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यह एक काल्पनिक कहानी है। किसी वास्तविक व्यक्ति के जीवन से इसका कोई प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष संबंध नहीं है। किसी जीवित या मृत व्यक्ति के जीवन की घटनाओं से इस कहानी के किसी भी साम्य को महज संयोग समझा जाये।

[श्रीरामवृक्ष बेनीपुरी का आभार, जिनके नाटक ‘अंबपाली’ के कुछ अंशों का उपयोग यहाँ किया गया है]

अगले ही क्षण जब उसकी नज़र बगल में निश्चिंत सोये अरुण महतो की तरफ गई, अभी-अभी देखे गए सपने की स्मृति-छाया ने उसे नए सिरे से बेचैन कर दिया...

चाहतों का मोक्ष 

आकंठ सोमरस में डूबे अरुणध्वज के चेहरे पर हवाइयाँ उड़ने लगी हैं। मधूलिका के कहे पर वह बिलकुल भरोसा नहीं करना चाहता कि अंबपाली वैशाली की राजनर्तकी चुन ली गई है और अब वह लौटकर आनंदग्राम नहीं जाएगी। पर सम्पूर्ण वातावरण में गूंज रहे उसके नाम के जयघोष मधूलिका के संदेश पर समर्थन की चमकीली पन्नी लपेट रहे हैं। परिवेश में सुवास की तरह फैलती फाल्गुन महोत्सव की मंगल ध्वनियाँ उसकी नाभि में किसी चक्रवात की तरह चक्कर काट रही हैं। 

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सुगंधित पुष्पों की वर्षा के बीच वर्तमान राजनर्तकी पुष्पगंधा अंबपाली की उँगलियाँ थामे रत्नजड़ित रथ की तरफ हौले-हौले बढ़ रही है। अनगिनत सूर्यों की आभा से दीप्त वैशाली के राजभवन की तरफ कदम-दर-कदम बढ़ती अंबपाली को कातर पलकों से निहारते अरुणध्वज की यह दशा मधूलिका से देखी नहीं जा रही। एक भीषण मरोड़ उसका कलेजा चीरे जा रहा है। पल भर को वह खुश हुई थी कि अब अंबपाली पास नहीं होगी तो अरुणध्वज का ध्यान सिर्फ़ और सिर्फ़ उसकी ही तरफ रहेगा। लेकिन अगले ही पल कुछ शब्दों की स्मृतियाँ उसके कानों में पिघले शीशे की तरह उतरने लगीं- “आज से तुम वैशाली की राजनर्तकी हो अम्बे! अब तुम्हारे चरणों पर हजार-हजार राजकुमारों के मुकुट लोटेंगे...” कुछ मिनट पूर्व परिवेश में गूँजे पुष्पगंधा के शब्दों की प्रतिध्वनि से मधूलिका के भीतर की वह कसक सहसा तीव्र और असह्य हो उठी है, जिसे उसने कब से मन की सात परतों के नीचे दबा रखा था। उसके लिखे हुए गीतों के बोलों के बिना जिस अंबपाली के पाँव एक भी कदम नहीं थिरक पाते थे, आज वही अंबपाली पलक झपकते वैशाली की राजनर्तकी चुन ली गई और वह बज्जि संघ की एक आम कन्या होकर रह गई। अपने लिखे का मोल उसे हमेशा से मालूम था पर उसने कभी उसका गुमान नहीं किया। पर आज जब अंबपाली वैशाली की सुंदरतम रंगशाला की स्वामिनी चुन ली गई तो अचानक से वह खुद को रिक्तहस्त महसूस कर रही है...

मधूलिका की तकलीफ ने रूपमंजरी को अचानक ही सोते से जगा दिया। निमिष भर को उसे यह भी नहीं समझ आया कि वह सपना देख रही थी। उसे लगा जैसे एम. ए. की कक्षा में वह सबसे अगली बेंच पर बैठी है और मदनमोहन सर श्रीरामवृक्ष बेनीपुरी के नाटक अंबपाली की व्याख्या कर रहे हैं। पर अगले ही क्षण जब उसकी नज़र बगल में निश्चिंत सोये अरुण महतो की तरफ गई, अभी-अभी देखे गए सपने की स्मृति-छाया ने उसे नए सिरे से बेचैन कर दिया। 

पंखा का रेग्युलेटर पाँच के आखिरी पड़ाव पर अकड़ा खड़ा था और वह पसीने से तर-ब-तर थी। छत के बीचोंबीच लटकी कड़ी के सहारे तेज घूमते पंखे को वह एकटक घूरे जा रही थी कि अगले ही पल जैसे वह मधूलिका में बदल गई और अरुण महतो उसके लिए अरुणध्वज हो गया। जाने उस वक्त उसके भीतर कौन सी ऊर्जा कहाँ से संचरित हुई थी कि वह उस नाचते पंखे से भी तेज गति से उठी और नींद में डूबे अरुण महतो को फुटबाल की तरह अपने दाहिने पैर से उछाल दिया... वह पागलों की तरह चीख रही थी- ‘साले, हिजड़े! शर्म नहीं आती तुम्हें? तेरी ज़िंदगी मैं ढो रही हूँ और तू सपने अंबपाली के देखता है! अभी, इसी वक़्त चले जाओ अपनी अंबपाली के पास। यहाँ क्या रखा है?’ 

अरुण महतो को संभलने का वक़्त भी नहीं मिला। साक्षात चंडी हुई जाती रूपमंजरी के सामने वह घिघिया भी नहीं सका। यह उसके लिए अप्रत्याशित था। जाति और समाज को मुंह चिढ़ाते हुए की गई ‘लिव इन’ की क्रांति का यह हश्र उसने सपने में भी नहीं सोचा था। अंबपाली की सफलता ने मधूलिका को किसी नाग की तरह डंस लिया था और वह रूपमंजरी की काया में अपनी चाहतों का मोक्ष खोज रही थी।             

रूपमंजरी ने जिस दिन निर्मल गोयनका फ़ेलोशिप के लिए आवेदन किया उसके पांजरों को जैसे पंख लग गए थे... वैसे तो उसके पास व्यावहारिक काम का बहुत लंबा अनुभव नहीं था, पर उसकी लगन और केसरयुक्त दूधिया रंगत के मिलेजुले प्रभाव ने बी.जे. के दौरान ही उसे एक बड़े मीडिया समूह से जुड़ने का अवसर दे दिया था। उसके चेहरे के नमक और परिश्रम की चमक की ख़ूबसूरत जुगलबंदी का ही यह नतीज़ा था कि फ्रीलांसिंग के दिनों में भी कभी उसे फैशन और सिलाई बुनाई वाले पन्नों के लिए कागद कारे नहीं करने पड़े। 

स्त्री मुद्दों पर लगभग एकतरफा आग उगलती उसकी लेखनी को लोग भले बहुत गंभीरता से नहीं लेते हों, पर उसके मुंहफटपन के कारण उसकी सार्वजनिक छवि एक दबंग स्त्री की ज़रूर बन गई थी। उस रात फुटबॉल की तरह उछाल दिया गया अरुण महतो भले ही अगली ही सुबह अपने गाँव लौट गया था, लेकिन उसकी सोहबत में लगा कविताई का रोग पहले प्रेम की स्मृतियों की तरह रूपमंजरी के वजूद का स्थायी हिस्सा हो चुका था। 

उसका शहर जहां से उसने बी.ए.-एम.ए. की पढ़ाई की थी, उसकी दूसरी कमजोरी थी, जिसके आगे वह हमेशा ही भावुक हो जाती थी। अपने शहर का कोई भी नवागंतुक जो करियर के लिए संघर्ष कर रहा हो कब उसका भाई-बहन हो जाता उसे भी नहीं पता चलता। दैनिक नवज्योति का स्थानीय संपादक संजीव कश्यप दफ्तर में बहुत अकड़कर पेश आता था। जिस कारण वह उससे चिढ़ी हुई रहती थी। लेकिन जब उसे पता चला कि उसकी ननिहाल उसके गृहनगर रेणुकूट से कुछ ही किलोमीटर दूर स्थित अचलेश्वर महादेव मंदिर के पास है, उसने अचानक खुद को उसके बहुत निकट महसूस करना शुरू कर दिया था। 

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अमूमन अपने शहर के लोगों के साथ भैया-दीदी का रिश्ता जोड़ बैठनेवाली रूपमंजरी ने जानबूझकर संजीव कश्यप के मामले में खुद को इन रिश्तों की परिभाषा से दूर रखा था। उस दिन टेस्टीमोनियल लिखवाने जब वह उसके मयूर विहार स्थित आवास पर गई, उसे पहली बार पता चला कि संजीव सिंगल है। यह जानकारी कुबेर के खजाने की तरह उसके हाथ लगी थी जिसे उसने किसी महाकंजूस की तरह सम्हाल कर रख लिया। दरअसल संजीव कश्यप ने ही उसे निर्मल गोयनका फ़ेलोशिप के बारे में पहली बार बताया था। बताया क्या था, इस बात के लिए आश्वस्त भी किया था कि वह सिर्फ़ आवेदन कर दे बाकी का सबकुछ वह देख लेगा। 

रूपमंजरी कोई दूधपीती बच्ची नहीं थी कि ‘सिर्फ़ आवेदन कर देने’ और ‘सबकुछ देख लेने’ के मध्य स्थित अंतरालों के भावार्थ नहीं समझती हो। उसकी मुस्कुराहट ने संजीव कश्यप को बिना कुछ कहे ही यह समझा दिया था कि उसने उसके कहे और अनकहे दोनों ही शब्दों के सही-सही अर्थ समझ लिए हैं। 

मय टेस्टीमोनियल फ़ेलोशिप का आवेदन जमा करने के बाद घर लौटते हुये जब उसकी निगाहें आसमान की तरफ गईं, पूर्ण वृत्ताकार खिल रहे चाँद को देख उसे याद आया आज शरद पूर्णिमा है। शरदपूनो की चाँदनी में भीजे खीर का वह अद्वितीय आस्वाद, जो उसकी स्मृतियों का अविकल हिस्सा है, जुबान के रास्ते उसके मन और आँखों तक को शीतल कर गया। किस उत्साह से माँ आज के दिन चिरौंजी, किशमिश और छोटी इलायची डालकर रबड़ी-सी लदबद खीर बनाती थीं। पर जबसे अरुण महतो के साथ वह दिल्ली आई माँ-बाबूजी ने उसे हमेशा-हमेशा के लिए भुला दिया। दुपट्टे के कोर से अपनी आँखें पोंछते हुए उसने पास के मदर डेयरी बूथ से एक लीटर फुलक्रीम दूध लिया और तेज कदमों से अपनी सोसायटी के गेट की तरफ बढ़ गई। 

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