एपिसोड 1
ये कहानियां छह ऋतुओं में घटती हैं इसलिए इन सभी को छह ऋतुओं में विभाजित किया गया है। ऐसे विभाजन कालिदास के ऋतुसंहार के बाद कई भारतीय कवियों ने किए हैं।
अनुक्रम
एपिसोड 1-3 : गृह प्रवेश
एपिसोड 4-5 : बिज़नेस एग्ज़ीक्यूटिव
एपिसोड 6-7 : दूर देश की गंध
एपिसोड 8-12 : नाटक
एपिसोड 13-14 : रेत किनारे का घर
एपिसोड 15-16 : संध्याएं
एपिसोड 17-18 : क्या ऐसी कहानी का भी कोई शीर्षक होता है
एपिसोड 19-20 : रेस्तरां
एपिसोड 21 : शांति पर्व
एपिसोड 22-24 : अब नहीं कुछ
एपिसोड 25-26 : तस्वीर
एपिसोड 27-28 : सातवां बटन
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ग्रीष्म : प्रचण्डसूर्यः स्पृहणीयचन्द्रमाः ...
विदा होने का दुःख दोपहर की झिलमिलाती सिलवटों में छिप जाता। हम अलग होने लगते। इस वक़्त हम एक-दूसरे को देखने से बचते। शायद इस आशंका से कि कहीं आकांक्षा के जाल में एक बार फिर न उलझ जाएँ।
कहानी: गृह प्रवेश
आकांक्षा
है आशिकी के बीच, सितम देखना ही लुत्फ़
मर जाना आँखें मूँद के यह कुछ हुनर नहीं।
-मीर
‘हमारे बाबा ने अपनी इच्छा से देह त्याग दी थी।’
उस दिन घर जाते हुए बोली थी। काश वह बोलने से पहले मैंने कुछ सोचा होता। उन दिनों जब मैं अपने बिखरे बाल ठीक करने लगती, वह दरवाजे़ की चौखट पर खड़ा मुझे चुपचाप देखता रहता। कमरे की ठहरी हवा में सँवारते बालों के स्पन्दन तिरते रहते और वह हल्की-सी गन्ध भी जो गुँथे हुए बालों में बन्द रही आती है लेकिन उनके खुलते ही चारों ओर फैलने लगती है। बन्द खिड़की के पीछे गर्मियों की चमकीली दोपहर तपती रहती।
‘तुम कुछ देर और नहीं रुक सकतीं?’
यह जानते हुए भी कि वह पूरी नहीं हो सकेगी यह आकाँक्षा उसके होंठों से फिसल जाती। उन दिनों अपने अधूरेपन में ही आकाँक्षा का जीवन होता। वह मुझे देखता रहता और मैं अपने भूरे बालों को सुलझाती, रुकने का आग्रह सुनती उसके घर से बाहर निकल आती। वहाँ दोपहर खड़ी होती। निःशब्द के एकान्त में सुलगती हुई। घने पेड़ की झुलसी पत्तियाँ अपने भीतर सिमट कर सूर्य के ताप से बचने का प्रयास करतीं। आकाश नीली पारदर्शिता में चमकता रहता। पेड़ की छाया में कोई न कोई मवेशी पारदर्शिता में चमकता रहता। पेड़ की छाया में कोई न कोई मवेशी जुगाली करता रहता। बिल्कुल किसी पहुँचे हुए सन्त की तरह। जैसे उसके भीतर खाना नहीं, ढेर से अनुभव इकट्ठा हों जिनके सहारे वह किसी सत्य तक पहुँचने की चेष्टा कर रहा हो। वृक्ष की छाँव में।
उसके घर के एक ओर छोटा -सा गैरेज होता। मैं हताश होकर हल्के-से मुस्कराते हुए उसकी ओर देखने लगती। यह आग्रह कम उसकी ओर एक बार और देख लेने की मंशा अधिक होती। अहाते के गर्म फ़र्श पर वह नंगे पाँव खड़ा रहता। सूखी घास पर फटे-पुराने काग़ज़, थिगले, और पेन के टूटे ढक्कन छितरे रहते। वह बिना कुछ कहे मेरी ओर बढ़ने लगता। मेरे हाथों से स्कूटर ले लेता। ऐसा कई बार होता, मैं अहाते के बाहर साँप-सी पसरी सड़क के दोनों तरफ ताकने लगती।
यह डर होता। पापा के वहाँ से अचानक निकल आने का। यह डर होता जो उन दिनों हर सुख पर बेआवाज़ उग आता जिस पर सँभलकर पाँव रखती मैं एक ओर खड़ी हो जाती और उसे सड़क की बग़ल में स्कूटर रखते चुपचाप देखती रहती। विदा होने का दुःख दोपहर की झिलमिलाती सिलवटों में छिप जाता। हम अलग होने लगते। इस वक़्त हम एक-दूसरे को देखने से बचते। शायद इस आशंका से कि कहीं आकांक्षा के जाल में एक बार फिर न उलझ जाएँ। मैं स्कूटर स्टार्ट कर घर की ओर भागने लगती।
‘उजाले की पीठ पर एक नीली रेखा उभरती है। मैं ठगा-सा खड़ा रह जाता हूँ। जैसे मेरा सब कुछ एक बार फिर नष्ट हो गया हो।’
वह बाद में मुझे बताया करता।
घर तक का लम्बा रास्ता सूना पड़ा रहता। सड़कों पर फैला डामर पिघलता रहता। कई बार रेलवे क्रॉसिंग पर ठहरना पड़ता। वहाँ भी सिर्फ़ मैं होती, हहराती रेलगाड़ी को ताकती। धीरे से दरवाज़ा खोलती। मम्मी सो रही होती। खाने की मेज़ पर बैठ जाती। कॉलेज की किताबें-कॉपियाँ स्कूटर में ही छूट जातीं। देर शाम नौकर उन्हें बिस्तर पर सूखी पत्तियों की तरह बिखेर जाता। खाने की रस्म पूरी करती। दबे पाँव मम्मी की बग़ल में लेट जाती। वह मेरी तरफ करवट बदल लेतीं।
‘तुम कब लौटी?’
नींद के गढ़े से उनकी आवाज़ ऊपर आती मेरे कानों तक आकर फड़फड़ाने लगती। यह प्रश्न नहीं महज़ उनके भीतर अपनी बड़ी होती बेटी की चिन्ता का बीज होता जो उन्हें नींद की सात रजाइयों के नीचे भी गड़ता रहता। तेज़ धूप से लाल मेरा चेहरा जैसे पानी में डूबने लगता। वे सोती रहतीं। पहले से कहीं गहरी नींद में।
‘तुम मेरे जाने के बाद क्या पूरी शाम घर पर ही रहे?’ मैं उससे पूछती।
‘तुम्हारे जाते ही यह घर उजड़ जाता है,’ वह मेरे बालों से खेलते हुए जवाब देता।
‘मैं दिनभर तो तुम्हारे साथ यहाँ रह नहीं सकती। वे लोग क्या कहेंगे।’
‘तुम रोज़ देर कर लेती हो?’ वह दोबारा बोलने लगतीं, उनके हाथ को अपने हाथों के बीच लेकर मैं धीरे-धीरे दबाने लगती। यह उनके लिए थपकियाँ होती। वह फिर नींद की गहरायी में पहुँच जातीं। उनके सलीके से गुँथे काले बाल चादर पर किसी टहनी की परछाई-से पड़े रहते। उनका शरीर प्रशान्त साँसों की डोर से बँधा कभी ऊपर, कभी नीचे होता रहता।
अधखुली खिड़की से पेड़ों की सरसराहट भीतर की हवा में घुलती रहती। सड़कों पर दोपहर मुलायम पड़ने लगती। अहाते की दीवार पर सिर टिका कर नौकर ऊँघने लगता। अकेली पड़ गयी कोयल रह-रह कर किसी को पुकारने लगती।
देर शाम पापा घर लौटते। नौकर मेरी किताबें हाथों में उठाए भीतर आता। वह मुझे बैठक से ही आवाज़ देने लगते। मैं जाकर उनकी ओर मुड़ती। वह जाने कब उठ कर रसोई में जा चुकी होतीं।
‘तुम्हें किताबें मिल गयीं?’ वह बिस्तर के पास तक चले आते। मेरा जवाब सुनने की जगह उसे मेरी विस्फाटिक आँखों में खु़द ही टटोलने लगते। मुझे एक पल यह लगने लगता कि उन्हें सब मालूम चल गया है। किताबों के बहाने वह मेरे सच को छू लेना चाह रहे हैं। मैं सिहर जाती। उन्हें निष्पलक घूरती चली जाती। उन दिनों जैसे ही कोई बेचैन सच हमारे भीतर जन्म लेता, हमें लगने लगता कि हम अनायास ही दूसरों के सन्देह के घेरे में चले आये हैं।
‘तुम यह तक भूल गये।’ मैं छिटक कर उससे दूर हो जाती।
‘किताबों का करोगी क्या? तुम्हारे इम्तिहान में अभी काफी समय है’
‘मेरे पास उनसे कहने कुछ तो होना चाहिए।’ मैं चिन्तित होकर अँधेरे कमरे में यहाँ-वहाँ ताकने लगती। उसकी आँखें दो तारों-सी टिमटिमाती रहतीं। खिड़की के नीचे कोई गाय घास चरने आ जाती। उसके घास खाने की आवाज़ से डर कर हम एक-दूसरे में दुबक जाते। हमसे परे एक अकेली दोपहर चुपचाप बीतती रहती।
‘तुम कहो तो मैं उससे बात करूँ’ पापा बिस्तर के सिरहाने बैठ जाते। वह पिता होने के दायित्व से भर कर बोलते। उन्हें अपने कहने पर पूरा विश्वास होता। उन दिनों हम सभी को अपने कहने पर पूरा विश्वास होता। वह मेरा माथा सहलाने लगते। रसोई से चीनी मिट्टी के बर्तनों की खड़खड़ सुनायी देने लगती। अब वक़्त होता मम्मी के आने का। वह हमेशा एक कप चाय ज़्यादा लातीं। पूरी ट्रे बिस्कुट, नमकीन और कपों से लदी रहती।
‘किससे बात करनी है?’
वह घर की छोटी-से छोटी समस्या तक में हवा की तरह फैल जाना चाहतीं।
‘उसी से जिससे यह पढ़ने जाती है।’
शाम का अँधेरा धीरे-धीरे घर में बिखरने लगता। इससे पहले कि हमारे चेहरे झीने अँधेरे में ओट हों, हम में से कोई एक कमरों की बत्तियाँ जला देता। यह काम ज़्यादातर पाया करते। वह अहाते की घास पर कुर्सी बिछा लेते और मम्मी के बाहर आने का इन्तज़ार करते। मैं उसके फ़ोन का।
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