एपिसोड 1

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अनुक्रम

एपिसोड 1-3 : मेरे और नंगी औरत के बीच
एपिसोड 4-7 : चालीस के बाद प्रेम

नए एपिसोड, नई कहानी
एपिसोड 8-9 : प्रेमिका

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अचानक मुझे अनुभव हुआ कि वह बिल्कुल नंगी है। वह घुटनों में सिर देकर और इतना आगे को झुककर बैठी थी कि अगर नंगी न होती तो उस तरह बैठ ही न पाती।

कहानी: मेरे और नंगी औरत के बीच

आमने-सामने

औरों की ही तरह मैं भी आमतौर से किसी असाधारण व्यक्ति को देखकर प्रभावित हो जाता हूं, पर कभी भी वह प्रभाव मुझे यह अनुमति नहीं देता कि उस व्यक्ति को एक चरित्र बनाकर प्रस्तुत कर सकूं। ऐसा करना मेरे मन को उस व्यक्ति का सरासर अपमान करना जान पड़ता है। वह विचित्र है तो मुझे उसकी असाधारणता को किसी भावना से देखने का अधिकार नहीं है, न दया से, न स्नेह से, न क्रोध से, न विरक्ति से। उसके बाक़ी सबसे अलग होने के तथ्य को स्वीकार करना ही या तो बाक़ी सबकी हीनता को या अपनी निज की श्रेष्ठता को या दोनों को घोषित करना है और यह मेरी मानवीयता में शामिल नहीं।

हां, यह सम्भव है कि उसकी असाधारणता को मैं देखना ही न चाहूं यानी उस वैचित्र्य को जिसे दुनिया देखेगी। जैसे कोई लूला है तो मैं यह न देखूं कि उसके एक हाथ नहीं है, बल्कि सिर्फ़ यह देखूं कि वह एक आदमी है जिसके एक हाथ का न होना ही उसके शरीर का एक अंग है और बाक़ी सब उस पर छोड़ दूं। वह ख़ुद अपने को कैसे देखता है या मैं उसे कैसे देखना चाहूंगा, यह सब मेरे लिए अप्रासंगिक हो जाए, नहीं, निश्चित रूप से अपमानमूलक हो जाए।

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यह तो हुई मेरे कलाकार की मान्यता, पर इससे अलग एक मेरी अपनी मान्यता भी है और वह यह है कि असाधारण व्यक्ति को साधारण करते समय जिस पद्धति से मैं गुज़रता हूँ, उसे अपने लिए असाधारण रूप से महत्त्वपूर्ण मानता हूं; इसलिए कभी-कभी उसे याद रखने की भी कोशिश कर लेता हूं। दुर्भाग्य कि बस वहीं से कहानी बननी आरम्भ हो जाती है।

इसी तरह उस रोज़ रात को भी हुआ। मैं हरगिज़ नहीं चाहता था कि कहानी लिखूं, मैंने तो यह भी न चाहा था कि मैं यात्रा करूं, और यह तो निश्चय ही है कि उसके मेरे सामने बैठे होने में मेरी इच्छा का हाथ बिल्कुल न था। 

हम दोनों आमने-सामने बैठे थे। मैं अकेला था सिवाय उस विशेष प्रकार की गरमई के जो जाड़ों के मौसम में बहुधा काफ़ी दूर तक आदमी का साथ दिया करती है - गर्मियों में मैं कम अकेला अनुभव करता हूं: नग्न अकेला होने के कारण अरक्षित रहता हूँ - पर इस बार वह गरमाई भी एक तनी हुई गरमाई थी, टूटने-टूटने को नहीं, उस स्थिति में पहुंचने से काफ़ी पहले, ठण्ड से मिली हुई अरक्षा की एक हल्की-सी भावना।

हम दोनों आमने-सामने बैठे थे। मैं अकेला था और देशी ढंग के गरम कपड़ों के ऊपर मैंने भारी ओवरकोट पहन रखा था (मुझे हमेशा इस तरह ओवरकोट पहनने में लगता है कि वह भी कोई देशी पोशाक है)। पिछले तीन-चार साल से कानों और पैरों में ज़्यादा ठण्ड लगने लगी थी इसलिए मैंने एक मुलायम गुलूबन्द और हाथ का बुना मोज़ा भी पहन रखा था जिसका रंग दुर्भाग्य से हरा था (उस बेमेल मोज़े को क्षमा करने में मुझे काफ़ी शक्ति लगानी पड़ी पर फिर अन्त में वह मुझ से घुल-मिल गया)।

मैं काफ़ी आराम से था, इतना काफ़ी जितना कि एक हल्की-सी अरक्षा की भावना के निरंतर रहते ही कोई हो सकता है : उससे कम से कम एक अखण्ड प्रवाह तो रहता है।

अचानक मुझे अनुभव हुआ कि वह बिल्कुल नंगी है। वह घुटनों में सिर देकर और इतना आगे को झुककर बैठी थी कि अगर नंगी न होती तो उस तरह बैठ ही न पाती। पहले तो लगा उसका सिर-पैर ही नहीं है पर फिर मैंने देखा कि उसके सिर पर छोटे-छोटे बाल थे और वह नंगी नहीं थी, सिर्फ़ लगती थी जैसे कि अपनी उस स्थिति में वही उसके लिए स्वाभाविक है ।

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वह बिल्कुल स्थिर थी, कांप नहीं रही थी,  न आसन बदल रही थी। मुझे लगा कि उसका वस्त्र और उसकी पीठ मिलकर एक हो गई है : गहरे तक एक हो गई है और उसका रूपाकार भी उसी की देह में घुल-मिलकर उससे संपृक्त हो गया है।

पता नहीं क्यों मूर्ख की भांति मैं आंखों से उसके उरोज खोजने लगा (तब तक मैं यही समझता था कि स्त्री का शरीर बिना उनके पूरा नहीं होता) न, बहुत कोशिश करने पर भी वह कल्पना मेरी आँखों के सामने साकार न हो सकी जो मैं एक वस्तु के सम्मुख रहते हुए भी उसमें कर रहा था। स्त्री के रूप से रूढ़ अनेक प्रचलित चित्र मेरे मन तक आए पर दृश्य बन सकने का सामर्थ्य उनमें न था। वही शरीर, वही ढेर, वही घुमाव और वही सन्तुलन मुझे अपने चारों ओर के आकाश में से फूटकर निकला हुआ-सा दिखाई देता रहा। मैंने देखा कि मैं उसमें जो खोज रहा था वह पूर्ण रूप से निवार्य था, अनावश्यक था और स्पष्टतः व्यर्थ था।

(यहां मेरी कहानी ख़त्म हो जानी चाहिए। पर तभी मेरे इन विचारों को जड़ से ढहाता हुआ एक रेला आता है और मैं एकाएक स्वीकार करता हूं कि यह रूपाकार एक जीवित शरीर है - बल्कि मैं इसे यों देख ही इसलिए सका हूं कि यह जीवित शरीर है - कुछ देर के लिए स्थिर, नींद और अपने रक्त के ताप में जड़, पर हिलकर नए रूपों में ढल जाने में कभी भी समर्थ - शायद अभी इसी अगले क्षण। जो रूप मैं देख रहा हूं वह कितना सशक्त हो उठा है, क्या इसलिए नहीं कि वह मानव शरीर का आकार है?)

अचानक उसे कोई गर्म कपड़ा उढ़ा देने के लिए मैं छटपटा उठा।

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