नज़र गई तो पैरों से ठेलकर उसे दूर किया। पैरों में झनझनाहट महसूस हुई। यह झनझनी अब नया इजाफा है। रहते-रहते लगता है किसी ने पैरों में बिजली का तार छुआ दिया हो। किसी दिन डॉक्‍टर कमल से जाकर बात करेगी। मगर कब करेगी? माटिमिले को बहत्‍तर काम निकलते रहते हैं, इसको खतम करो तो वह बचा रहता है, उसको खतम करो तो, सबको बुहारकर चैन से खटिये की अड़चन पर बैठे, चैन की चार सांस ले, ऐसा कभी बनता ही नहीं। कैसे बनेगा, नौसे ने सोचा और बिस्‍तरे से पैर नीचे करके चप्‍पल खोजने लगी। एक मिला, दूसरा मालूम नहीं बिल्‍ली कहां रख आई थी। मगर नौसा को ही क्‍यों, किसी को फुरसत नहीं। सब लगे हुए, मालूम नहीं क्‍या है जिसमें आंख मूंदे धंसे हुए हैं।

डॉक्‍टर कमल ही अब कहां पकड़ में आते हैं? पहले कहीं भी हंसते हुए टकरा जाते, खुद तुम्‍हारे पीछे-पीछे आते, कि ऐसे नहीं चलेगा, साफ पानी पियो, समय से खाना खाओ, और कोई भी दिक्‍कत हो, आकर मिलो हमसे! क्‍लि‍निक में नहीं हूं तो घर आकर मिलो, मगर लापरवाही नहीं चलेगी! ऐसा तो अच्‍छा अपना कमल डॉक्‍टर, सामने बैठकर उसकी चार बातें सुन लो, आधी बीमारी तो वैसे ही उतर जाये! मगर अब कहां पकड़ में आते हैं कमल डॉक्‍टर? पैदल सबके बीच खड़े सुख-दु:ख बांटनेवाला अब चकमक गाड़ी में कभी यहां भाग रहे हैं, कभी वहां। सबका यही हिसाब है। सब भाग रहे हैं। मालूम नहीं इतना भागकर जाना कहां है? मकान बनवाना है, जामुन के पेड़ पर चढ़ना है? ठीक है, चढ़ लो जामुन पर, छू लो उसके सबसे ऊपर की फुनगी, उसके बाद? 

बस एक अकेले गुरुजी ही हैं जिनको भागकर कहीं नहीं जाना। बाकी दुनिया जामुन के पेड़ पर चढ़ रही है, गुरुजी ने खुद को घर में बंद कर लिया है। दुनिया चबर-चबर करती रहती है, गुरुजी ने मुंह पर कपड़ा बांध लिया है। नौसा ही क्‍यों, जो सामने पड़ जाये, सबका हाल लेते थे। मुंह नीचा किये हंसते रहते। अब गुरुजी कुछ नहीं करते। सामने पड़ जाओ तो ऐसे आंख फेरकर निकल जाते हैं मानो पहचानते भी नहीं। और तो और अपने सगे बेटे तक को नहीं पहचानते! शेखर नंदी आकर दरवाजा पीटता है, गुरुजी अंदर तखत पर लेटे रहते हैं, दरवाजा नहीं खोलते। डाक्‍टर कमल राय जानते हैं, रिज्‍जु भइया को खबर है, कितने लोगों ने समझाने की कोशिश की, ऐसी क्‍या बात हुई, यह ठीक नहीं है गुरुजी। लेकिन गुरुजी ने तय कर लिया है कि यही ठीक है। और एक बार जब गुरुजी ने तय कर लिया हो तो फिर कोई उन्‍हें उनके रस्‍ते से नहीं हटा सकता। उनका अपना खून, उनका दुलारा, इकलौता जिद्दी बेटा भी नहीं! 

इतने महिने हुए किसी ने मंडी में गुरुजी को टहलते-बहलते देखा? और कुछ नहीं तो गरीब पबित्रो साहू का हौसला बढ़ाने ही चले आयें, तरबुजों की उसकी सजावट पर दो बोल बोल दें? 

जसपुर थाने का स्‍टेशन इंचार्ज मुन्‍ना खान भी जानता है गुरुजी खाली नहीं हैं, न मकान में बंद। साधना-पुरुष बंद नहीं होते, बाहर-बाहर दिखता है, ठहरे हुए हैं, बंद हैं, लेकिन मन ही मन वह किसी लम्‍बी यात्रा पर निकले होते हैं। गुरुजी भी कहीं निकले हुए हैं। बाद को खबर होगी कहां निकले हुए हैं। सवा लाख आबादी के शहर की बहुत सारी बातें हैं, छै फुट का लहीम-शहीम, काले संगमरमर का बना, खल्‍वाट माथे के थोड़े बचे खिचड़ी बालों और फैले गलमुच्‍छों पर तिरपन वर्षों की उंगलियां फिराता, आंखें मूंदे मुन्‍ना खान बहुत सारी बातों के साथ गुरुजी की सोचता है। उनके इकलौते सुपुत्र शेखर नंदी के बारे में सोचता है। ज्ञान, धन, गुणी नौजवान को सब हासिल हुआ, फिर भी ऐसा नाखुश रहता है, इतना नाखुश क्‍यों रहता है। बाप से भागा, दूर खड़गपुर में रहता है, और किसी दिन लौटकर आता है तो दरवाजा पीटता लगता है बाप से सिर्फ़ झगड़ने आया है! 

गुरुजी न आयें, हो सकता है आज पबित्रो साहू के तरबुजों की ओर एक मीठी नज़र मारने मुन्‍ना खान ही चले आयें। खांसते, खखारते जमील मियां के दफ्तर के आगे दस मिनट को मंडी का हाल-चाल लेने को ठहर लें, अंसारी इशारों में उनके लिए दूध औंटाई चाय मंगवाये, अपनी खांसियों में बेदम हाथ फटककर मुन्‍ना चाय खारिज करें, अंसारी के निहोरे पर फिर उनके लिए काली मिर्च, अदरक की नींबू वाली चाय मंगवाई जाये। 

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मगर अभी भी सिर्फ़ साढ़े चार का वक़्त हुआ था, मुन्‍ना खान थाने में थे, ना अपनी पीली, पुताई में अब फीकी पड़ रही, अपने दो मंजिला मकान पर ही थे। फिर कहां थे मुन्‍ना खान? यह सवाल ख़ुद मुन्‍ना खान को परेशान किये था, और पिछले कई महीनों से कर रहा था। 

पबित्रो साहू ठीक वहीं था जहां इस वक़्त उसे होना था, जबकि पबित्रो के पैरों के नीचे सबसे ज्‍यादा बलुआ जमीन रही थी, हमेशा से रही थी। पैसों की कमाई नहीं हुई। तीन कमरों का एक छोटा पुराना पैतृक मकान था तो बड़े भाई ने होशियारी दिखाकर पबित्रो को उस घर से बाहर कर दिया, व्‍याहकर एक औरत लाया तो वह उसे पास फटकने नहीं देती थी, दुरदुराकर दूर करती रहती कि बास मारता है। एक बच्‍चा हुआ, पबित्रो का नहीं, पड़ोस के एक अहीर की औलाद था, मगर वह बच्‍चा भी ज्‍यादे समय जीवित नहीं रहा। फिर एक दिन स्‍त्री किसी मैकेनिक के पीछे कलकत्‍ता भाग गई।

पवित्रो को कभी किसी ने शिकायत करते नहीं सुना। उसके हाथ में झोली भर भांटा दे दो, ठेले का हरा-लाल टमाटर दे दो, पबित्रो खुश-खुश उनकी ढंग से साफ-सफाई, नहलाने, सजाने का काम कर देगा। झोंपड़े से तीन सेम और लौकी की लतर लगी होंगी, उनकी कतर-ब्‍यौंत में दिन भर प्रसन्‍न बना रहेगा। थाली में किसी का रांधा खाने को मुट्ठी भर भात मिल गया तो ठीक, डेढ़ रोटी मिल गई तो वह भी ठीक। नहीं मिली तो उसके लिए किसी के यहां शिकायत करने नहीं जायेगा।  

पबित्रो साहू वहीं था जहां इस वक़्त उसे होना था, ठेले से उठाता सहेज-संभालकर हरे, भारी तरो-ताज़ा तरबुजों को नीले प्‍लास्टिक के सजावटों में ढंकी पेटीवाले पटरियों पर क्रमवार सजाता चल रहा था। आप चाहो तो ठेले से पबित्रो के तरबूज उठाने, लहराकर इस हाथ से उस हाथ में लेने, और चार कदमों के सधे तान पर पटरों पर उन्‍हें वापस धरने में संगीत का धुन सुन लो।  

आज के बारे में बस इतना एक फ़र्क यह उसमें जोड़ सकते हैं कि पबित्रों के हाथों में आज वह हमेशा वाली लचक न थी, जैसे कुछ था जो आज उसे रोक और खींच रहा था। ठेले से अभी बीसेक तरबुजे उठाये होंगे कि इसका राज़ खुला! 

हरे तरबुजों के बीच मटियाये बादामी तरबूज पर हाथ गये और हाथों में लेकर उसे ऊपर किया, हैरान हुए कि अरे, हरों के बीच यह बादामी तरबूज क्‍या कर रहा है? भटकी, अटकी नज़रों दम भर उसे भरपूर देख लिया होगा तब जाकर कहीं ख़याल आया, ओ गो मां, अरे, तरबूज नहीं, यह तो आदमी का कटा सिर है! आदमी का कटा हुआ सिर! सोचकर जैसे पूरी देह में सनसनाता, कनपटी पर किसी ने तमाचा जड़ दिया हो जैसा एक झन्‍नाकेदार करंट लगा, आदमी के कटे सिर का मटियाया गोला हाथों से छूट, नीचे ज़मीन पर गिरा, और स्‍लो-मोशन में लुढ़कता ठेले के पिछले पहियों से जाकर लगा, और अटककर वहीं थम गया। पबित्रो साहू बेहोश नहीं हुए थे, मगर अभी होश में भी नहीं थे, आंखें गोले पर गड़ी थीं, मगर यह सूझ नहीं रहा था कि यह गोला है क्‍या, क्‍यों है, उनके तरबुजों की थोक में कहां से आया, क्‍यों आया? 

माथे में लगा जैसे सोचने की सारी ताक़त किसी ने डॉक्टर की सूई घोंपकर ऊपर खींच ली हो। कटे पेड़-सा धम्‍म वहीं दुकान के मुहाने भरभराये बैठ गए। कंठ सूख गया। चाहते तो उठकर पिंछाहे एक घड़ा पड़ा था, उससे निकालकर पानी पी सकते थे, मगर उठकर वहां तक जाने की देह में ताक़त नहीं बची थी। देह किसी काम का नहीं बचा था। किसी तरह नीचे गिरा हाथ ऊपर किया, चेहरे पर फिराकर नज़रें साफ़ करने की कोशिश की। नज़रें उसी मटियाये गोले पर गिरी, पड़ी, जमी रही। मन हुआ ज़ोर से एक बार आवाज़ दें, रामरथ, पुजारी, मुश्‍ताक, हेम्‍ब्रम कोई तो भागकर आयेगा, इस घबराहट और सन्‍नाके से निकालकर उन्‍हें बाहर करेगा? मुंह में ज़रा हरकत हुई, मगर आवाज़ नहीं निकली, और तब अचानक ध्‍यान गया कि कटा सिर रिज्‍जु भइया का है!

वह तो उस्मान की बेवा थी, कमर पर चुन्नी के फेंटे में झाड़ू खोंसे पबित्रो मियां की खोज-खबर लेने आई थी, कि चाय-साय का पता कर ले, गरीब को क्‍या मालूम किसी और मदद की गरज हो, कि ठेले के पहिए पर नौसा की निगाह गई और दिमाग़ घूम गया। दमे की पुरानी मरीज, आमतौर पर थकान में मुंह खुला ही रहता, अब समूचा खुल गया, और मंडी में दूर तक चीख़ गूंजी, "भइया.. रि.. रि.. रि.. रि.. रे मइया.. भइया हो!" 

पांच बजने में अभी भी आठ मिनट बाकी थे, मंडी की नीम अंधेरी दुनिया में  हड़कंप मच गया।  

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