एपिसोड 1

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10 கருத்துகள்

अनुक्रम

एपिसोड 1 : मेरी यातना का बसंत 
एपिसोड 2 : फटी हुई क़मीज़
एपिसोड 3 : तीसरी दुनिया
एपिसोड 4 : इंकार
एपिसोड 5 : क़स्बे की धूल
एपिसोड 6 : प्यास और पानी
एपिसोड 7 : पानी के संस्मरण
एपिसोड 8 : खड़ी बोली
एपिसोड 9 : चीज़ों के बीच
एपिसोड 10 : ताम्रपत्र
एपिसोड 11 : चाक पर धरती
एपिसोड 12 : सुनो ऋत्विक घटक
एपिसोड 13 : हे महाराणा प्रताप
एपिसोड 14 : छब्बीस बरस अेकेले
एपिसोड 15 : पाक़िस्तान के इस तरफ़
एपिसोड 16 : शराबघर
एपिसोड 17 : क़स्बे के कबूतर

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शवयात्रा आदमी को पीछे छोड़ जाती है - अकेला और असहाय। मृत्यु का सत्य और जीवन की इच्छा- दोनों के बीच खड़ा आदमी शवयात्रा को जाते हुए देखता है।

कहानी : मेरी यातना का बसंत

सूरज अभी अस्त नहीं हुआ था। शहर अभी व्यस्त था- अपने खालीपन को छिपाने में और मैं शहर की सबसे चौड़ी सड़क पर चलते हुए प्रेमिका को भुला पाने की खुशी में दूर-दूर तक महक रहा था।

सड़कें खाली थीं, सुनसान। दूर एक मनहूस इमारत की छत के कंगूरे पर एक परिंदा चहक रहा था, जाती हुई बीसवीं सदी के आतंक से बेख़बर। मुझे लगा यह एक ख़बर है, जो शाम के अख़बार की ‘हेड लाइन’ बन सकती है। मुझे उस शाम पहली बार अफ़सोस हुआ कि मैं किसी अख़बार का संवाददाता नहीं हूँ।

मैंने क़मीज़ की ऊपर वाली जेब में पड़ी आख़िरी सिगरेट सुलगाई और लम्बे कश लेता हुआ पीली साड़ी वाली उस लड़की का चेहरा याद करने लगा, जो आज दोपहर विश्वविद्यालय में मुझे देखकर मुस्कराई थी। या ऐसा भी हो सकता है कि वह पहले से मुस्करा रही हो और मैं उसी क्षण उसके सामने से गुज़रा होऊं। क्या फ़र्क़ पड़ता है? मुस्कराहट की सच्चाई इस बात से कम नहीं हो जाती। ‘बिकाऊ’ मुस्कराहटों के इस बासी समय में सच्ची मुस्कराहट वैसे भी दुर्लभ है।

इस बात को तो अब पहचान पा रहा हूँ। पहले ऐसा नहीं था। बहुत दिन नहीं हुए उस बात को जब मैं एक खाली दोपहर किताबों की दुकान में घुसा था। घुसते ही काउंटर पर खड़ी वह लड़की मुझे देखते ही मुस्कराई थी। दिन-भर का हारा-थका मैं भीतर तक झनझना उठा। उस किताब का नाम भूल गया, जो मुझे ख़रीदनी थी। पिछले कई दिनों से अपरिचित लोगों के इस शहर में यह पहली मुस्कराहट थी, जो ख़ास मेरे लिए थी। मैं कोई एक किताब ख़रीद कर बाहर आया। बाहर निकलने से पहले मैंने एक बार फिर मुड़कर देखा, वह अब भी मुस्कराए जा रही थी। बाहर धूप में तपता शहर था। मैं उस दिन देर शाम तक सड़कों पर भटकता रहा।

अगले दो-तीन दिन तक मैं किताब ख़रीदने के बहाने वहां जाता रहा। वह उसी तरह मुस्कुराती रही। मैंने इतनी किताबें ख़रीद लीं कि मेरे पास खाने तक के पैसे नहीं रहे।

अगले दिन मैंने सोचा, मेरे न जाने से कहीं वह उदास न हो जाए। यही सोचकर दुकान के बाहर तक गया। भीतर जाने की हिम्मत नहीं हुई। कोने में खड़े होकर भीतर झांका। वह मुस्करा रही थी, हू-ब-हू वही मुस्कराहट, लेकिन उस मुस्कराहट के सामने मैं नहीं था, एक मोटा तुंदियल प्रोफे़सरनुमा व्यक्ति था जो पेंगुइन का कोई नया सेट ख़रीद रहा था। शहर में यह मेरी पहली उदासी थी।

अगले कई दिनों तक संत कबीर के एक पद का मुखड़ा गुनगुनाता रहा, ‘माया महा ठगिनी हम जानी’। अपनी पीड़ा को रचनात्मक स्तर पर भोगने का यह अपूर्व अनुभव था, जिसमें बीसवीं सदी के मुहाने पर खड़े एक कमज़ोर युवक का सोलहवीं सदी के कवि से अद्भुत संयोग हुआ था।

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यह मेरी उम्र के धूप में बेमतलब आवारा भटकने के दिन थे। ऐसे दिन शायद हर आदमी की ज़िंदगी में आते हैं- बेसहारा और फ़क्कड़। उदास और अकेले। एक भूरी धुंध में डूबे हुए। ऐसे दिन, जिनमें कविताएं लिखने और प्रेम करने के अलावा कुछ नहीं किया जा सकता।

अब तक मैं इस शहर में काफ़ी अभ्यस्त हो चुका था। मैं शहर की भाषा बोलने लगा, शहर मेरे भीतर था और शहर मेरे बाहर था। अब मैं रेगिस्तानी गांव से आया हुआ कम बोलने वाला घोंचू नहीं रह गया था। अब मुझे मालूम था कि शहर में नए ढंग की सस्ती सूती क़मीज़ें कहां मिलती हैं? जिन्हें पहन कर निधड़क घूमा जा सकता हो। 

मेरी सारी घबराहट दूर हो चुकी थी। मुझमें अजीब-सा आत्मविश्वास भर गया था, जिसमें दुनिया गेंद की तरह गोल और छोटी दिखाई पड़ती थी। लगता, मैं इस दुनिया को समझ चुका हूँ। यह तो मुश्किलों के इतने थपेड़े खाने के बाद अब समझ पाया हूं कि दुनिया समझ में आ जाने वाली किताब नहीं है। इसकी कोई भी कुंजी बाज़ार में नहीं है।

इतना सोचने के बाद मुझे अनायास हंसी आ गईं। मैंने खु़द से ही कहा, ‘शाबाश, बहुत अच्छे। अगर तुम चिंतन भी करने लगे तो जिद्दू कृष्णमूर्ति क्या करेंगे?’

मैं किसी भी बात को गंभीरतापूर्वक नहीं ले पाता। यह मेरी कमज़ोरी है। मुझे आजकल हर गंभीर बात पर हंसी आती है। अभी पिछले दिनों विश्वविद्यालय के एक प्रोफे़सर वियतनाम होकर आए थे। लौटने पर एक दिन, एक हाॅल में अपने संस्मरण सुना रहे थे। वियतनाम के हालात का मार्मिक वर्णन कर रहे थे। सुनाते हुए इतने भावुक हो रहे थे कि लगता था रो देंगे। पचास-साठ लोग बहुत ही ध्यानपूर्वक उनके संस्मरण सुन रहे थे। मुझे अचानक हंसी आ गई। मेरी बग़ल में बैठे एक बुद्धिजीवी ने मेरी तरफ़ घृणा से देखा। मैं चुपचाप उठकर बाहर चला आया। बाहर आकर ख़ुद को कोसने लगा, ‘साले, तुम मौके़ की गंभीरता भी नहीं समझ पाते हो। लानत है तुम पर।’ 

मैंने सिगरेट पी, फिर गंभीर हुआ। अंदर गया। प्रोफे़सर के संस्मरण चालू थे… और तभी मैंने देखा एक दस-बारह साल का वियतनामी बच्चा, कंधे पर लटकती हुई बंदूक। मैं उस बच्चे के पास गया। उसके कंधे पर हाथ धरा। बच्चे ने पूछा, ‘कहां से आए हो?’ 
मैंने कहा, ‘हिन्दुस्तान से’ 
बच्चा मुझसे लिपट गया, ‘तब तो आप हमारे दोस्त हो...’ 

प्रोफे़सर की नाटकीय करुणा पर मुझे फिर हंसी आने लगी। मैंने सोचा, मैं इस सभा में बैठने के काबिल नहीं हूँ। उठा और बाहर चला आया। हालांकि उस वियतनामी बच्चे के कंधों पर रखी बंदूक का बोझ मैं भी महसूस कर रहा था, पर मुझसे प्रोफे़सर की करुणा बर्दाश्त नहीं हुई।

यह शहर की मुख्य सड़क थी, जिस पर तेज़-तेज़ क़दमों से मैं चला जा रहा था। मुझे असल में वहीं-कहीं जाना था। मैं फु़टपाथ पर लगी रेलिंग के सहारे टिक कर खड़ा हो गया। शहर में शाम हो रही थी। जाती हुई धूप के चकत्ते इमारतों के कंगूरों पर चिपके थे। अभी जब मैं यहाँ शहर की सबसे व्यस्त सड़क पर रेलिंग पर पीठ टिकाकर खड़ा हूँ, तुम क्या कर रही हो अमला? बरतन मांज रही हो, किताब पढ़ रही हो? या दाल पका रही हो? तुम क्या कर रही हो अमला? अमला कहीं नहीं थी। मैं किसी अमला को नहीं जानता। यह तो मैं कविता कर रहा था। मुझे किसी अमला से परिचय न होने का अफ़सोस हुआ।

मैं पूरी तरह खाली था और खाली समय में अफ़सोस करने के सिवा क्या कर सकता था? मैं मुख्य सड़क से लगी एक गली में मुड़ गया। गली में भीड़ थी। साईकिल, स्कूटर, रिक्शा और पैदल आदमियों से अटी हुई थी गली। मैं कीचड़, आदमियों और ठेलों से बचता-बचाता चल रहा था। इस गली से एक पतली गली भी जुड़ी हुई थी। मैं वहां तक पहुंचा तो देखा, ‘राम नाम सत्य है, राम नाम सत्य है’ की गुहार लगाती एक शवयात्रा चली आ रही थी। आगे-आगे चार व्यक्ति एक ढके हुए शव को उठाए चल रहे थे, पीछे बीस-पच्चीस लोगों का हुजूम था।

मैंने भी कहा, ‘राम नाम सत्य है’ और शवयात्रा में शामिल हो गया। मेरे पास कोई चारा नहीं था, कोई रास्ता नहीं था, जिससे आगे बढ़ा जा सके। अब मैं उस शवयात्रा के साथ-साथ चल रहा था। जेब से रूमाल निकालकर सिर ढक लिया। मैंने शवयात्रा में चल रहे लोगों के चेहरों की तरफ़ देखा, यह जानने के लिए कि इस मृत्यु से सबसे अधिक दुःख किसे हुआ है। लेकिन मैं असफल रहा। सभी चेहरों पर समान मुर्दनी छाई हुई थी। 

शव के एकदम पीछे चल रहे दो-चार लोग ‘जल्दी चलो-जल्दी चलो’ कह रहे थे। वे जल्दी से जल्दी मसान पहुंच कर क्रियाकर्म करना चाह रहे थे। वे रात से पहले ही इस काम से निबट जाना चाहते थे। मैं वहीं खड़ा हो गया। आंखें बंद कर मृत व्यक्ति की आत्मा की शांति के लिए ईश्वर से प्रार्थना करने लगा। आंख खुली तो शवयात्रा आगे जा चुकी थी।

शवयात्रा आदमी को पीछे छोड़ जाती है- अकेला और असहाय। मृत्यु का सत्य और जीवन की इच्छा, दोनों के बीच खड़ा आदमी शवयात्रा को जाते हुए देखता है। ‘मैं मृत्यु से नहीं डरता’ मैंने सोचा। फिर ख़ुद से कहा, ‘वाह बेटे, कितने शाश्वत सवालों से टकरा रहे हो।’ जवाब नहीं तुम्हारा। जीते रहो।’

मैंने बग़ल से गुज़र रही एक बच्ची के गालों को थपथपाया और कहा, ‘जीते रहो।’ वह बार-बार मुझे मुड़-मुड़ कर देखती रही, जब तक मैं उसकी आंखों से ओझल नहीं हो गया।

सामने एक विदेशी युवती चली आ रही है। लंबा गोरा क़द, कंधे से लटकता हुआ झोला। अभी इस शहर में टूरिस्टों का मौसम नहीं आया था, पर इक्का-दुक्का पर्यटक बारहों महीने सड़क पर घूमते आपको मिल सकते हैं। वह मेरे नज़दीक आई। मैंने पूछा, ‘गाइड चाहिए?’ 
वह रुकी, मेरी ओर देखा और बोली, ‘कम’। मैं उसके साथ हो लिया। उसने मुझे एक सिगरेट दी। अब मैं अकेला नहीं था।

उसने मुझसे ‘कंट्रीलिकर’ की फ़रमाइश की। मैं उसे एक सस्ते शराब-घर में ले गया। शराब-घर से लगा एक मैदान का टुकड़ा था, जो चारों ओर से दीवारों से घिरा था। मैदान में बहुत-से लोग बैठे पी रहे थे। एक ‘चना और गरम’ वाला चने बेच रहा था।

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मैं केसर कस्तूरी का अद्धा ले आया। मैदान के कोने में पड़े पत्थरों पर हम बैठ गए। युवती की गोल आंखें आश्चर्य से भरी चारों ओर देख रही थीं। ‘वंडरफुल’, उसने कहा। हमारे बीच दो मैले कांच के गिलास पड़े थे और बग़ल में खड़ा नीम का पेड़ आती हुई रात की ताज़ा हवा में हिचकोले खा रहा था। 

‘यह यहां की शाही शराब है’ मैंने कहा, ‘यह विदेशी शराबों की तरह शरीर में जाकर भटकती नहीं है। यह भीतर ‘अपनापे’ में भरी डोलती-फिरती है। फिर धीरे-धीरे फूल की तरह खिलती है। ख़ुशबू बिखेरती हुई।’
उसने बताया, वह अपने देश में नाटकों में काम करती है। पिछले पांच महीनों से भारत-दर्शन कर रही है। केसर कस्तूरी का नशा चढ़ रहा था। उसने फिर कहा, ‘वंडरफुल’। वह इस शब्द का ज़्यादा इस्तेमाल कर रही थी।

मैंने उसे बताया, ‘ये जो इतने सारे लोग यहां बैठकर पी रहे हैं, कोई रिक्शा चलाकर आया है, कोई फैक्ट्री में काम करके... हो सकता है इनमें से कोई किसी की हत्या करके भी आया हो...।’ मैंने उसे यह भी कहा कि इस शराबख़ाने से बीस क़दम की दूरी पर एक नेता शराब-बंदी कराने के लिए पिछले पाँच दिनों से ‘हंगर स्ट्राइक’ पर हैं। घबराओ मत, दो-चार दिन में वे हड़ताल से उठ जाएंगे।’

‘मैं उनसे मिलना चाहती हूँ।’ उसने कहा।
‘लेकिन वे तुमसे नहीं मिलना चाहते, बैठो और पियो।’ मैंने उसके कंधे पर हाथ रखा।
‘तुम क्या करते हो?’ उसने पूछा।
‘नथिंग... हाँ, अभी मैं बेकार हूँ... सिर्फ शहर में दिन-भर भटकता हूँ।’
‘फै़ंटास्टिक... तुम ग़ज़ब के आदमी हो...।’

मुझे लगा, उस पर केसर कस्तूरी चढ़ रही है। मैंने गोरी बाहें पकड़ीं और उसे उठया... शराबघर से बाहर लाया।

‘तुम बहुत देर से मिले, अब जब मैं इस शहर से जा रही हूँ।’
‘हाँ, मैं अक्सर देर से ही मिलता हूँ।’
‘तुम्हारा नाम क्या है गाइड?’
‘मेरा कोई नाम नहीं है। अभी तुम जाओ। अच्छा, टाटा, बाय-बाय...’

मैंने उसे चौराहे पर छोड़ दिया। रात गहरा चुकी थी। मैं अभी तक शहर की सड़कों पर घूम रहा हूँ, जबकि मुख्यमंत्री भी सो चुके होंगे- राज्य को हांफ़ता हुआ छोड़कर।

पतझड़ के पीले पत्ते सड़क पर हवा के साथ भाग रहे थे। लगा जैसे वे मरने के बाद एक बार फिर मर रहे हों।

यह मेरी यातना का बसंत था- फूलों से लदा, हरा-भरा। मेरे अकेलेपन को अपनी छाया से गहराता हुआ। मैं आगे बढ़ लिया।

कहानी समाप्त। अगली कहानी के लिए कॉइन कलेक्ट करें और पढ़ना जारी रखें