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ग़ालिब छुटी शराब, पर अब भी कभी-कभी पीता हूं रोज़े-अब्रो-शबे-माहताब में

दवा-दारू

13 अप्रैल 1997। बैसाखी का पर्व। पिछले चालीस बरसों से बैसाखी मनाता आ रहा था। वैसे तो हर शब बैसाखी की शब होती थी, मगर तेरह अप्रैल को कुछ ज़्यादा ही हो जाती थी। दोपहर को बियर अथवा जिन और शाम को मित्रों के बीच का दौर। मस्ती में कभी कभार भांगड़ा भी हो जाता और अंत में किसी पंजाबी ढाबे में भोजन, ड्राइवरों के बीच। जेब ने इजाज़त दी तो किसी पांच सितारा होटल में सरसों का साग और मकई की रोटी। इस रोज़ दोस्तों के यहां भी दावतें कम न हुई होंगी और ममता ने भी व्यंजन पुस्तिका पढ़ कर छोले भटूरे कम न बनाए होंगे।

मगर आज की शाम, 1997 की बैसाखी की शाम कुछ अलग थी। सूरज ढलते ही सागरो मीना मेरे सामने हाज़िर थे। आज दोस्तों का हुजूम भी नहीं था - सब निमंत्रण टाल गया और खुद भी किसी को आमंत्रित नहीं किया। पिछले साल इलाहाबाद से दस-पंद्रह किलोमीटर दूर इलाहाबाद-रीवा मार्ग पर बाबा ढाबे में महफ़िल सजी थी और रात दो बजे घर लौटे थे। 

आज माहौल में अजीब तरह की दहशत और मनहूसियत थी। जाम बनाने की बजाए मैं मुंह में थर्मामीटर लगाता हूं। धड़कते दिल से तापमान देखता हूं - वही 99.3। यह भी भला कोई बुखार हुआ। एक शर्मनाक बुखार। न कम होता है, न बढ़ता है। बदन में अजीब तरह की टूटन है। यह शरीर का स्थाई भाव हो गया है - चौबीसों घंटे यही आलम रहता है। भूख कब की मर चुकी है, मगर पीने को जी मचलता है। 

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पीने से तनहाई दूर होती है, मनहूसियत से पिंड छूटता है, रगों में जैसे नया खून दौड़ने लगता है। शरीर की टूटन गायब हो जाती है और नस-नस में स्फूर्ति आ जाती है। एक लंबे अरसे से मैंने ज़िंदगी का हर दिन शाम के इंतज़ार में गुज़ारा है, भोजन के इंतज़ार में नहीं। अपनी सुविधा के लिए मैंने एक मुहावरा भी गढ़ लिया था - शराबी दो तरह के होते हैं : एक खाते-पीते और दूसरे पीते-पीते। मैं खाता-पीता नहीं, पीता-पीता शख़्स था। मगर ज़िंदगी की हकीकत को जुमलों की गोद में नहीं सुलाया जा सकता। 

वास्तविकता जुमलों से कहीं अधिक वज़नदार होती है। मेरे जुमले भारी होते जा रहे थे और वज़न हल्का। छह फिट का शरीर छप्पन किलो में सिमट कर रह गया था। इसकी जानकारी भी आज सुबह ही मिली थी। दिन में डॉक्टर ने पूछा था - पहले कितना वज़न था? मैं दिमाग पर ज़ोर डाल कर सोचता हूं, कुछ याद नहीं आता। यकायक मुझे अहसास होता है, मैंने दसियों बरसों से अपना वज़न नहीं लिया, कभी ज़रूरत ही महसूस न हुई थी। डॉक्टर की जिज्ञासा से यह बात मेरी समझ में आ रही थी कि छह फुटे बदन के लिए छप्पन किलो काफी शर्मनाक वज़न है। जब कभी कोई दोस्त मेरे दुबले होते जा रहे बदन की ओर इशारा करता तो मैं टके-सा जवाब जड़ देता - बुढ़ापा आ रहा है।

मैं एक लंबे अरसे से बीमार नहीं पड़ा था। यह कहना भी ग़लत न होगा कि मैं बीमार पड़ना भूल चुका था। याद नहीं पड़ रहा था कि कभी सर दर्द की दवा भी ली हो। मेरे तमाम रोगों का निदान दारू थी, दवा नहीं। कभी खाट नही पकड़ी थी, वक्त ज़रूरत दोस्तों की तीमारदारी अवश्य की थी। मगर इधर जाने कैसे दिन आ गए थे, जो मुझे देखता मेरे स्वास्थ्य पर टिप्पणी अवश्य कर देता। दोस्त-अहबाब यह भी बता रहे थे कि मेरे हाथ कांपने लगे हैं। 

होम्यापैथी की किताब पढ़ कर मैं जैलसीमियम खाने लगा। अपने डॉक्टर मित्रों के हस्तक्षेप से मैं आजिज़ आ रहा था। डॉ. नरेंद्र खोपरजी और अभिलाषा चतुर्वेदी जब भी मिलते क्लीनिक पर आने को कहते। मैं हंसकर उनकी बात टाल जाता। वे लोग मेरा अल्ट्रासाउंड करना चाहते थे और इस बात से बहुत चिंतित हो जाते थे कि मैं भोजन में रुचि नहीं लेता। मैं महीनों डॉक्टर मित्रों के मशवरों को नज़रअंदाज करता रहा। उन लोगों ने नया-नया ‘डॉप्लर' अल्ट्रासाउंड खरीदा था - मेरी भ्रष्ट बुद्धि में यह विचार आता कि ये लोग अपने पचीस-तीस लाख के ‘डॉप्लर' का रोब ग़ालिब करना चाहते हैं। 

बाहर के तमाम डॉक्टर मेरे हमप्याला और हमनिवाला थे। मगर कितने बुरे दिन आ गए थे कि जो भी डॉक्टर मिलता, अपने क्लीनिक में आमंत्रित करता। जो पैथालोजिस्ट था, वह लैब में बुला रहा था और जो नर्सिंगहोम का मालिक था, वह चैकअप के लिए बुला रहा था। डॉक्टरों से मेरा तकरार एक अर्से तक चलता रहा। लुका-छिपी के इस खेल में मैंने महारत हासिल कर ली थी।

डॉक्टर मित्र आते तो मैं उन्हें अपनी मां के मुआइने में लगा देता। मां का रक्तचाप लिया जाता, तो वह निहाल हो जातीं कि बेटा उनका कितना ख़्याल कर रहा है। बग़ैर मेरी मां की ख़ैरियत जाने कोई डॉक्टर मित्र मेरे कमरे की सीढ़ियां नहीं चढ़ सकता था। मां दिन भर हिंदी में गीता और रामायण पढ़तीं मगर हिंदी बोल न पातीं, मगर क्या मजाल कि मेरा कोई भी मित्र उनका हालचाल लिए बगैर सीढ़ियां चढ़ जाए; वह जिलाधिकारी हो या पुलिस अधीक्षक अथवा आयुक्त। 

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वह टूटी-फूटी पंजाबी मिश्रित हिंदी में ही संवाद स्थापित कर लेतीं। धीरे-धीरे मेरे हमप्याला हमनिवाला दोस्तों का दायरा इतना वसीह हो गया था कि उसमें वकील भी थे और जज भी। प्रशासनिक अधिकारी थे तो उद्यमी भी, प्रोफेसर थे तो छात्र भी। ये सब दिन ढले के बाद के दोस्त थे। 

कहा जा सकता है कि पीने पिलाने वाले दोस्तों का एक अच्छा-खासा कुनबा बन गया था। शाम को किसी न किसी मित्र का ड्राइवर वाहन लेकर हाज़िर रहता अथवा हमारे ही घर के बाहर वाहनों का तांता लग जाता। सब दोस्तों से घरेलू रिश्ते कायम हो चुके थे। सुभाष कुमार इलाहाबाद के आयुक्त थे तो इस कुनबे को गिरोह के नाम से पुकारा करते थे। आज भी फोन करेंगे तो पूछेंगे गिरोह का क्या हालचाल है।

आज बैसाखी का दिन था और बैसाखी की महफ़िल उसूलन हमारे यहां ही जमनी चाहिए थी। मगर सुबह-सुबह ममता और मन्नू घेर-घार कर मुझे डॉ. निगम के यहां ले जाने में सफल हो गए थे। दिन भर टेस्ट होते रहे थे। खून की जांच हुई, अल्ट्रासाउंड हुआ, एक्सरे हुआ, गर्ज़ यह कि जितने भी टेस्ट संभव हो सकते थे, सब करा लिए गए। रिपोर्ट वही थी, जिस का खतरा था - यानी लिवर (यकृत) बढ़ गया था। दिमाग़ी तौर पर मैं इस ख़बर के लिए तैयार था, कोई खास सदमा नहीं लगा।


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