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उन सारे लोगों को जो अपनी परिस्थितियाँ, परिवेश, संस्कार, इतिहास, धर्म, परिवार, समाज और सत्ता के किसी भी रूप से इंसान होने के लिए संघर्षरत हैं...

पूर्वपीठिका


‘अक्षत-योनि… अक्षत-योनि का परीक्षण सफल रहा महाराज। अंततः इतने वर्षों के परिश्रम का परिणाम सामने आया। राजकुमारी मीनाक्षी पर किया गया यह परीक्षण लगभग सफल रहा और हमारे वैद्य सुकेतु सहित सारे शिष्य इससे बहुत संतुष्ट और प्रसन्न हैं।’

महाराज ययाति जब राजसभा में जाने की तैयारी कर रहे थे, तब उन्होंने शिवेंद्र से यह संवाद सुना था। वह ठिठके थे। उन्होंने पूछा था, ‘मीनाक्षी कैसी है शिवेंद्र?’
‘राजकुमारी जी अभी अचेत हैं, किंतु उन पर कोई संकट नहीं है। औषधि के प्रभाव से अभी और दो दिन वह अचेत रहेंगी। इसके अतिरिक्त सब मंगल है महाराज।’ शिवेंद्र ने महाराज से कहा।

‘हम बहुत प्रसन्न हुए शिवेंद्र। राजवैद्य सुकेतु सहित आप सबके सामूहिक परिणामों की सफलता ने हमें भविष्य के प्रति आशान्वित किया है। हम राजवैद्य से मिलना चाहते थे। क्या वह बहुत व्यस्त हैं?’ महाराज ययाति ने अपने कंधे पर अपना उत्तरीय धरते हुए शिवेंद्र से कहा था। 

वह शिवेंद्र से वार्तालाप भी कर रहे थे और अपनी छवि पर भी उनका ध्यान था। एकाएक उन्हें अपने नेत्रों के किनारों पर रेखाएं नज़र आने लगीं। एक विचार उपस्थित हुआ, किंतु अभी इस समय वह शिवेंद्र से उसकी चर्चा नहीं कर सकते थे। शिवेंद्र की ओर उन्होंने प्रश्नसूचक दृष्टि से देखा। 

‘महाराज, स्वयं राजवैद्य आपसे मिलने के लिए उत्सकु हैं, किंतु इस अथक परिश्रम से उन्हें भी तीन दिनों से ताप चढ़ा हुआ है, अतः वह चाहकर भी आपके दर्शन के लिए प्रस्तुत नहीं हो पाए। इसके लिए उन्होंने आपसे क्षमा याचना की है।’ शिवेंद्र ने विनम्र होकर कहा। 

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‘ठीक है। हम स्वयं ही राजवैद्य के दर्शन के लिए उपस्थित होंगे। कदाचित आज ही।’ महाराज ययाति प्रसन्न भी हुए और आशान्वित भी। कोई विचार उनके भीतर जन्म ले रहा था। अपने नेत्रों के कोरों पर उभरी रेखाओं ने उन्हें थोड़ा विचलित किया था तो सुकेतु की इस सफलता ने आंदोलित...

आख़िर जीवन क्या है? जो पा लिया, जो कर लिया, जो जी लिया, जो भोग लिया... बस इतना ही तो। जो नहीं किया, उसका क्या? अभावों में जीवन का कौन-सा प्रयोजन सिद्ध होता है। त्याग का अंततः परिणाम क्या? यति के त्याग का स्वयं यति के लिए ही क्या मोल है? जीवन के पार जीवन के होने का क्या लाभ है, क्या उद्देश्य और क्या आवश्यकता! महाराज ययाति के यश को उनके न रहने पर जगत याद रखे... तो... उससे महाराज ययाति के जीवन का क्या संबंध है? ययाति का संबंध तो उनके अपने जीवन से ही है न...! विचारों का प्रवाह तीव्र था। 

शिवेंद्र असमंजस में महाराज के आदेश की प्रतीक्षा में खड़े रहे। महाराज अपने विचारों में थे। महाराज पलटे तो उन्हें शिवेंद्र दिखाई दिए। ‘ठीक है शिवेंद्र, जाओ और सुकेतु से कहो कि हम शीघ्र ही उनसे भेंट करने आएँगे।’

राजसभा में सभासद और मंत्री पहले से ही उपस्थित थे। राज्य में करारोपण की प्रक्रिया पर विचार किया जाना है। राजकोष पर बोझ लगातार बढ़ रहा है और आय के स्रोत सीमित होते जा रहे हैं। राज्य के कुछ हिस्सों में गुप्तचरों को भेजा तो उन्होंने जो आकर बताया, उससे महाराज ययाति थोड़े विचलित हो गए थे। 

राजधानी के सुदूर हिस्सों में प्रजा का जीवन कष्टकर हो रहा है। सीमावर्ती राज्यों से लुटेरे आते हैं और लूटपाट करते हैं। हमारी सुरक्षा व्यवस्था पर्याप्त न होने से प्रजा का बहुत सारा धन यूँ ही लूटपाट में चला जाता है। कई परिवार तो वहाँ से किसी दूसरे राज्य जाने पर विचार कर रहे हैं तो कई राजधानी की ओर आने पर विचार कर रहे हैं। 

विभाव से इस समस्या पर चर्चा की तो उन्होंने कहा कि हमें अपनी सुरक्षा व्यवस्था और चौकस करनी होगी। संसाधन बढ़ाने होंगे और सुरक्षाकर्मियों की संख्या भी बढ़ानी होगी। ‘किंतु वेतन... वेतन की व्यवस्था कहाँ से होगी विभाव...?’ महाराज ने चिंतित होकर विभाव से पूछा था। 

‘महाराज इसके लिए भी कोई राह निकालनी होगी। हमें मंत्रिमंडल की बैठक करनी होगी। अन्यथा किसी भी समय राज्य के सीमावर्ती क्षेत्रों पर से हमारा नियंत्रण छूट सकता है और ये राज्य की सुरक्षा और महाराज ययाति की छवि के अनुरूप नहीं होगा।’ विभाव ने समझाया था। उनकी इसी राय के चलते आज सभासदों की बैठक का आह्वान किया गया है। 

बैठक के विषय से संबंधित सूचना मंत्रिमंडल के सभी साथियों को दे दी गई थी। इसलिए विभाव ने संचालन करते हुए सीधे ही साथियों से अपनी-अपनी राय देने का अनुरोध कर दिया था। कुछ मंत्रियों का कहना था कि करों की संख्या में वृद्धि कर दी जानी चाहिए। सुरक्षा कर बढ़ाकर सुरक्षा व्यवस्था को सुचारू किया जाना चाहिए। 

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कुछ मंत्रियों की राय थी कि अभी जो कर है, उनमें ही राशि बढ़ा दी जाए। मनोवैज्ञानिक तौर पर करदाता को बोझ का अनुभव नहीं होगा। किंतु मंदार ने जो कहा, उससे लगभग सारे मंत्री ही क्रोधित हो गए। मंदार ने कहा कि क्यों नहीं एक मंत्री कोष स्थापित किया जाए, जिसमें मंत्री अपने-अपने वेतन का पाँच प्रतिशत हर माह जमा कराएँ और उसे केवल सुरक्षा व्यवस्था पर व्यय किया जाए। 

मंदार के प्रस्ताव पर किसी ने भी सहमति नहीं दिखाई थी। विभाव ने यह कहकर मंदार का उत्साह बढ़ाया था कि ‘मंत्री मंदार की राष्ट्रभक्ति की मैं प्रशंसा करता हूँ किंतु इस तरह के मामलों में अंतिम निर्णय हमेशा बहुमत से किया जाएगा। अतः बहुमत जो निर्णय करेगा वही लागू किया जाएगा।’

मंदार अपना प्रस्ताव प्रस्तुत कर शांत हो गए थे, वह स्वयं भी इस बात पर निश्चिंत थे कि यह मान्य नहीं किया जाएगा, किंतु उन्हें यह अनुभव हो रहा था कि राज्य की प्रजा यूँ भी करों के बोझ से दबी हुई है, उस पर कर की राशि में वृद्धि या नया कर उन पर अन्याय होगा। दूसरी ओर मंत्रियों की विलासिता तो कहीं कम हो ही नहीं रही है। राजपरिवार का विस्तार होता ही चला जा रहा है। तो व्यय कम कैसे होंगे? 

जो लोग पहले से ही पीड़ित हैं, उन पर और बोझ डालना राजधर्म नहीं है। किंतु क्या किया जा सकता है... जहाँ बहुमत ही धर्म हो, वहाँ जन कल्याण का विचार ही व्यर्थ है। फिर बहुमत भी क्या है? स्वार्थी मत... यहाँ जनकल्याण का विचार ही कहाँ है? केवल यह कि सुरक्षा व्यवस्था सुचारू करनी होगी... और वह भी किसके लिए...?  प्रजा के लिए! नहीं, राज्य की अपनी ही सुरक्षा और छवि के लिए...। मंदार का मन विचलित हो गया। 

अंततः वही हुआ जो होना था। प्रजा पर लागू करों की राशि में वृद्धि के निर्णय से मंत्रिमंडल की बैठक का समापन हुआ। इस सबके बीच भी महाराज ययाति जैसे बिल्कुल ही अनुपस्थित थे। उनके मन में दो ही विचार तब भी थे ‘अक्षत-योनि के परीक्षण की सफलता’ और ‘नेत्रों के कोरों पर उभर आई रेखाएं’। और जैसे ही मंत्रिमंडल की कार्यवाही संपन्न हुई, वैसे ही विस्मृत हुए ये दो विचार फिर से उनके मानस-पटल पर आ खड़े हुए। 


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