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रईसों के ये बच्चे जब कभी गांव का चक्कर लगाते तो ज़रूर अपने साथ थोड़ा-सा शहर भी बांध ही लाते और उन्हीं के बलबूते पर गांव में अपने को किसी बादशाह से कम न समझते।

शहर का आकर्षण

बेहद खरामा-खरामा चाल से चलते हुए इस गांव ने भी आख़िर क़स्बे की दहलीज़ पर पांव रख ही दिये। सदियों से उस गांव में समय चलता नहीं बस, रेंगता था। पांच साल बाद आप जाओ तो उस समय गोदी में लटके या उंगली पकड़कर घिसटते बच्चे आज गलियों में गिल्ली-डंडा या कंचे खेलते मिलते और तबके कंचे खेलते बच्चों की मसें भीगती दिखायी देती। पर बस, जो भी परिवर्तन दिखायी देता शरीर के स्तर पर ही... बाक़ी दिल-दिमाग़ और सोच-समझ तो जस की तस। पर जैसे ही उस गांव ने देहाती चोला उतार कर क़स्बाई धज धारण की, वहां समय रेंगने की जगह चलने लगा। 

गांव में तो चाहे युवा हों या बुजु़र्ग, सबकी नज़रें और पांव गांव की ज़मीन में ही गड़े रहते थे और अपने से संतुष्ट मन गांव की चौहद्दी के बीच ही घूमता-टहलता रहता। पर क़स्बे की हवा लगते ही युवा वर्ग के पांव वहां से उखड़ने के लिए छटपटाने लगे और ललचाई नज़रें शहर पर जाकर टिक गयीं, पर जायें तो जायें कैसे? हां, दो-चार रईस परिवारों के बच्चे ज़रूर लोटपोट कर जैसे-तैसे शहर पहुंच गये पर उनके अलावा उस समय न तो शहर क़स्बे को अपने में समेट रहा था और न ही पैदल पसर कर खु़द उसमें समा रहा था। 

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हां, रईसों के ये बच्चे जब कभी गांव का चक्कर लगाते तो ज़रूर अपने साथ थोड़ा-सा शहर भी बांध ही लाते और उन्हीं के बलबूते पर गांव में अपने को किसी बादशाह से कम न समझते। उनका रहन-सहन बोली-बाली देख सुनकर गांव के युवाओं के मन में भी न जाने कितने सपने बुलबुलाने लगते... पर न साधन, न सुविधा न ही जोड़-तोड़ की ऐसी कोई जुगत जो उन्हें वहां ले जाती।  

यों क़स्बा बनते ही गांव का प्राइमरी स्कूल मिडल स्कूल तो बन ही गया था और बिल्डिंग उसकी चाहे टूटी-फूटी ही रही हो पर कक्षाएं तो लगनी ही थीं। मास्टर लोग भी ज़बान की जगह छड़ी का प्रयोग ज़्यादा करने के बावजूद कुछ तो पढ़ाते ही थे कि बच्चे जैसे-तैसे पास हो ही जाया करते थे। पर मिडिल पास करने के बाद रास्ते बंद। अब करें तो क्या करें?

यह महज़ एक संयोग ही था कि इसी क़स्बे के एक बेहद मामूली-सी हैसियत वाले किसान रामनिझावन के बड़े बेटे गोविंदा ने जैसे ही मिडिल पास किया तो शहर से उसके मामा आ गये और प्रस्ताव रखा कि यदि जीजा चाहें और गोविंदा राज़ी हो तो वह उसे शहर ले जाकर बिजली के कारख़ाने में नौकरी दिलवा सकते हैं। वह खु़द वहां नौकरी ही नहीं करते बल्कि थोड़ी बहुत पहुंच भी है उनकी उधर। एक बार सरकारी नौकरी मिल जाए तो समझो बादशाही मिल गयी। पर बादशाही को परे सरकाते हुए बिफर गया रामनिझावन...

‘‘अरे अइसा जुलुम न करो महेसवा... अभी तो ई हमार हाथ बटावे लायक हुआ अउर तुम हो कि... न न, हम नाही भेजी रहे सहर-वहर। हम खेती-बाड़ी कर वाले मजूर ठहरे... हम का करिहें सरकारी नौकरी की बादसाहत लइके?’’

पर गोविंदा, एक तो शहरी मामा का अपना चुंबकीय आकर्षण दूसरे उससे बड़ा आकर्षण शहर जाकर नौकरी करने का... फिर थाली में परोस कर सामने आये इस मौक़े को कैसे छोड़ दे भला? छोटे भाई-बहनों के साथ मिलकर मोर्चा बनाकर अड़ गया गोविंदा! 

रामनिझावन रोता-कलपता ही रह गया कि दो-दो बेटियों के हाथ पीले करने हैं... छोटे बेटे को भी पढ़ाना है, अब ई सारा बोझ मैं इकल्ला कइसे ढोऊंगा? अरे बड़ा बेटा ही तो सहारा हुई है बाप का... पर गोविंदा को तो जाना था सो वह चला गया। हां, इतना हौसला ज़रूर बंधा गया कि खेती में चाहे मैं तुम्हारी मदद न कर सकूं दद्दा पर पैसे में तुम्हारी मदद ज़रूर करता रहूंगा। मुझे भी अपने छोटे भाई-बहिनों का ख़याल है। उनके लिए जो हो सकेगा करूंगा। 

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बात का पक्का निकला गोविंदा। उसे अपने दद्दा की... भाई-बहिनों की ज़िम्मेदारी का पूरा ख़याल था सो वह अपने खर्चे लायक पैसे रखकर तनख़्वाह के सारे रुपये दद्दा के पास भेज दिया करता। साल में दो बार जब सबसे मिलने घर आता तो सबके लिए कुछ-न-कुछ लेकर भी आता। अब राम निझावन ने भी संतोष कर लिया कि चलो बेटा राजी-खुशी है, अपना कमा-खा रहा है... घर में मदद भी कर रहा है और सबसे बड़ी बात कि खूब खुश है। अब बच्चों के सुख से तो बड़ा और कोई सुख होता नहीं मां-बाप के लिए।

पर यह सुख भी ज़्यादा दिन के लिए नहीं लिखा था रामनिझावन की तक़दीर में। पूरा पहाड़ टूटकर गिर जाता तब भी शायद वह इस तरह चकनाचूर नहीं होता, जितना इस घटना ने कर दिया। कोई हारी-बीमारी की ख़बर नहीं... दुख-तकलीफ़ की सूचना नहीं, सीधे गोविंदा की लाश लेकर ही चला आया महेसवा तो। रामनिझावन भरोसा करे तो कैसे करे कि सामने लेटा यह आदमी ज़िंदा नहीं, लाश है। 

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