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हमें मरने से बहुत डर लगता था इसलिए हमारे बीच साथ मरने की कसम का ज़िक्र भी नहीं आया। पर हमारा पक्का इरादा साथ -साथ बी.ए. करने का था। हमने ये भी तय कर रखा था कि अगर एक का विश्वविद्यालय में नहीं हुआ तो दूसरा भी छोड़ देगा।

कसम 

जिन दिनों प्रेम कोई पैमाना बनेगा, और वो भी हमारा प्रेम, तब ओमानी शहर को भारत की राजधानी बना देना होगा। मेरे मन का सूनापन हमारी अवामी पहचानी बन जाएगा जैसे मोर राष्ट्रीय पक्षी है, जैसे हॉकी राष्ट्रीय खेल है।  जिन्हें शामें बेचैन कर देती है उन्हें विशिष्ट नागरिक का दर्ज़ा दिया जाएगा।  फिलहाल इस शहर को राजधानी बना देने वाली बात पर हम ज़रा देर ठहरते हैं।  

तेज रफ़्तार रेलगाड़ियों के चलते यह ओमानी शहर देश के किसी भी कोने से अधिकतम सोलह-सत्रह घंटे की दूरी पर रह गया है। जिसे कहते हैं देश के बीचो-बीच होना। जिनके पास पूरे साल में बीस दिनों की छुट्टी भी न हो, उनके लिए यह सफर पूरी हो सकने वाली उम्मीद की तरह है, शर्त ये कि वो प्रेम करते हों। 

वैसे हम दोनों में से किसी की ओमानी नहीं आना था। नई नौकरी के अभी छ : महीने भी नहीं हुए थे। छुट्टियों की गुंजाईश कम थी और एक साथ छुट्टी मिलना अंसभव था। इससे भी ज़्यादा यह कि हमने ख़ुद अपने रास्ते एक दूसरे को तकलीफ़ पहुंचाने के लिए ही चुने थे। इससे उपजे दुःख को भी अकेले-अकेले ही सहना था।  

हम अपनी कैसी भी तकलीफ़ एक-दूसरे को नहीं बताते थे। जहाँ हम पिछड़ रहे होते वहाँ भरसक कोशिश करते कि हममें से दूसरा जानने न पाए। ऐसा कतई नहीं था कि हम एक दूसरे को अपने जीवन की आँच से बचाना चाहते हों। मसला उससे जुदा था। हम दोनों आपस में दुश्मन थे। हमारी शत्रुता इतनी ऊँची थी, हमारे दाँव इतने गहरे होते थे और चोट इतनी गंभीर कि यही हमारी मित्रता के कारण भी थे।  

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उसका नाम मेघा है। मेघा शाही। 

इंटरमीडिएट के आख़िरी दिनों की हमारी शुरूआती मुलाक़ात है। वो साइंस से थी और पढ़ने लिखने वाली थी। उन दिनों को याद करूं तो लगता है सब कुछ पहले से तय था पर उन दिनों हमें हरेक बात घोर अनिश्चय से भरी लगती थी। जैसे उसका बाय करना। 

कभी कभी लगता था कि जाते हुए उसने झटके से 'बाय' क्यों कहा?  क्या वो मुझसे दूर जाना चाहती है?  कोई दूसरी वजह?  फिर तो अगली मुलाक़ात तक जो डर और बेचैनी बनी रहती थी कि क्या कहिए?  मैं सोचता था, बाय करते हुए उसकी पाँचों ऊंगलियां और पूरी हथेली दिखी थी या सिर्फ़ दो ऊंगलियों से किया छोटा सा बाय था?  एक तो बनारस का मौसम - साला हर वक़्त जैसे आत्मा में धूल उड़ती रहती है। चौराहे बेचैन लोगों से भरे रहते हैं।

मैं मुश्किल में था और एक दिन अधिकार जगाते हुए बोला - 'मेघू जिस दिन अच्छे से बाय नहीं करती हो उस दिन बहुत डर लगता है, जैसे मेरा अब क्या होगा?' जानते हैं उसने क्या किया? पहले मुझे देखती रही, फिर मुस्कराई और कहा - अच्छा बच्चे ! और मुझे बाय करना ही छोड़ दिया। हमारे प्रेम के शुरूआती महीने इतने ज़ोरदार थे कि घर वालों और बाहरवालों के दिमाग की नसें ढीली हो गई थीं। उन्हें दुनिया में हमसे अलग कुछ दिखता ही नहीं था। हम पर समझाईशों के चौतरफा हमले हो रहे थे। दोनों घरों के निवासी शर्मशार थे। मेरे पिताजी एक राजनीतिक पार्टी की ही नींद सोते थे। हमारे प्रेम के शुरूआती वर्ष में ही वो पार्टी चुनाव हार गई। इस पर पिताजी जैसे तुर्रम खां समर्थक का कहना था : हार गई तो हार जाए। हम तो साला घर में ही हार गए।  

मेघा हँस-हँस के बताती थी, कैसे-कैसे तरीकों से उसे समझाया जाता है?  घर के अन्य लोगों को अपनी हँसी से मौके पर ही परास्त कर देती थी। पर अपने पिताजी और बड़े भईया की बात बताते हुए उसकी बातों में एक अविश्वास रहता था। उसे ख़ुद नहीं भरोसा होता था कि ये समझाईश उसके पिता और भाई की है। उनकी बातें सुना लेने के बाद उनका भी पक्ष तैयार रखती थी। कहती थी- 'मेरे भईया सबसे अच्छे हैं, कुछ कहते हैं तो सही ही कहते होंगे।' पापा मुझे ऐसा मानते हैं भईया मुझे वैसा मानते हैं। पापा ये भईया वो। भईया ये पापा वो। 

तुर्की-ब-तुर्की अगर कभी मैं कह देताः ' मैं भी तो तुम्हें मानता हूं।' इस पर बिगड़ जाती थी। इशारे से कहती- मुंह बंद। इस तरह अपने घर वालों को पूरे छ : महीने हमने संशय में डाले रखा। फिर जैसे मेघा से घर वालों का दुःख देखा नहीं गया और उसने एक ऐसा खेल कर दिया कि हम पता नहीं क्या हो गए। हमें मरने से बहुत डर लगता था इसलिए हमारे बीच साथ मरने की कसम का ज़िक्र भी नहीं आया। पर हमारा पक्का इरादा साथ-साथ बी.ए. करने का था। हमने ये भी तय कर रखा था कि अगर एक का विश्वविद्यालय में नहीं हुआ तो दूसरा भी छोड़ देगा। 

 विश्वविद्यालय का कैम्पस हमारे लिए नया था। चारों तरफ ऊँची बड़ी इमारतों से घिरे मैदान थे। जिनमें घास बेतरतीब उगी थी और उन मैदानों का एकांत अजीब तरीके से प्यारा लगता था। उस घास पर ढलती शाम की तो पूछिए मत। 

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उस दिन फॉर्म जमा कर मैं वहीं बैठा हुआ था और इंतजार कर रहा था। इक्का दुक्का कोई दिख गया, वरना वहां निराव था। तभी वो आई और तैयार होकर आई थी। किसी भी सवाल का सीधा जवाब नहीं दे रही थी।  मैंने पूछा- कैसे आई?  उसने जवाब दिया- पैदल आई हूं और नहीं तो क्या हवाई जहाज से आऊंगी?  मैं चुप हो गया। 

उसके इस अंदाज से मैं वाक़िफ़ था पर उस दिन वो जिस हड़बड़ी और झल्लाहट से बात कर रही थी उस पर मुझे आश्चर्य हुआ। बात की बात में उसने धुंए जैसी बात बताई - ' मैं बी.एस.सी. में एडमीशन ले रही हूं। फिजिक्स, केमेस्ट्री, मैथ्स।'

ये कोई दूसरा नहीं, मेरी मेघा कर रही थी। उस शाम फिर हममें कोई बात नहीं हुई। बैठे रहे। मैं अपने बारे में सोचता तो पाता कि मेघा के बारे में सोच रहा हूं। ख़ुद को बार-बार एक भीड़ में पा रहा था। पहले दृश्य में सिर्फ मेघा मेरे साथ थी पर दृश्य बदलते ही वो हाथ छुड़ाकर भीड़ में शामिल होती दिखती थी। 

मैं समझ नहीं पा रहा था ये सब कैसे हुआ?  मेघा ने ऐसा क्यों किया?  वो मुझे पहले भी बता सकती थी। उसने सोचा होगा, मैं साथ साथ बी.ए. करने की ज़िद करूँगा। उसने मुझे दुश्मन समझा होगा। दुश्मन के लिए कुछ चालें सोची होंगी। साथ साथ बी.ए. करने का सुंदर ख्याल भी मेघा का ही था। उसने मुझ पर ही भरोसा नहीं दिखाया। मेघा के किए को समझना आसान था पर अकेले छोड़ दिए जाने के डर का मैं क्या करता?  

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