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‘टाइम्स’ ने उसे आदर्श मेट्रोसेक्सुअल के रूप में पेश किया था। उसके साथ ही कुछ और एंत्राप्रिन्यर्स के ऐसे वर्शन थे, जिन्हें पढ़कर साफ़ लगता था कि आज पूरे दिन कॉर्पोरेट वर्ल्ड में राजकुमार पसरीचा की जमकर ‘ली’ जाने वाली है।

द कम्पलीट मैन

हर पलंग के पास एक बुरा सपना होता है। कमर टिकाते ही जकड़ ले। 

हर घर में कुछ बूढ़ी रूहें होती हैं, जो नींद या जाग में, सफ़ेद साड़ी पहने इस कोने से उस कोने तक जाती दिख जाती हैं। रात को जब दरवाज़ों की किर्र-किर्र आठवें सुर की तरह रहस्यमयी लगती है, तभी किचन में गिरी कॉफ़ी की बोतल उठाने में अचानक पीठ पर वे आ लदती हैं। अकबकाकर पीछे मुड़ने पर दीवार में जाकर खोता एक लंबा ख़ालीपन नज़र आता है, जिसे साँस की हवा भर देती है।

हर नींद में एक ग़फ़लत होती है और हर ग़फ़लत अपने साथ एक विशेष क़िस्म का भय ले आती है।

सपना चाहे जैसा भी हो, सच होने का बीज भी उसमें छिपा होता है। (या नींद की ग़फ़लत का एक और भय है यह।) शायद इसी कारण पलंग पर चित पड़े पैर अचानक हिलता है और लगता है, एक अछोर खाई में गिर रहे हैं। बेनियाज़ी में पैर की पोजीशन बदल जाती है।

एक कामयाब नींद क्या होती है? उसमें प्रवेश कर लेना या उसमें से सही-सलामत निकल आना? मेरी जाग क्या है? उसमें से सही-सलामत निकल नींद में पहुँच जाने की क्या गारंटी? 

सच कहूँ, मुझे लगता है कि मेरी जाग एक नियंत्रित नींद है।

बीते कई दिनों का फ़साना है। जागते हुए भी लगता है, सो रहा हूँ और सोने जाता हूँ, तो लगता है, नींद दुनिया की सबसे निरर्थक चीज़ है। अगर नींद नाम की यह चीज़ मेरे दफ़्तर में काम कर रही होती, तो अब तक मैं इसकी छँटनी कर चुका होता।

कॉन्फ्रेंस रूम में अफ़सरों की शालीन चुप्पी के बीच अपनी बारी का इंतज़ार करते प्रफुल्ल शशिकांत उर्फ़ पीएस दाधीच को इस वक़्त अपनी कुर्सी एक पलंग की तरह जान पड़ती है, जो थोड़ी-थोड़ी देर बाद उसे झटका देती है या फिर एक फूहड़ क़िस्म की चीं की आवाज़ पैदा करती है।

उसे जागे हुए चार घंटे से ज़्यादा हो चुके हैं, लेकिन बार-बार लगता है कि वह अपने साथ पेन-ड्राइव में आज का प्रेजेंटेशन नहीं, बल्कि रात की बची रह गई नींद कॉपी करके लाया है, जो इस वक़्त ‘द कंप्लीट मैन’ का अहसास कराते उसके गहरे नीले कोट की निचली जेब में बैठ उसके भीतर नींद एक्सपोर्ट कर रही है।

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वह जितनी भी देर सो पाया, अजीब क़िस्म के सपनों से परेशान रहा और इस वक़्त उस बूढ़े को शिद्दत से याद कर रहा है, जो कुछ दिनों पहले उसके केबिन में बैठ नींद और सपनों पर बात कर रहा था, जिसने यह बताया था कि वह कई बार सुबह सात-सात बजे तक नहीं सो पाता है कि कुछ ही दिन पहले एक डॉक्टर दोस्त ने उसे एक गोली दी है, जिसे खाने से न केवल नींद आ जाती है, बल्कि सपनों का बनैलापन भी कंट्रोल हो जाता है।

उसकी बातें सुनते-सुनते पीएस दाधीच ने एक बेबस क़िस्म की उबासी ली थी, जो रोकने की लाख कोशिश के बाद भी आ ही गई थी, जिसके आने के बीचोबीच उसने आँ-आँ करते हुए उस बूढ़े से गोली का नाम पूछा था, जिसे अपनी आदत के अनुरूप बूढ़ा भूल चुका था, यह जोड़ते हुए कि शायद उस गोली के साइड इफ़ेक्ट्स में एक यह भी है कि आदमी कुछ बेहद ज़रूरी चीज़ों को बहुत जल्दी भूल जाता है, बिना यह अहसास हुए कि वह कुछ भूल रहा है।

बूढ़े ने अपने अनुभवों के आधार पर यह भी कहा था कि उसे लगता है, इस गोली को इस समय हिंदुस्तान के सारे लोगों को खिलाने की ज़रूरत है। ऐसा कहकर बूढ़ा हँसते हुए खाँसने लगा था, उसके बाद खाँसते-खाँसते हँसने लगा था।

पीएस दाधीच यह तय नहीं कर पाया कि उसे बूढ़े की हँसी में संगत देनी चाहिए या उसकी खाँसी में, इसलिए वह ऐसा मुँह बनाकर बैठा रहा, जिससे पता चल जाए कि उसे बूढ़े की बात, उसकी हँसी और खाँसी का कारण समझ में नहीं आया है।

उस बूढ़े को याद करते हुए एक बार फिर उसे उबासी आई और बिना इस बात का ध्यान रखे कि इस वक़्त वह कहाँ है, उसने ज़ोर लगाकर पूरा मुँह खोल दिया और ग़फ़लत में उसके मुँह से एक बनैली-सी आवाज़ निकली, जिसे सुनकर वह पहले भी कई बार शर्मिंदा हो चुका है।

उसने सिर झुका लिया, क्योंकि आवाज़ निकलने के साथ ही उसने देख लिया था कि सामने व्हाइट बोर्ड पर प्रोजेक्टर से पड़ रही किरणों से बनते दृश्य और शब्दों के ज़रिए कंपनी में इमोशनल इंटेलीजेंस का स्तर बढ़ाने की दलीलों के साथ प्रेज़ेंटेशन करता नाटा वाइस प्रेसीडेंट चुप हो गया था और अपनी जगह खड़े-खड़े ही अचरज में आँख-मुँह फाड़े दाधीच को घूर रहा था।

पीएस दाधीच ने शिष्टता की खाई में गहरे धँसते हुए ‘आई बेग योर पारडन’ जैसा कोई वाक्य इस तरह कहा था कि कम से कम वह अगली क़तार में बैठे मैनेजिंग डायरेक्टर के कानों में पहुँच जाए। 

वाइस प्रेसीडेंट अपना प्रेज़ेंटेशन फिर शुरू कर पाता कि एमडी ने उसे अगले चार-पाँच मिनट में कन्क्लूड करने को कहा और सिर पीछे घुमाकर नीमअंधेरे में पीएसडी को लोकेट करने की कोशिश करते हुए, कन्क्लूड होते ही एक कॉफ़ी ब्रेक का प्रस्ताव रखा। एमडी संभवत: यह नहीं देख पाया कि उसके इस प्रस्ताव के अनुमोदन में ‘बैडली नीडेड, सर’ कहता पीएसडी ऐन उसके पीछे बैठा हुआ था।

भरी जवानी में गंजा हो जाने का अभिशाप झेल रहे एमडी ने अभी दस दिन पहले ही यूरोप के किसी प्रसिद्ध सलाँ में महँगा हेयर ट्रीटमेंट करवाया था। दाधीच को अच्छी तरह याद है कि एक सुबह जब वह अपनी आँख से बेचैन नींद का कीचड़ तक नहीं पोंछ पाया था और पलंग पर आलथी-पालथी मारे आँख मलता बग़ल की मेज़ पर सिगरेट का पैकेट खोज रहा था,

तभी उसकी पत्नी सबीना ने उसके सामने सुबह के चार-पाँच अख़बारों का भारी पुलिंदा पटकते हुए ‘बॉम्बे टाइम्स’ का पेज थ्री खोल कर रख दिया था, जिसमें उसके एमडी की दो तस्वीरें छपी थीं, ‘राजू बन गया जेंटलमैन’ शीर्षक के साथ। एक तस्वीर में एमडी गंजा था, जिसके नीचे ‘शादी से पहले’ कैप्शन लगा था और दूसरी तस्वीर में नई स्टाइल के उसके बाल थे, जिसके नीचे ‘शादी के बाद’ लिखा था।

उसमें हेयर ट्रीटमेंट की तकनीक और ख़र्च के साथ-साथ एमडी राजकुमार पसरीचा का वर्शन भी था कि पत्नी के कहने पर उसने हेयर वीविंग का फ़ैसला लिया है। उसी इंटरव्यू में राजकुमार ने बताया था कि उसे दफ़्तर में काम करना जितना अच्छा लगता है, उतना ही घर में बेबी-सिटिंग करना भी।

‘टाइम्स’ ने उसे आदर्श मेट्रोसेक्सुअल के रूप में पेश किया था। उसके साथ ही कुछ और एंत्राप्रिन्यर्स के ऐसे वर्शन थे, जिन्हें पढ़कर साफ़ लगता था कि आज पूरे दिन कॉर्पोरेट वर्ल्ड में राजकुमार पसरीचा की जमकर ‘ली’ जाने वाली है।

कॉर्पोरेट वर्ल्ड का तो नहीं पता चला, लेकिन ऑफ़िस में ज़रूर दिन-भर उसकी ‘ली’ जाती रही, बिना उसे पता चले, और बार-बार चाहने के बावजूद पीएसडी मनख़ुश अंदाज़ में कमेंट्स पास नहीं कर पाया क्योंकि उसकी नज़र में हर दूसरा मैनेजर एमडी का जासूस था, इस माह जिनसे बचकर रहने की सलाह उसकी टैरो कार्ड रीडर उसे दे चुकी थी।

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उस टैरो कार्ड रीडर से पहली बार वह दिल्ली-मुम्बई जेट फ़्लाइट में मिला था। प्रफुल्ल शशिकांत उर्फ़ पीएस दाधीच हमेशा जेट एयरवेज़ में सफ़र करता है, क्योंकि उसका मानना है कि उसकी ज़िंदगी में जो कुछ भी अच्छा है, वह जेट से ही मिला है। तीन लोगों ने उसकी ज़िंदगी को बड़े मोड़ दिए हैं और तीनों ही उसे जेट में मिले थे।

छह साल पहले दिल्ली से सुबह साढ़े सात बजे मुम्बई जाने वाली फ़्लाइट के बिज़नेस क्लास में उसे राजकुमार पसरीचा मिला था, जो पहली नज़र में बहुत बड़ा पप्पू लगा था, लेकिन जो अब उसका एमडी है। वह विंडो सीट पर था, राजकुमार उसकी बग़ल में। राजकुमार ने उससे सीट बदलने की गुज़ारिश की थी और वह मान गया था।

अमूमन बिज़नेस क्लास में ऐसा नहीं होता, जब यह बात दाधीच ने उससे कही, तो राजकुमार बोला कि उसने लाउंज में ही तय कर लिया था, अगर इस आदमी को विंडो मिली, तो वह एक्सचेंज कर लेगा। फिर उसने बताया कि वह दाधीच को लगातार फ्लाय करते देखता है और यह भी संयोग ही है कि उस समय वह ख़ुद भी इसी फ़्लाइट में हुआ करता है। उसने कहा कि तुम 21 जनवरी को भी इसी से फ़्लाय कर रहे थे, तो दाधीच चौंक गया था कि यह कौन है, तो उस पर इतनी नज़र रखे हुए है।

बाद में उसे पता चला कि 21 जनवरी राजकुमार पसरीचा का जन्मदिन है। दो साल तक वे अच्छे दोस्त बने रहे और अक्सर चेकइन, सिक्योरिटी या बोर्डिंग के दौरान मिल जाते। इस बीच राजकुमार पसरीचा ने कई बार दाधीच को अपनी कंपनी में आ जाने के लिए भी कहा था। एक दिन दाधीच को आईल सीट पर एक लड़की बैठी मिली, जिसने देखते ही उससे कहा कि आपका चेहरा बता रहा है, आपके सामने एक बहुत बड़ा अवसर खड़ा है, लेकिन आप पहचान नहीं पा रहे।

उससे बात करने के दौरान दाधीच ने महसूस किया कि वह अवसर शायद राजकुमार पसरीचा का दिया ऑफ़र है। पृशिला पांडे नाम की वह अजनबी टैरो कार्ड रीडर उस दिन से दाधीच की दोस्त बन गई और उसका दोस्त राजकुमार उसका मालिक। उसके ज्वाइन करने की बात सुनते ही राजकुमार ने ट्राइडेंट ओबेरॉय में उसे डिनर के लिए बुलाया, उसके बाद नरीमन पॉइंट की रेलिंग पर देर तक बैठकर भावुक होता रहा।

अपनी कंपनी को लेकर वह रोज़ सपने देखता था और साथ के सारे लोगों में इंजेक्ट करता था। इस बात पर दुखी रहता कि वह साल-भर तक एंप्लॉई की तारीफ़ करे, तो लोगों को फ़र्क़ नहीं पड़ता, लेकिन एक दिन उन्हें डाँट दे, तो लोग बुरा मान जाते हैं। जिन्हें वह ‘लोग’ कहता था, उन्हें ‘फूल्स’ भी कहता था। दोनों उसके लिए समार्थी थे।

जब उसने अपनी इच्छा बताई कि वह चाहता है, उसके सारे दोस्त उसके नौकर बन जाएँ, उसके सपनों को अपनी आँख से देखें, तो ठीक उसी समय प्रफुल्ल शशिकांत उर्फ़ पीएस दाधीच को पहली बार अहसास हुआ कि उसने अपनी ज़िंदगी में आए सबसे ताक़तवर और रसूख़मंद दोस्त को कुछ घंटों पहले हमेशा के लिए खो दिया है।

उसके बाद वे फिर कभी किसी रेस्टरां में अकेले नहीं बैठे, कभी नरीमन पॉइंट की डेढ़ फ़ीट चौड़ी रेलिंग पर, बेतहाशा पीकर, लडख़ड़ाते हुए नहीं चले।

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