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आवाज बूथ के भीतर मनोज तक पहुँच रही थी। मनोज फ़ोन रखता कि रखता, तभी उसके कानों में जाती हुई अनुभा की झनकती-सी आवाज गयी, ‘‘साला बिहारी!’’

साला बिहारी!

कहानी में आये विवरण एवं तथ्य पूर्णतया काल्पनिक हैं। किसी भी जीवित अथवा मृत व्यक्ति से इनका कोई सम्बन्ध नहीं। दरअसल दुनिया में गुवाहाटी नामक कोई शहर ही नहीं। गुवाहाटी में कभी कोई दंगा हुआ ही नहीं। दंगे में कभी कोई मरा ही नहीं। दुनिया में हर कहीं अमन-चैन है। लोग खुशहाल हैं। तमाम व्यस्तताएँ हैं। फुर्सतें भी हैं। फुर्सतों में पढ़ने के लिए और कभी नहीं पढ़ने के लिए कहानियाँ हैं। कहानियों में गुवाहाटी है। गुवाहाटी में दंगे हैं। दंगों में लोग मारे जा रहे हैं। लेकिन गुवाहाटी, अहमदाबाद, अयोध्या, काबुल, बग़दाद आदि हमारे समय के क़द्दावर गप्प हैं बस। चिन्ता की कोई बात नहीं।


कहानी में मेरा नाम है मनोज पांडेय। मनोज कुमार पांडेय। और वह थी अनुभा बरगोहाईं। आज भी याद है जब मैं उससे पहली बार मिला था।

कुछ इस तरह याद है कि वह एक विनोद मेहरा टाइप निहायत ही शरीफ़ क़िस्म का दिन था। मतलब ऐसा कुछ नहीं था जो उस दिन को अलग से यादगार बनाता, सिवाय इसके कि उस दिन बारिश हुई थी। हवा में नमी और ठंडक थी जिसकी वजह से दिन कमसिन और छरहरा हो आया था। दोपहर के लगभग बारह-सवा बारह बजे होंगे जब मैंने उसे पहली बार देखा। कहानी यहीं से शुरू हुई।

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कहानी में एक था मनोज और एक थी अनुभा। मनोज बिहार के छपरा ज़िले का तो अनुभा असम के गुवाहाटी की। मनोज गुवाहाटी के नज़दीक गौरीपुर के एक स्कूल में हिन्दी टीचर और अनुभा संगीत से बीए। कविताएँ लिखने वाली। कहानी में दोनों की मुलाक़ात हुई गुवाहाटी में। पहली मुलाक़ात।

मनोज अपने एक कलीग साधन बरुआ के साथ गुवाहाटी आया हुआ था नून-तेल-लकड़ी की अपनी साप्ताहिक खरीद-फ़रोख़्त के लिए। इंटर स्टेट बस टर्मिनल के एसटीडी बूथ पर मनोज फोन कर रहा था और अनुभा बूथ के दरवाज़े को बार-बार ठोक रही थी कि जल्दी कीजिए, उसे भी कहीं एक अर्जेंट कॉल करना है। मनोज ने बूथ के शीशे से अनुभा को एक सरसरी नज़र से देखा। अनुभा उसे ही देख रही थी। मनोज से निगाह मिलते ही वह पलटकर बूथ वाले से मुख़ातिब हो गयी।

मनोज ने दरवाज़े की फाँक से सुना कि वह बूथ वाले को डपट रही है कि वह ऐसे लौंडे-लपाड़ों को फोन क्यों करने देता है जो अपनी प्रेमिकाओं से घंटों बतियाते हैं, बिना इस बात का ख़याल किये कि दूसरों को भी ज़रूरी फोन करना हो सकता है। मनोज अपनी माँ से बात कर रहा था। भोजपुरी में। कुछ उन लोगों की तरह जो एसटीडी कॉल करते ही बिला वजह फोन पर ज़ोर-ज़ोर से बोलने लगते हैं— इस पर ग़ौर किये बग़ैर कि उनकी आवाज़ बाहर तक पहुँच रही होगी। अनुभा भी बूथ वाले पर चिल्ला रही थी। इतनी ज़ोर-ज़ोर से कि उसकी आवाज़ बूथ के भीतर मनोज तक पहुँच रही थी। मनोज फोन रखता कि रखता, तभी उसके कानों में जाती हुई अनुभा की झनकती-सी आवाज गयी— साला बिहारी!

अजीब है पर सच है। कहानी में यही थी हमारी पहली मुलाकात। दिन था शनिवार। दस मई दो हजार तीन। इसी दिन मैं पहली बार रामदहिन से भी मिला था। रामदहिन कामती। और इसी दिन अनुभा से हुई मेरी दूसरी मुलाक़ात। दूसरी मुलाक़ात से मैं बेतरह चौंका था। मुझे अचम्भा इस बात को लेकर था कि हम पहले ही दिन अलग-अलग जगहों और परिस्थितियों में अलग-अलग तरीक़े से आख़िर क्यों मिल रहे हैं!

क्या दुनिया इतनी छोटी पड़ गयी थी? या यह कोई इशारा था?

देश की आज़ादी के बाद राष्ट्रभाषा हिन्दी की प्रतिष्ठा के लिए केन्द्र सरकार ने जिन तमाम उपक्रमों पर तवज्जो दिया, उनमें एक यह भी था कि भारत के हर स्कूल में राष्ट्रभाषा की पढ़ाई हो। फलस्वरूप प्रति वर्ष सैकड़ों की तादाद में देश-भर में हिन्दी के अध्यापकों की नियुक्तियाँ होती रहीं। यह भी था कि ज़्यादातर हिन्दी पढ़ने-पढ़ाने वाले लोग तथाकथित हिन्दी पट्टी से आते हैं। इसके उलट कुछ राज्यों में हिन्दी में एमए, पीएच-डी करने वालों की संख्या उँगलियों पर गिनाने लायक होती है ख़ासकर दक्षिण और पूर्वोत्तर राज्यों में। चक्रवर्ती राजगोपालाचारी के बाद के समय में दक्षिण तो फिर भी ठीक-ठाक है, लेकिन पूर्वोत्तर राज्यों में स्थिति कुछ ठीक नहीं कही जा सकती।

असम की ही लीजिए तो शुरुआत में माध्यमिक स्तर पर हिन्दी के शिक्षकों में अधिसंख्य वे ही लोग थे जो पहले असम राष्ट्रभाषा प्रचार समिति, गुवाहाटी के वैतनिक प्रचारक थे। इन प्रचारकों को ही असम राज्य सरकार ने तमाम सरकारी और ग़ैरसरकारी स्कूलों में हिन्दी पढ़ाने की अनुमति दे रखी थी। जब हिन्दी की पढ़ाई सरकार को अनिवार्य करनी पड़ी तब असम राष्ट्रभाषा प्रचार समिति से अनुरोध किया गया कि वह अपने इन वैतनिक प्रचारकों को सरकारी सेवा में जाने की अनुमति दे दे। यह हुआ 1952 ई. में।

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तब से ब्रह्मपुत्रा और बरक में कितना पानी बह चुका! प्रचारकों वाली शिक्षक पीढ़ी में जो कुछ लोग बचे हैं, वे अपने घरों में रिटायर्ड लाइफ़ जी रहे हैं। धीरे-धीरे इनकी जगहों पर हिन्दी अध्यापकों की आपूर्ति हिन्दी पट्टी से होने लगी। ऐसे ही वर्ष 2002 में स्कूल सर्विस कमिशन की मार्फत बिहार के छपरा ज़िले के एमए, बी-एड मनोजकुमार पांडेय की, बतौर हिन्दी अध्यापक, नियुक्ति असम के गौरीपुर नामक छोटे-से पहाड़ी शहर या कहें कस्बे के इकलौते स्कूल गौरीपुर आदर्श उच्चमाध्यमिक विद्यालय में हुई।

स्कूल की इमारत शहर के बीचोंबीच थी, अँग्रेज़ों के ज़माने की, जिसकी ऊँची मेहराबें और गोल गुम्बद और न जाने कब की बन्द पड़ चुकी आदमक़द चौकोनी घड़ी शहर में कहीं से भी दिख जाती थी। पहाड़ पर इस तरह का एक विशालकाय भवन बनाने का न जाने क्या तुक रहा हो! जबकि आसपास हर जगह छोटे-छोटे घर थे और उन पर पत्थर की छरहरी स्लेटों की छतें थीं।

थोड़ी और ऊँचाई पर जहाँ चीड़ के घने जंगल और कुहासे थे, घर पत्थर की जगह काठ के बने होते और स्कूल की खिड़कियों, जो अमूमन एक साधारण घर के दरवाज़ों से भी ऊँची होती थीं, से वे माचिस के छोटे डब्बों-जैसे दिखते थे, अजीब तरह से हल्के और पोपले, मानो एक अदद ऐंठा हुआ झोंका उन्हें उड़ाकर कहीं का कहीं ले जा पटकेगा। इन सबके बीच स्कूल की इमारत धमाकेदार तरीक़े से क़द्दावर थी। दीवारों और छत को एक साथ नहीं देखा जा सकता। छतों को देखने के लिए एक ऊँची और ढीठ निगाह की ज़रूरत होती, जिसे ख़ासतौर से छत को देखने के लिए ही इस्तेमाल में लाना होता।

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