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अक्सर जब सपने की उम्र बड़ी होती है तो नींद अल्पायु। मन का मन में ही रह जाता है कि कभी सपने के पूरा होने तक हम सोते रहते और यह महसूस करते कि सपना जब ख़त्म होता है तो कैसे सारे दर्शक अपनी सीट से खड़े होकर ताली बजाने लगते हैं। 

सनातन बाबू का दांपत्य

(जो नहीं है, मेरे होने में इस तरह जगह घेरता हुआ स्थित है, कि मैं गवाह होता हूँ उसके नित नहीं होते जाने का।)

होता यह है कि एक सपना देख रहे हैं और यकायक नींद टूट जाए। अक्सर जब सपने की उम्र बड़ी होती है तो नींद अल्पायु। मन का मन में ही रह जाता है कि कभी सपने के पूरा होने तक हम सोते रहते और यह महसूस करते कि सपना जब ख़त्म होता है तो कैसे सारे दर्शक अपनी सीट से खड़े होकर ताली बजाने लगते हैं। 

जब सपने की स्क्रीन पर टँग जाए 'द एंड' का शीर्षक और सारे दर्शक हॉल से बाहर निकल आएँ। बाहर निकलते हुए देखे गये सपने के बारे में एक-दूसरे से बहस करें। उसका विश्लेषण करें। किसी निष्कर्ष पर पहुँचें। लेकिन होता यही है कि सपना देख रहे हैं और अधबीच ही नींद टूट जाती है। हमें कुछ याद नहीं रहता। कभी कोई टुकड़ा याद रह जाए तो दिन के उजाले में बड़ा थोथा और हास्यास्पद लगता है।

अब ज़रा सोचें कि एक आदमी, उदाहरण के लिए सनातन बाबू, जो सपना रात में देखें वही दिन के उजाले में पूरी तरह जागते हुए देखा करें तो क्या किया जाए। रात में छूट गये या टूट गये सपने के किसी अंश को दिन में पूरा कर एक बिन्दु पर पहुँचा जाए और दूसरी रात उस बिन्दु से आगे का सपना देख लिया जाए। 

उदाहरण के लिए रात के सपने में देखा जाए कि सनातन बाबू ने भात के साथ मछली की तरी खायी। दिन के जागते में यह कल्पना कर ली जाए कि उसके बाद उन्होंने चार लोटा पानी पिया। और दूसरी रात सपने में देख लिया जाए कि पानी का बर्तन नीचे लुढ़काकर वे सो गये। इस तरह एक कहानी गूँथी जाए। 

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इस बात का पूरा ध्यान रखते हुए कि लापरवाही में कहानी हाथ से फिसलकर कहीं चूर-चूर न हो जाए। कि इस कहानी में सनातन बाबू के साथ घटने वाली घटना झूठ के सिवा कुछ नहीं। उतनी ही नीम झूठी जितना कि दिन के उजाले में सपने का कोई दृश्य साबित हो जाता है। इसलिए एक हल्की सजगता, एक ज़रा-सी दुनियादारी कहानी को नष्ट कर देगी। 

वैसे भी क्या सभी कहानियाँ सच ही होती हैं? क्या हम सच से उकताकर थोड़ी देर के लिए जानबूझकर झूठ नहीं जीने लगते? उदाहरण के लिए 'माना सूरज पश्चिम से उगता है' जैसी एक सचमुच की झूठी बात। कितना भोला और ज़िंदादिल झूठ, जिस पर सौ सच्चाइयाँ क़ुर्बान।

सनातन बाबू से बहुत पहले मिला था अर्थात कहानी की शुरुआत इस तरह कि बहुत दिनों पहले की बात है। सनातन बाबू का दूर-दूर तक कोई ऐसा नहीं जिसे अपना कह सकें। वैसे तो जान-पहचान वाले बहुत हैं— लगभग सारा गांव उन्हें पहिचानता है। सबसे राम राम दुआ सलाम है। लेकिन कर-कुटुम नाते-रिश्तेदारी में कोई नहीं। एक ही अकेले हैं। 

शादी की नहीं और उम्र के जिस पड़ाव पर हैं, अब कोई गुंजाइश भी नहीं निकलती। सिर के चौथाई बाल ग़ायब और बचे-खुचे के चौथाई पर चाँदी का पानी चढ़ रहा है। देह की रंगत तवे की चिकनाई लिये हुए। चेहरे के नक़ूश तीखे और इतने पहचाने कि लगे कहीं देखा है। 

हमेशा मुस्कराते रहते। मुस्कराहट भी ऐसी गोया किसी ज़माने में ठठाकर हँसे हों और बीतते ज़माने में वह हँसी सिमटते-सिमटते अब मुस्कराहट के रूप में होठों पर जमा हो गयी हो। बारिश के बाद छज्जों पर बचे-खुचे पानी की तरह। यानी इस मुस्कराहट के ज़माने के हास्यरस से कोई देना-पावना नहीं। यों कहें कि यह सनातन बाबू का स्थायी भाव है।

सनातन बाबू की उम्र जान कर क्या करेंगे। कृपया यह न पूछिए— क्योंकि आज बता न सकूँगा। बहुत हिसाब-किताब का मामला है। गांव में कोई भी नहीं जानता सनातन बाबू कितने वयसी हैं। वैसे भी दुनिया में अकेले की उम्र का क्या ठिकाना। बढ़ते-बढ़ते अचानक घटने लग जाए जैसी उम्र का कोई पता जानते हैं भला। 

सरल रेखा में दूरी और उम्र को मापा जा सकता है, लेकिन गोलाई में घूमने वाले की कहाँ शुरुआत और कहाँ अन्त। क्या बचपन में खेल नहीं खेला कि आगे चोर और पीछे पुलिस बने लड़के भागते हैं गोल-गोल। कुछ देर बाद हिसाब गड़बड़ा जाता है कि कौन भाग रहा है और पीछा कौन कर रहा है। कहीं से देखें, सनातन बाबू आगे तो उम्र पीछे। कहीं से उम्र आगे तो सनातन बाबू पीछे। 

सनातन बाबू पर ग़ौर कीजिए ज़रा—छोटी-छोटी पनैली आँखें, बड़े-बड़े कान, कानों में घने बाल। और भी ग़ौर करें तो गरदन से बाईं तरफ़ उतरती एक नस फूलकर इतनी हट्टी-कट्टी कि दूर से ही दिख जाए। छँटी हुईं मूँछें और मूँछों को फैलाती मुस्कराहट। मुस्कराने से आँखों और नाक की दोनों तरफ़ जो सिलवटें पड़ जाती हैं, वे हमेशा मुस्कराते रहने के कारण सनातन बाबू के चेहरे पर स्थायी होकर अब झुर्रियाँ बन गयी हैं। 

अरे नहीं भाई, उनकी उम्र का पता मुझे नहीं। गांव में किसी को नहीं। सनातन बाबू को देखने वाले उन्हें कई वर्षों से ऐसे ही देखते चले आ रहे हैं। यानी सिर्फ़ नाम भर से नहीं, सचमुच सनातन बाबू एक सनातन आदमी हैं। क्या पता ऐसे ही पैदा हुए हों।

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सनातन बाबू हमारे गांव के स्टेशन मास्टर हैं। लेकिन यह ठीक वाक्य नहीं है। गांव के नहीं, गांव में पड़ने वाले स्टेशन के स्टेशन मास्टर कहा जाना चाहिए। स्टेशन मास्टर कहिए या गार्ड या टिकट बाबू—सब कुछ वही हैं। मौका पड़ने पर कुली भी बन सकते हैं। सुबह एक पैसेंजर गाड़ी जाती है और शाम को वही लौट आती है। सप्ताह में इक्के-दुक्के लोग ही चढ़ते उतरते हैं। 

सुबह गाड़ी के चले जाने पर सनातन बाबू घर चले आते हैं। खाना बनाते हैं, खाते हैं और चार लोटा पानी पीकर सो जाते हैं। शाम को वापस स्टेशन जाना पड़ता है—इस चक्कर में दिनभर स्टेशन मास्टर की वर्दी पहने रहते हैं। गांव में, हाट बाजार में और सड़क पर जब भी वे दिखे, वर्दी पहने रहने के कारण स्टेशन मास्टर ही दिखे। 

बायीं जेब में हरी झंडी और दायीं में लाल झंडी लपेटकर रखे, गरदन में रेल की सीटी लटकाए। बाजार में उन्हें घूमता फिरता देख किसी को शक़ हो जाता है कि कहीं पास में रेलगाड़ी खड़ी कर इधर-उधर घूम रहे हैं। उदाहरण के लिए वर्दी पहिने ही वे घर में विश्राम कर रहे हैं तो ज़माने भर की रेलगाड़ियाँ रुकी पड़ी हैं जहाँ की तहाँ।

अब वर्दी पहिने सनातन बाबू उठें, हाथ-मुँह धोकर चाय पियें, फ़ारिग़ होकर हरी झंडी दिखायें तो ज़माने भर की रेलगाड़ियाँ चलें। रेलगाड़ी पर चढ़कर सनातन बाबू घूमने निकले हैं। पाँचला मोड़ हाट बाज़ार में सनातन बाबू रेलगाड़ी से उतरकर एक किलो आलू, दो मुट्ठे पालक, पाव भर प्याज़ और अदरक-लहसुन ख़रीदते हैं।

सब्ज़ी वाले को पैसे देते वक़्त कुछ पैसे कम पड़ जाते हैं तो उसे दिल्ली-बम्बई का एक टिकट दे देते हैं कि कभी बाल-बच्चों के साथ घूम फिर आना। सनातन बाबू आगे बढ़ जाते हैं। सब्ज़ी वाला ख़ुश होकर अपने बीवी-बच्चों समेत हाथ हिलाकर टा-टा करता है। रेलगाड़ी आगे बढ़ती है तो उन्हें दोनों तरफ़ सुन्दर-सुन्दर दृश्य दिखलाई पड़ते हैं। 

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