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मश्रा ख़ुद को कुरतो के चूमने से बचाना नहीं चाहती थी बल्कि चाहती थी कि चूमने का यह मंजर सदियों तक चलता रहे।

चूमना 

हमारे बीच दूरियाँ हैं।

कितनी दूरियाँ हैं हमारे बीच। नर्म उदासी में उसने अपने कपड़े बदले और बिस्तर पर पीठ के बल लेट गई। 

लेटे हुए उसका एक पैर घुटने से थोड़ा उठा हुआ था जबकि दूसरा सीधा था। उसकी हथेलियाँ बिस्तर पर थीं और उँगलियाँ ऐसे तैर रही थीं जैसे किसी ने उन्हें ऐसा करने का इशारा किया हो।

हमारे बीच कितनी दूरियाँ हैं। कई शहर, एक बोली और कई किलोमीटर लंबी अरावली पर्वत श्रृंखला है हम दोनों के बीच। 

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यह सोचते हुए वह नींद को ख़ुद में ऐसे समा देने जाना चाहती है जैसे कुरतो ने पहली बार उसे शहर के बाहर के घने जंगल जैसे रास्ते में पागलों की तरह चूमा था। वह उसके होंठ ऐसे चूम रहा था जैसे बेसुध होकर कोई गीत गा रहा हो। जैसे उस गीत में अंतरा आने पर वह चूमने की गति धीमी कर देता हो और फिर अचानक उत्तेजना में उस गति पर से अपना नियंत्रण खो देता हो। उन दोनों का शरीर और मन उस अकेले जंगल जैसे रास्ते में लगे पेड़ों के पीछे कुछ पाने को एक-दूसरे को बुरी तरह टटोल रहा था। 

- तुम पागल हो गये हो क्या कुरतो? छोड़ो मुझे। ऐसा मश्रा ने कहा तो लेकिन उसका यह अर्थ बिल्कुल भी नहीं था। बल्कि वह ख़ुद ही उसे अपनी ओर खींचने लगी।

मश्रा ख़ुद को कुरतो के चूमने से बचाना नहीं चाहती थी बल्कि चाहती थी कि चूमने का यह मंजर सदियों तक चलता रहे। उसकी आँखें बन्द हो रही थीं लेकिन वह न तो हैरान थी न ही यह चाहती थी कि कुरतो स्पर्श के इस अहसास से उसे बहुत देर तक बाहर आने दे।

मश्रा की मुलायम उँगलियाँ हवा की तरह हल्की हो गईं, उनमें कुरतो ने अपनी उँगलियाँ फसा दीं। पेड़ों पर बैठी चिड़ियाँ ऊँचे स्वर में बोलने लगीं। वह मश्रा की उँगलियों को मसलने लगा। धीरे-धीरे। ऐसे, जैसे अपने शरीर का कोई संकेत उसकी उँगलियों से उसके शरीर में भेज रहा हो। वे चिड़ियाँ उन दो सिहरते शरीरों को बड़े ग़ौर से देख रही थीं। मश्रा और कुरतो के बीच हल्की-सी भी हरक़त होने पर जंगल का सन्नाटा काँच की किरचों की तरह टूट रहा था।

मश्रा को कुरतो के होंठो से बहती नर्म सांस अभी भी अपने चेहरे पर महसूस हो रही है। वह सोना चाहती है लेकिन नींद उसे ऐसे स्पर्श करती है जैसे कुरतो का साथ एक मीठी और दूरी भरी सरसराहट बनकर उसके पूरे जिस्म पर कुछ लिख रहा हो। उसे लगता है उसका शरीर पानी का बना है और कुरतो के छूने से उसके पेट में लहरे उठती हैं। कुरतो उसके पेट को बत्तख कहता था। वे लहरें उसे भीतर तक उलझाये रहती हैं और उसके पेट में रहने वाली बत्तख रात-भर उन लहरों में तैरती रहती है।

कुरतो दूसरे शहर में रहता है। उससे दूर। उन दूरियों को मश्रा ऐसे नापती है जैसे कोई पतंगबाज़ बड़े सधे इशारों में माँझा अपनी उँगलियों में लपेटता है। उसे एक धुन सुनाई देती है, बीते दिनों के साथ की। उन सुलझे हुए दिनों में वह उस सिरे को खोजने का यत्न कर रही है जहाँ से गुजरने के बाद वह अब की उलझन को समझ पाये। बहुत देर तक वह उस दिन, पल और मौसम को याद करने की कोशिश करती है लेकिन नहीं खोज पाती उस एक खोये क्षण को। उस पल को जब महसूसने का यह सारा खेल शुरू हुआ था।

उसे कुरतो की हँसी, दुलार, गालों को थपथपा कर कोई बात कहना, वह सब याद आ रहा है जो उसके लिए उस वक़्त एक बड़ी साधारण बात थी। वह सोच रही है कि क्या सचमुच वे बातें साधारण थीं? एक पल के लिए उसे कोई ख़याल नहीं आता। उसका सोचना सुन्न पड़ जाता है। मौसम में नमी है और यह नमी उसकी याद में, भीतर कहीं गहरे में जम गई है। 

रात की रो कर थक चुकी उसकी आँखों में उस प्रेम की अबोली सुगबुगाहट है जो कुरतो ने उसे दी।

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कुरतो की अपनी ही एक दुनिया है। वह बेहद ज़िद्दी और मनमौजी क़िस्म का युवक है। कहीं भी, अचानक बिना किसी को बताए, चला जाता है और अचानक ही लौट भी आता है। ऐसा उसने कई बार किया है। वह कई बार अनजान यात्राओं पर, अनजान शहरों, अनजान लोगों की भीड़ में ऐसे ही निकल पड़ता था।

मश्रा ने सुना था कि इन दिनों वह एक आईनों की किसी बहुत पुरानी दुकान पर काम करता है जिसके बारे में लोग कहते हैं कि वह आईनों की दुकान बहुत डरावनी है। वहाँ से रात को अक्सर आवाज़ें आती हैं। आस-पड़ोस के लोगों ने इस बात की शिकायत शहर के मेयर से भी की थी लेकिन जाँच करने पर कोई भी आपत्तिजनक संकेत नहीं मिला, न ही कभी ऐसा कोई सुबूत बरामद हुआ जिसके आधार पर यह कहा जा सके कि उस आईनों की दुकान से किसी को कोई परेशानी हो सकती है। 

उस रात कुरतो यही बताने के लिए मश्रा के पास आया था और मश्रा को उसने देर तक चूमा था। वह उसका चूमना कई दिनों तक याद रखती है। सोते हुए, जागते हुए, नहाते हुए और यहाँ तक कि पढ़ते हुए भी उसे कुरतो का चूमना ऐसे याद आता है जैसे चूमना इस दुनिया की एकमात्र सत्य घटना हो। 

कुरतो ने उस रात मश्रा के होंठो को बहुत देर तक देखा था। उसे अपने अंगूठे से सहलाया था। वे खुलते, बन्द होते रहे। उसे लगता था जैसे उसके होंठ हर समय कुछ कहने की ख़्वाहिश में आधे खुले रहते हैं। वह आधे खुले होठों की बात सुनने के लिए उनके पास गया और एक झटके से जाने क्यों उसने मश्रा के सुन्दर होंठो को अपने दाँतों से काट दिया। 

आधी रात हो चुकी थी। उस रात की याद में मश्रा अभी भी जाग रही थी। आसमान भी जागा था। वहाँ तारों ने एक झुंड बनाया और धीरे-धीरे वे तारें उसके पेट की ओर बढ़ने लगा जहाँ वह बत्तख आधी नींद और आधी जाग में, अपना शरीर ढीला छोड़कर सो रही थी।

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