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"मेरी मूर्खता से मुझपर जो दुख पड़ना चाहिये था पड़ चुका, अब अपना झूठा बचाव करने से कुछ फ़ायदा नहीं मालूम होता। मैं चाहता हूँ कि सब लोगों के हित-निमित्त इन दिनों का सब वृतांत छपवा कर प्रसिद्ध कर दिया जाए।" लाला मदनमोहन ने कहा।

माँग 

"आपनें मेरे फ़ायदे के लिये बिचारे लेनदारों को वृथा क्‍यों दबाया" लाला मदनमोहन बोले।

"न मैंनें किसी को दबाया न धोखा दिया न अपनें बस पड़ते कसर दीं। उन लोगों नें बढ़ा- बढ़ा कर आप के नाम जो रकमें लिख लीं थीं वही यथा शक्ति कम की गई हैं और वह भी उनकी प्रसन्‍नता से कम की गई हैं" लाला ब्रजकिशोर नें अपना बचाव किया।

"इन सब बातों से मैं आश्‍चर्य के समुद्र मैं डूबा जाता हूँ। भला यह पोटली कैसी है?" लाला मदनमोहन नें पूछा। 

"आपकी हवालात की खबर सुनकर आपकी स्‍त्री यहाँ दौड़ आई थी और जिस समय मैं आप से बातें कर रहा था उस समय उसी के आने की खबर मुझको मिली थी। मैंने उसे बहुत समझाया परन्‍तु वह आपकी प्रीति में ऐसी बावली हो रही थी कि मेरे कहनें से कुछ न समझी, उसने आपको हवालात से छुड़ाने के लिये यह सब गहना जबरदस्‍ती मुझे दे दिया।"

"वह उस समय से पाँच फेरे यहाँ के कर चुकी है। उसने सवेरे से एक दाना मुँह में नहीं लिया। उसका रोना पलभर के लिये बन्‍द नहीं हुआ, रोते-रोते उसकी आँखें सूज गईं हैं! उसकी एक-एक बात याद करनें से कलेजा फटता है। और आप ऐसी सुपात्र स्‍त्री के पति होने से निस्‍सन्‍देह बड़े भाग्‍यशाली हो।" लाला ब्रजकिशोर नें आँसू भरकर कहा।

"भाई जब उसनें उसी समय तुमको यह गहना दे दिया था तो फिर मेरे छुड़ाने में देर क्‍यों हुई?" लाला मदनमोहन ने संदेह करके पूछा।

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"एक तो दो-एक लेनदारों का फैसला जब तक नहीं हुआ था और हरकिशोर की डिक्री का रुपया दाखिल कर दिया जाता तो फिर उनके घटने की कुछ आशा न थी, दूसरे आपके चित्त पर अपनी भूलों के भली भांति प्रतीत हो जाने के लिये भी कुछ ढील की गई थी।"

"परन्‍तु कचहरी बर्खास्त होने से पहले मैंनें आपके छुड़ाने का हुक्‍म ले लिया था और इसी कारण से मेरी धर्म की बहन, आपकी सुशीला स्‍त्री को आपके पास आने में कुछ अड़चन नहीं पड़ी थी।"

"हाँ, मैंने आपका अभिप्राय जाने बिना मिस्‍टर ब्राइट से उसकी चीज़ें फेरने का वचन कर लिया है। यह बात कदाचित आपको बुरी लगी होगी।" लाला ब्रजकिशोर ने मदनमोहन का मन देखने के लिए कहा।

"हरगिज़ नहीं, इस बात को तो मैं मन से पसन्‍द करता हूँ। झूठी भड़क दिखाने में कुछ सार नहीं, 'आई बहू आए काम, गई बहू गए काम' की कहावत बहुत ठीक है और मनुष्‍य अपने स्‍वरूपानुरूप प्रामाणिकपनें से रहकर थोड़े खर्च में भली भांति निर्वाह कर सकता है।" लाला मदनमोहन ने संतोष करके कहा।

"अब तो आपके विचार बहुत ही सुधर गए। एबडोलोमीन्‍स को गरीबी से एकाएक साइडोनिया के सिंहासन पर बैठाया गया, तब उसने सिकन्‍दर से यही कहा था कि "मेरे पास कुछ न था जब मुझको विशेष आवश्‍यकता भी न थी। अब मेरा वैभव बढ़ेगा, वैसी ही मेरी आवश्‍यकता भी बढ़ जायगी!"

कच्‍चे मन के मनुष्‍यों को अपनें स्‍वरूपानुरूप बर्ताव रखनें में ज़ाहिरदारी की झूठी झिझक रहती है। इसी से वह लोग जगह-जगह ठोकर खाते हैं परन्‍तु प्रामाणिकपनें से उचित उद्योग कर के मनुष्‍य हर हालत मैं सुखी रह सकता है।" लाला ब्रजकिशोर ने कहा।

"क्‍या अब चुन्‍नीलाल और शिंभूदयाल आदि को उनकी बदचलनी का कुछ मज़ा दिखाया जाएगा?" लाला मदनमोहन ने पूछा।

"किसी मनुष्य की रीति-भांति सुधारे बिना उससे आगे कोई काम नहीं लिया जा सकता, परन्‍तु जिन लोगों को सुधारना अपने बूते से बाहर हो उनसे काम-काज का सम्बन्ध न रखना ही अच्‍छा है। और जब किसी मनुष्‍य से ऐसा सम्बन्ध न रखा जाए तो उसे सुधारने का बोझ सर्व शक्तिमान परमेश्‍वर अथवा राज्याधिकारियों पर समझकर उससे द्वेष और बैर रखने के बदले उसकी हीन दशा पर करुणा और दया रखनी सज्‍जनों को विशेष शोभित करती हैं।" लाला ब्रजकिशोर नें जवाब दिया।

"मेरी मूर्खता से मुझपर जो दुख पड़ना चाहिये था पड़ चुका, अब अपना झूठा बचाव करने से कुछ फ़ायदा नहीं मालूम होता। मैं चाहता हूँ कि सब लोगों के हित-निमित्त इन दिनों का सब वृतांत छपवा कर प्रसिद्ध कर दिया जाए।" लाला मदनमोहन ने कहा।

"इसकी क्‍या ज़रूरत है? संसार में सीखने वालों के लिये बहुत से सत्शास्‍त्र भरे पड़े हैं!" लाला ब्रजकिशोर ने अपना सम्बन्ध विचार कर कहा।

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"नहीं, सच्‍ची बातों में लजाने का क्‍या काम है? मेरी भूल प्रगट हो तो हो मैं मन से चाहता हूँ कि मेरा परिणाम देखकर और लोगों की आँखें खुलें। इस अवसर पर जिन-जिन लोगों से मेरी जो-जो बात चीत हुई है वह भी मैं उसमें लिखने के लिए बता दूँगा।" लाला मदनमोहन ने उमंग से कहा।

"धन्‍य! लालासाहब! धन्य! अब तो आपके सुधरे हुए विचार हद के दर्जे पर पहुँच गए!" लाला ब्रजकिशोर ने गदगद वाणी से कहा, "औरों के दोष देखने वाले बहुत मिलते हैं परन्‍तु जो अपने दोषों को यथार्थं जानता हो और जान बूझकर उनका झूठा पक्ष न करता हो बल्कि यथाशक्ति उनके छोड़ने का उपाय करता हो वही सच्‍चा सज्‍जन है।"

"सिलसिले बन्‍द, सीधा मामूली काम तो एक बालक भी कर सकता है परन्‍तु ऐसे कठिन समय में मनुष्य की सच्‍ची योग्‍यता मालूम होती है। आपने मुझको इस अथाह समुद्र मैं डूबने से बचाया है इसका बदला तो आपको ईश्‍वर के यहाँ से मिलेगा। मैं सौ जन्‍म तक लगातार आपकी सेवा करूँ तो भी आपका कुछ प्रत्‍युपकार नहीं कर सकता। परन्‍तु जिस तरह महाराज रामचन्‍द्र ने भिलनी के बेर खाकर उसे कृतार्थ किया था इसी तरह आप भी अपनी रुचि के विपरीत मेरा मन रखने के लिए मेरी यही प्रेम भेंट अंगीकार करें!" लाला मदनमोहन ब्रजकिशोर को आठ दस हज़ार का गहना देने लगे।

"क्‍या आप अपने मन में यह समझते हैं कि मैंने किसी तरह के लालच से यह काम किया?" लाला ब्रजकिशोर रुखाई से बोले, "आगे को आप ऐसी चर्चा करके मेरा जी वृथा न दुखावें। क्‍या मैं गरीब हूँ इसी से आप ऐसा वचन कहकर मुझको लज्जित करते हैं? मेरे चित्त का संतोष ही इसका उचित बदला है। जो सुख किसी तरह के स्‍वार्थ बिना उचित रीति से परोपकार करनें में मिलता है वह और किसी तरह नहीं मिल सकता। वह सुख, सुख की परमावधि है इसलिये मैं फिर कहता हूँ कि आप मुझको उस सुख से वंचित करने के लिये अब ऐसा वचन न कहें।"

"आप का कहना बहुत ठीक है और प्रत्‍युपकार करना भी मेरे बूते से बाहर है, परन्‍तु मैं केवल इस समय के आनन्द में -"

"बस आप इस विषय में और कुछ न कहें। मुझको इस समय जो मिला है उससे अधिक आप क्‍या दे सकते हैं? मैं रुपये पैसे के बदले मनुष्‍य के चित्त पर विशेष दृष्टि रखता हूँ और आपको देने ही का आग्रह हो तो मैं यह मांगता हूँ कि आप अपना आचरण ठीक रखने के लिये इस समय जैसे मजबूत हैं वैसे ही सदा बनें रहें और यह गहना मेरी तरफ़ से मेरी पतिव्रता बहन और उसके गुलाब जैसे छोटे-छोटे बालकों को पहनावें जिनके देखने से मेरा जी हरा हो" लाला ब्रजकिशोर नें कहा।

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