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प्रांत-प्रांत में इनके भिन्न-भिन्न पर्याय हैं। हमारे युक्त-प्रदेश के लोग इन्हें ‘चाॅकलेट’, ‘पाकेट-बुक’ नामोपनामों से याद करते हैं। इनके अनेक उपनाम ऐसे भी हैं, जिन्हें सभ्य-भाषा लिख नहीं सकती।

पॉकेट-बुक


‘बेक़रारी क्यों न हो ताज़ा शिकारे इश्क़ हूं,
चोट वह खाई है दिल पर जो कभी न खाई थी।’ 

उपर्युक्त शेर को ज़रा स्वर -करुण स्वर- से कहकर हमारे मित्र बाबू दिनकर प्रसाद बीए मतवाले की तरह कुर्सी पर एक ओर लुढ़क गए। मैंने मन में विचार किया माजरा क्या है? आज यह इतने सुस्त क्यों हैं? फिर पूछा, 

‘ख़ैरियत तो है? आज तो हुज़ूर कुछ मजनून बने बैठे हैं।’

दिनकर बाबू ने फिर एक लंबी सांस खींचकर कहा, 

‘दर्द से वाक़िफ़ न थे ग़म से शनासाई न थी, 

वह भी क्या दिन थे, तबीयत जब कहीं आई न थी।’

एक शेर, एक आह और फिर दीर्घ विश्राम! मुझे बुरा मालूम पड़ा। मैंने पास ही बैठे दूसरे मित्र मनोहरचंद्र से कहा, 

‘देखते हो मन्नु! आज इन्होंने कविता-पाठ सम्मेलन आरंभ कर दिया है। अब हम लोगों से भी पर्दा करने लगे। ना जाने किस चांद के टुकड़े को देख लिया है इन्होंने।’

मनोहरचंद्र भी दिनकर प्रसादजी की पहेलियों से ऊब गए थे। इतनी देर तक उन्होंने कुछ कहा नहीं, यही आश्चर्य है। नहीं तो मनोहर की ज़ुबान कभी रुकती है? उन्होंने कहा,

‘बाबू दिनकर प्रसादजी दूसरे लोक के जीव हैं। इनका सिद्धांत है –

‘भौं चूम लेई ला केहू सुन्नर जे पाई ला, 

हम ऊ हई जे ओठे प’ तरुआर खाई ला।’

‘ओहो! बनारसी बोली की इतनी सुंदर कविता! किस की रचना है यार? भौं चूम ओठ तरवार…। भौं के लिए तलवार की उपमा और ओठ पर खाना - वाह!!’

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‘इतनी साधारण उपमा से ही आपकी उर्दू बी का सुथना ढीला हो गया?’ मनोहर ने मुस्कुराते हुए कहा, ‘और एकाध सुनिए’,

‘कहली कि काहे आंखी में सुरमा लगाव ला 

हंस के कहिलै छूरी के पत्थर चटाई ला’ 

दिनकर - ‘बहुत अच्छा। ‘आंखें’ और ‘छुरी’, ‘सुरमा’ और ‘पत्थर’। बहुत ही बढ़िया है।’ 

दिनकर बाबू को तारीफ़ों का पुल बांधते देख मैंने मनोहर से कहा, 

‘ज़रा ‘फंदा’ वाला सुना दो, उसे दिनकर बाबू बहुत पसंद करेंगे।’

‘हां-हां! सुनिए दिनकर बाबू! मनोहर ने आरंभ किया, 

‘जब से फंदा में तीर जुलफ़ी के आयल बाटी
रामधै भूल-भूलैया में भुलायल बाटी। 

मून-मून आंख तोहे देखी ला राजा रमधै 

न त बूटी न नसा बा न उंघायल बाटी 

तोरे त प्रीति के रसरी में हाय रे बप्पा!

ये राजा, चोर मतिन आपै कसायल बाटी।  

देखाऽ अब धूनी रमाईला तोरे गल्ली में, 

संगी साथिन से यही कहके हम आइल बाटी।’

हमें ठीक याद है। अभी उपर्युक्त कविता पूरी भी न हुई थी, मनोहर आगे कुछ कहना चाहता था, इतने में दरवाज़े से किसी ने पुकारा, 
‘दिनकर बाबू!’ 

‘हां, हां तुम! अभी आया।’

‘माफ़ करना भाई; ज़रा ज़रूरी काम है। मैं कल फिर आपसे मिलूंगा।’ कहकर दिनकर बाबू फ़ौरन दरवाज़े की ओर लपके। हमने देखा, उन्हें पुकारने वाला तेरह-चौदह वर्षों का एक सुंदर बालक था! 

मैंने मनोहर से पूछा,

‘यह लड़का कौन है? दिनकर के कोई भाई तो नहीं है न?’

‘अजी नहीं। वह दिनकर बाबू का चॉकलेट था।’  

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‘चॉकलेट?? चाॅकलेट क्या?’

‘पाकेट-बुक?’

‘ज़रा समझाकर कहो, मज़ाक़ छोड़ो! तुम्हारे चाॅकलेट, और ‘पाकेट-बुक’ मेरे लिए लैटिन और ग्रीक हैं।’

लैटिन और ग्रीक का समझ लेना सरल है भाई! पर इन चाॅकलेटों की स्टडी बहुत ‘डिफ़िकल्ट’ है। चाॅकलेट रोग दिन-पर-दिन हमारे देश में प्लेग और हैजे से भी अधिक बढ़ रहा है। समाज देखता हुआ अंधा बना हुआ है। वह वेश्या-गमन का विरोधी है, विधवा विवाह के नाम पर भी उसकी आंखें ख़ूनी हो जाती हैं, पर, इसकी उसकी ज़ुबान से नहीं होती। क्यों? उसे शर्म मालूम पड़ती है। घर में आग लग गई है पर ‘जेंटिलमैन’ जी मारे शर्म के स्वयं बुझाने को तैयार नहीं!’

‘थोड़ा और स्पष्ट करो। अभी कुछ-कुछ समझ सका हूं।’

‘अच्छा स्पष्ट सुनो, चाॅकलेट की परिभाषा याद कर लो। मुमकिन है कभी तुम्हें भी उनका सामना करना पड़े। ‘चाकलेट’ देश के उन भोले-भाले, कमसिन और सुंदर लड़कों को कहते हैं, जिन्हें समाज के राक्षस अपनी ‘वासना’ तृप्ति के लिए सर्वनाश के मुख में धकेलते हैं। ये बच्चे समाज के अच्छे-अच्छों तक से नष्ट किए जाते हैं और दुश्चरित्र बनाए जाते हैं। प्रांत-प्रांत में इनके भिन्न-भिन्न पर्याय हैं। हमारे युक्त-प्रदेश के लोग इन्हें ‘चाॅकलेट’, ‘पाकेट-बुक’ नामोपनामों से याद करते हैं। इनके अनेक उपनाम ऐसे भी हैं, जिन्हें सभ्य-भाषा लिख नहीं सकती।’

‘अरे दिनकर बाबू जैसे पढ़े-लिखे लोग ही इस पाप-पंक में फंस सकते हैं! असंभव! तुम कुछ भूल तो नहीं कर रहे हो मनोहर?’

‘भूल!!! तुम स्वयं, ज़रा सहानुभूति के साथ इस विषय की चर्चा उनसे करना। देखना वह क्या उत्तर देते है? इतिहास छान डालेंगे, पुराणों की कपालक्रिया कर डालेंगे और यह सिद्ध कर देंगे कि बाल प्रेम भी प्राकृतिक है - अप्राकृतिक नहीं। जिस दिन मैंने उनसे इस विषय पर बातें कीं, उस दिन तो उन्होंने एक अंग्रेज़ी पुस्तक के सहारे ‘सुकरात’ तक को इस अपराध का अपराधी बताया। कहने लगे कि शेक्सपियर भी अपने किसी ख़ूबसूरत दोस्त का ग़ुलाम था। मिस्टर ऑस्कर वाइल्ड की चर्चा भी उन्होंने की थी। मेरा विश्वास शायद तुम्हें ना हो, अतः तुम्हीं उनसे पूछकर मेरी बातों की सत्यता की जांच कर लो।’  

‘प्रिय गोपाल

कल शाम को मैंने तुमसे चाॅकलेट की चर्चा की थी। घर लौटने पर मेरे हृदय ने कहा कि उक्त विषय को मैंने तुम्हें ठीक से नहीं समझाया। इसी से आज यह पत्र लिख रहा हूं। इच्छा तो तुमसे मिलने की थी, पर अभी-अभी मुझे एक ज़रूरी काम से प्रयाग जाना है। मैंने इस विषय पर खूब विचार किया है। इसके कारण समाज की भयंकर हानि हो रही है। देश के नव-युवक जनाने हुए जा रहे हैं। एक बालक जब यह देखता है कि उसके दूसरे साथी पर अधिक लोग आकर्षित हैं, तब वह भी अपने साथी का अनुकरण करने की चेष्टा करने लगता है। वेनोलिया के बाद वाइट-रोज़ और वाइट-रोज़ के बाद पीयर्स- सोप की सहायता से चाॅकलेट बनने की चेष्टा आरंभ होती है। लड़कों की पढ़ाई-लिखाई का समय सुंदर बनने के प्रयत्न में चला जाता है। और रूप की दुकानदारी के फेर में पड़ने के कारण उनके मस्तिष्क दुर्लभ, वासनाएं प्रबल और आदतें घृणित हो जाती हैं।

बहुत से बालक अपने अभिभावकों की अकर्मण्यता से नष्ट हो जाते हैं। अधिकतर अभिभावक अपने लड़कों के परोक्ष जीवन के सुधार की चेष्टा नहीं करते। उनके लिए लड़के का स्कूल जाना और लौट आना तथा वर्ष के अंत में ‘पास’ नहीं तो ‘प्रोमोटेड’ हो जाना ही बहुत है।’

‘बालकों के सर्वनाश के लिए देश में अनेक स्वनामधन्य स्थान हैं। स्कूलों के ‘बोर्डिंग’, ब्रह्मचर्याश्रम, कम्पनी-बाग़ और मेलों-तमाशों में लड़कों को पथ-भ्रष्ट करने की चेष्टाएं अधिकतर होती हैं। अनेक बार ऐसी घटनाएं सुनी गई हैं, जिनमें शिक्षक ही बालकों के नाश के दायी होते थे। ऐसे कम स्कूल होंगे, जिनके हेडमास्टर के पास साल में इस प्रकार के दस-पांच केस न आते हों। फिर भी, सुधार की ओर लोग ध्यान नहीं देते। ऐसे कम विद्यार्थी होंगे, जिनका कोई सुंदर मित्र न हो। विद्यार्थी अपने सुंदर मित्र को मित्र कहते हैं, रिश्तेदार बताते हैं। पर मित्र और रिश्तेदार के प्रति उनके आचरण कैसे होते हैं, उसका वर्णन करना असंभव है।’ 

‘अस्तु, गोपू! इस कुप्रथा का अंत होना चाहिए। अन्यथा हमारे देश की वर्तमान पीढ़ी, भावी पीढ़ियों को भी नष्ट कर डालेगी। थोड़े ही दिनों में देश की वीरता, सच्चरिता और मनुष्यता का सर्वनाश हो जाएगा। बस, अधिक बातें मिलने पर। 

तुम्हारा मनोहर’

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