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मेरा मन इस क़दर कमज़ोर और चिड़चिड़ा हो चला है कि ख़ुद से ही डरने लगा है।

डर 

‘व्हॉट शैल आई डू विद दिस ऐब्सर्डिटी 
ओ हार्ट, ओ ट्रबल्ड हार्ट-दिस केरिकेचर
डेक्रेपिट एज दैट हैज़ बीन टाइड टु मी 
ऐज़ टु ए डॉग्ज़ टेल…’ 

यह किसकी आवाज़ मेरे कानों में गूंज रही है? आज से पहले क्या कभी भी ये पंक्तियाँ इस क़दर मेरे सिर पर चढ़कर बोली थीं? जैसे मेरे समूचे वजूद को चीरकर निकली हो यह चीख़। किसकी? उसकी या मेरी? तब तो मैं पैदा ही नहीं हुआ हूँगा। कैसे पता चला उसे, मैं बिलकुल इसी तरह चीखना चाहता हूँ, बिलकुल इन्हीं-इन्हीं शब्दों में… बिलकुल इसी, इसी वाक्य-विन्यास में? 

‘ये सब बुढ़ापे की अलामात है विभूति बाबू!’ 

ऑपरेशन टेबल पर रीढ़ की हड्डी में सूई चुभोई गई तब कैसी कँपकँपी छूटी थी, जो क़ाबू में ही नहीं आ रही थी। दो-दो लाल कम्बल उढ़ाए जाने के बाद भी। मगर… वह कँपकँपी कुछ भी तो नहीं थी इस झुरझुरी के सामने, जो एक ज़रा-से जुमले ने मेरी रीढ़ में दौड़ा दी है। जुमला क्या, कीला था वह, जो उसने मेरे आर-पार ठोंक दिया था। वह अब भी उसी तरह मुस्करा रहा है और देख रहा है अन्दर ही अन्दर छटपटाते-बिलबिलाते मुझको। कि कैसे उसके जुमले की तीखी नोक मेरे भीतर धंसती चली जा रही है। उसे मालूम है अपनी सारी काली करतूतों के साथ वह जिस तरह मेरे भीतर नंगा है, उस तरह और कोई नहीं। मेरे सारे सहयोगी उसके आगे दुम हिलाते रहते हैं। एक मैं ही तो हूँ जो उसकी नींद हराम कर सकता हूँ। तो, बस… उसने आज अपना मौक़ा ताड़ा और चुका दिया सारा बदला। 

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मगर… हद हो गई। इसमें इतना बौखलाने की क्या बात है? ऐसा क्या कह दिया उसने, जो कोई और नहीं कह सकता था? क्या यह सच नहीं कि जिस रोग के नाम पर मुझे यह चीरा लगा, वह ज़्यादातर उमरदार लोगों को ही हुआ करता है? अब यूँ तो कोई भी रोग किसी भी उम्र में किसी को भी हो सकता है। अपने बग़लवाले बख्शी जी ही नहीं बता रहे थे अभी परसों कि अभी-अभी जन्मे उनके जुड़वाँ पोतों में से एक का पैदा होते ही ऑपरेशन करना पड़ा था? तो… एक नवजात शिशु तक को जो हो सकता है और हुआ, वह तुम्हें भी हो गया तो इसमें इतना बिलबिलाने जैसी क्या बात है?

‘ये उस तरह रोग भी कहाँ है! डिस्लोकेशन नहीं हो जाता कभी-कभी हाथ या पाँव की हड्डी का? बस, वैसा ही समझ लीजिए। कोई अगर अपनी जगह से थोड़ा हटकर किसी और जगह घुस जाए तो उसे कहते हैं ‘हर्नियेट' कर जाना। आँत का कोई हिस्सा - जिस झोले में आँत रहती है, उस झोले में छेद करके बाहर निकल आए तो उसे कहते है हर्निया। आपका पेट खोलके, उस बाहर निकली हुई आँत को सुलझा-सुलझू के भीतर कर देंगे और झोले को उस जगह अच्छी तरह सी-सा देंगे। आपको पता भी नहीं चलेगा। छठे दिन छुट्टी कर देंगे आपकी। नो प्रॉब्लम।’

मगर कैसे नहीं है प्रॉब्लम? पाँच की जगह पूरे पन्द्रह दिन अस्पताल में सड़ना पड़ा। आज ही तो ज्वाइन किया - तभी तो उस नीच का मुँह देखना पड़ा और उसकी इतनी बकवास सुननी पड़ी। अभी भी रह-रहकर दर्द उठता है। और, सूजन जहाँ की तहाँ। 

‘ये सूजन नहीं, हार्डनेस है, प्रोफेसर साहब। हार्डनेस नहीं, तो हीलिंग भी नहीं। समझे?’ 

ये डॉक्टर बोरगांवकर भी ग़ज़ब के आदमी हैं। इनके मुँह से अपने लिए 'प्रोफेसर साब' का सम्बोधन मुझे कितना अटपटा लगता है! मुझे तो अपने कॉलेज को कॉलेज कहते शर्म आती है। अपने कलीग्ज़ पर शर्म आती है - पढ़ने-पढ़ाने से जिनका दूर का भी वास्ता नहीं। मगर किसका है? हरामखोरों के इस स्वर्ग में, जिसका नाम हिन्दुस्तान है, कुछ भी तो… कहीं भी तो अपनी जगह पर नहीं। समूचे मुल्क को ही हर्निया हो गया है। 

‘हर्निया नहीं, किसी बड़ी बीमारी का नाम लीजिए प्रोफेसर साहब। आप तो कुछ ज़्यादा ही सिनिकल हुए जा रहे हैं।’ 

डॉक्टर साहब, पता नहीं क्यों, कुछ ज़्यादा ही मेहरबान हैं मुझ पर। राउण्ड पर निकलते हैं तो - आखिरी पड़ाव यही है उनका। कम से कम पाँच-दस मिनट मेरे पास ही सुस्ताते हैं। उनकी टीम के लोगों को बड़ी हैरानी होती है इस पर। किस क़दर झल्ला पड़ा था मुझ पर उनका वह नाटा-सा असिस्टेंट नायर, उनके जाने के बाद, जब मैंने टांकों में दर्द की शिकायत की थी और उसे खुद अपने हाथ से काटने पड़े थे दो टाँके अपने प्रोफेसर के आदेश पर। 

‘शर्म नहीं आती!’ वह बड़बड़ा रहा था... ‘इतने सयाने बनते हो और बच्चों की तरह करते हो! ज़रा-सा दर्द भी बर्दाश्त नहीं होता?’ 

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‘...अरे, नहीं होता तो नहीं होता। तू है कौन, मेरे सयानेपन पर तरस खाने वाला?’ 

पर, क्या डॉक्टर बोरगांवकर ठीक कहते हैं? मैं सिनिकल हुआ जा रहा हूँ सचमुच? कहते थे - ‘अब जैसे आप अपनी खुद की तकलीफ़ को कुछ ज़्यादा ही बढ़ा-चढ़ा कर देख रहे हैं, उसी तरह देश के बारे में भी कुछ ज़्यादा ही सेंसिटिव हो रहे हैं। आप भूल जाते हैं कि हज़ार साल की गु़लामी जैसी आपने झेली है वैसी और किसी ने नहीं झेली। इस क़दर सुस्ती और इस क़दर तेज़ी दोनों एक साथ कहीं और देखी? इट्स सो नेचुरल। आफ्टर ऑल, वी आर दि ओल्डेस्ट सिविलिजे़शन ऑन दिस प्लैनेट। एण्ड वी आर राइट इन दि सेन्टर ऑफ ऑल दिस व्हर्लपूल। ...हमें इस तेज़ रफ़्तार से भागती दुनिया के साथ भी दौड़ना है और साथ में साबुत-सनातन हिन्दुस्तानी भी बने रहना है। कोई मामूली चुनौती है यह?’ 

डॉक्टर बोरगांवकर इस शहर के ही क्यों, समूचे प्रदेश के सबसे कुशल और सबसे विख्यात शल्य-चिकित्सक माने जाते हैं। पता नहीं, कहाँ से वक़्त निकाल लेते होंगे वे अपने काम के अलावा भी इतनी सारी चीज़ों में दिलचस्पी लेने को। यूँ भी ऐसा नामी-गिरामी सर्जन मेरे पिद्दी-से ऑपरेशन में दिलचस्पी दिखाए, यह क्या हैरत की बात नहीं? जिसके हाथ में इतना जस है, उसके बारे में यह सोचना भी सचमुच गुनाह है कि कभी कोई गड़बड़ी भी हो सकती है उसके हाथ से। 

मगर… मैं क्या करूँ? मेरा मन इस क़दर कमज़ोर और चिड़चिड़ा हो चला है कि ख़ुद से ही डरने लगा है। सवाल इस रोग का बिलकुल नहीं। जितना रोग-शोक अपने लड़कपन और जवानी के दिनों में ही भुगत चुका हूँ, उसके सामने यह क्या है? कुछ भी तो नहीं। अजीब बेशरम काठी है मेरी, जो हर रोग के लक्षणों को पहले चुपचाप भीतर दाखिल हो जाने देती है और फिर एक दिन ऐसे उन्हें खदेड़ देती है कि फिर याद भी नहीं रहता - कभी ऐसा रोग भी भुगता था मैंने। 


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